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चिराग ए मोमबत्ती!

- सहीराम

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पहले ज्ञानीजन कहते थे- कोई चिराग तो जलाओ यारों! अब सिविल सोसाइटी वालों का आह्वान होता है- एक मोमबत्ती तो जलाओ यारों ! पहले तो घर का लाड़ला भी चिराग ही होता था, जिससे कई बार घर भी जल जाता था। जैसा कि कहा ही है- इस घर को आग लग गई, घर के चिराग से।

अब सिविल सोसाइटी के चिरागों से ऐसा कोई खतरा नहीं। वे बड़ा सेफ खेलते हैं और सिर्फ मोमबत्तियां जलाते हैं। दुष्यंत ने कहा था - 'कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए, कहाँ चिराग मय्यसर नहीं शहर के लिए, पर यहां शहर के लिए मोमबत्तियां इफरात में मय्यसर हैं।

राम वनवास से वापस आए तो लोगों ने खुशी के मारे घी के दीये जलाए थे। तब अगर सिविल सोसाइटी होती तो राम के वनवास से लौटने पर घी के दीये जलाती या नहीं, यह तो पता नहीं पर राजा दशरथ के फैसले के खिलाफ मोमबत्तियां जरूर जला देती। तब दीया खुशी का जलता था। अब मोमबत्ती नाखुशी की जलती है। दीया ज्ञान का जलता था। मोमबत्ती अभी ज्ञान का प्रतीक नहीं बनी है। अलबत्ता सिविल सोसाइटी की प्रतीक जरूर बन गई है।

दीया रोशनी का जलता था। मोमबत्ती रोशनी नहीं है। दीया उजाला था। अंधेरा दूर भगाने के लिए था। मोमबत्ती उजाला नहीं है बल्कि वह तो आजकल उजाले में ही ज्यादा जल रही है, इंडिया गेट पर, जहाँ झमाझम उजाला होता है। अलबत्ता कभी-कभी वह अंधेरा दूर भगाने के लिए भी इस्तेमाल होती है पर ऐसा तब होता है जब घरों में बिजली चली जाती है।

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सिविल सोसाइटी उसे इस तरह इस्तेमाल नहीं करती। खतरा यह है कि अगर सिविल सोसाइटी यूँ ही मोमबत्तियां जलाती रही तो मोमबत्ती महंगी हो सकती है और ऐसे में बिजली जाने पर शायद घर में जलाने को भी न मिले। या फिर यह भी हो सकता है कि सिविल सोसाइटी के लिए कोई कॉरपोरेट या एमएनसी मोमबत्तियां प्रायोजित करने लगे।

पर चिराग तो पीरों की मजारों पर भी जलता रहा है, दीये मंदिरों में जलते रहे हैं और मोमबत्तियां चर्च में जलती हैं। पर अभी तो उनकी भूमिका सिर्फ जुलूसों तक ही लग रही है। इस मामले में चिराग और दीये पीछे छूट गए हैं। वैसे जिस तरह आजकल सिविल सोसाइटी के मोमबत्ती जुलूस निकलते हैं, वैसे किसी जमाने में विरोध के मशाल जुलूस निकलते थे और उस पर यह पाबंदी बिल्कुल भी नहीं थी कि सिविल सोसाइटी ही वह जुलूस निकालेगी, वह जुलूस तो सोसाइटी का कोई भी हिस्सा, कोई भी तबका निकाल सकता था।

कभी मशाल विरोध का भी प्रतीक थी। ज्ञान का भी प्रतीक थी। जैसे कि साहित्य को समाज के आगे-आगे चलने वाली मशाल ही कहा जाता था। मशाल रोशनी भी थी, उजाला भी थी पर मोमबत्ती मशाल नहीं हो सकती। जब वह चिराग नहीं हो सकती, दीया नहीं हो सकती तो मशाल भी नहीं हो सकती।

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