आज गाँधी जयंती है। पुण्यतिथि नौ माह पहले गुजर चुकी है। गाँधी प्रतिमाओं और उनकी तस्वीरों को पिछली पुण्यतिथि के बाद धोने-पोंछने का यह पहला अवसर आया है। प्रत्येक वर्ष ऐसा ही होता है, जयंती और पुण्यतिथि के बीच की अवधि में गाँधीजी के साथ कोई नहीं होता है।
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कहते हैं कि जो राष्ट्र अपने चरित्र की रक्षा करने में सक्षम नहीं है, उसकी रक्षा कोई नहीं कर सकता है। क्या परमाणु बम भारतीयता की रक्षा कर पाएगा? दरअसल, यह भुला दिया गया है कि पहले विश्वास बनता है, फिर श्रद्धा कायम होती है। किसी ने अपनी जय-जयकार करवाने के लिए क्रम उलट दिया और उल्टी परंपरा बन गई। अब विश्वास हो या नहीं हो, श्रद्धा का प्रदर्शन जोर-शोर से किया जाता है। गाँधीजी भी श्रद्धा के इसी प्रदर्शन के शिकार हुए हैं। उनके सिद्धांतों में किसी को विश्वास रहा है या नहीं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। जयंती और पुण्यतिथि पर उनकी कसमें खाकर वाहवाही जरूर लूटी जा रही है। गाँधीजी के विचार बेचने की एक वस्तु बनकर रह गए हैं। वे छपे शब्दों से अधिक कुछ नहीं हैं।
इसलिए ही गाँधीजी की जरूरत आज पहले से कहीं अधिक है। इस जरूरत को पूरा करने की सामर्थ्य वाला व्यक्तित्व दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है। हर कोई चाहता है कि आदर्श और मूल्य इतिहास में बने रहें और इतिहास को वह पूजता भी रहेगा। परंतु अपने वर्तमान को वह इस इतिहास से बचाकर रखना चाहता है। अपने लालच की रक्षा में वह गाँधी की रोज हत्या कर रहा है, पल-पल उन्हें मार रहा है और राष्ट्र भीड़ की तरह तमाशबीन बनकर चुपचाप उसे देख रहा है। शायद कल उनमें से किसी को यही करना पड़े! अपने हितों की विरोधी चीजों को इतिहास में बदल देने में भारतीयता आजादी के बाद माहिर हो चुकी है। वर्तमान और इतिहास की इस लड़ाई में वर्तमान ही जीतता आ रहा है क्योंकि इतिहास की तरफ से लड़ने वाले शेष नहीं हैं।
आज गाँधी जयंती है। गाँधीजी की प्रतिमा के सामने आँख मूँदकर कुछ क्षण खड़े रहने वाले क्या यह पश्चाताप कर रहे होंगे कि वे गाँधीजी के बताए रास्तों पर क्यों नहीं चल रहे हैं? नहीं, वे यह कतई नहीं सोच रहे होंगे। तब वे मन ही मन क्या कह रहे होंगे? सोचिए और उस परमनन कीजिए। गाँधी जयंती पर यही बड़ा काम होगा।