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खास हुई महँगाई...!

- शरद उपाध्याय

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महँगाई को वहाँ देख मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैं बहुत देर से फुटपाथ पर खड़ा था। सब्जी वाले वहीं बैठे हुए थे। मैं लगातार कोशिश कर रहा था कि वे भाव में एकाध रुपए की छूट दे दें या बहुराष्ट्रीय कंपनी के तर्ज पर आलू के साथ धनिया या मिर्ची मुफ्त दे दें। पर वे टस से मस नहीं हो रहे थे। मैंने देखा महँगाई प्याज के ठेले पर जमी हुई थी। मैं एकदम से उसके सामने पहुँच गया। 'तुम यहाँ फुटपाथ पर क्या कर रही हो। तुम्हारा यहाँ क्या काम है।'

वह हँसी, 'तुम मेरी छोड़ो, अपनी बताओ, तुम यहाँ फुटपाथ पर कैसे पहुँच गए। सुना है सरकार ने तुम पर बहुत ही मेहरबानी कर दी थी। मैंने सुना था कि अब तुम आम आदमी रहे ही नहीं। फिर फुटपाथ पर कैसे आ गए।'

मैं व्यंग्य सुनकर तिलमिला गया, 'सब तुम्हारी ही वजह से हुआ है। न जाने कितने दिनों बाद थोड़ी हिम्मत करके साग-भाजी की तरफ देखने लगा था। पर तुमने तो सब गड़बड़ कर दिया। अब देखो कितनी देर से सब्जी वाले से भाव कम करने की कह रहा हूँ। पर यह सुन ही नहीं रहा। कार के साथ स्कीम है। फ्लैट खरीदने जाओ तो कुछ न कुछ फ्री मिल जाता है पर आलू-प्याज के साथ कुछ नहीं है। यह कैसा जमाना आ गया है। तुमने यह क्या कर दिया।'

वह फिर हँसने लगी। 'तुम भी अजीब आदमी हो। जब तुम्हारी नियति में आम आदमी लिख दिया तो तुम खास बनने की कोशिश क्यों कर रहे हो। तुम्हें खुद की गलती नजर नहीं आती।'

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मैं चौंक गया। मैंने भला क्या कर दिया। मैं तो खुद ही महँगाई के कारण परेशान हूँ। कैसे गुजारा चल रहा है, मैं ही जानता हूँ। मैने कहना चाहा पर उसने बोलने नहीं दिया।

'अब तुम कहोगे कि तुम्हारी गलती नहीं है, भैया, मजूरी बढ़ाने का मतलब यह नहीं है कि मुर्ग-मुसल्लम की सोचने लग जाओ। चार पैसे क्या आ गए। तुम अपना धर्म ही भूल गए।'

'धर्म, मैं समझा नहीं।'

'तुम जीवन भर रूखी-सूखी खाकर ठंडा पानी पीते थे। कपड़ा मिल गया तो तन ढँक लेते थे, हारी-बीमारी में भगवान का नाम लेकर काम चलाते थे। आज दो पैसे क्या दिख गए, अपनी औकात भूल गए। अगर तुम आलू-प्याज खाओगे तो बड़े आदमी क्या खाएँगे।'

'तुम कैसी बात कर रही हो।' 'सही बात है, बरसों से तुम सूखी रोटी खाकर ठंडा पानी पी लेते थे तो सब सही चल रहा था। तुमने यह सब शुरू कर दिया तो ये दिन देखने पड़ गए। '

'तो हम क्या करें। हमें खाने का कोई अधिकार नहीं है।'

महँगाई हँसने लगी, 'तुम तो अजीब बात करते हो, तुम कुछ नहीं हो। लोकतंत्र के एक पुर्जे हो, एक वोट हो। भौतिक सुखों की आकांक्षा मत करो। यह तुम्हारे लिए नहीं है।'

मैं कुछ कहता उससे पहले ही महँगाई जाकर पेट्रोल पर सवार हो गई। मैं क्या कहता, कुछ कहने का तो अधिकार आम आदमी के पास है नहीं।

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