आर्थिक अभावों के बावजूद उन्होंने 1926 में काशी विद्यापीठ से 'शास्त्री' की उपाधि प्राप्त की। इस उपाधि के कारण ही कायस्थ परिवार में जन्मे लालबहादुर को 'शास्त्री' कहा जाने लगा। शास्त्रीजी महात्मा गाँधी से प्रभावित थे।
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नेहरूजी के प्रभावशाली व्यक्तित्व के मोहपाश से बँधी भारतीय जनता, जो उनके निधन से स्तब्ध रह गई थी, लालबहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्री बनने से वही जनता आश्चर्यचकित रह गई। राजनीति के संतुलित समीक्षक भी तब अपनी टिप्पणियों में संतुलन नहीं रख सके थे। कतिपय समीक्षकों को लगा था कि प्रधानमंत्री के पद पर शास्त्रीजी का चयन स्वभाव से सुसंस्कारी किंतु कमजोर आदमी का चयन है। शीघ्र ही समीक्षकों की शंकाएँ निर्मूल साबित हुईं। अपनी स्वभाविक सहिष्णुता और सराहनीय सूझबूझ से समस्याओं को सुलझाने की जो शैली शास्त्रीजी ने अपनाई, उससेसबको पता चल गया कि जिस आदमी के कंधों पर भारत का भार रखा गया है, वह अडिग, आत्मविश्वास और हिमालयी व्यक्तित्व का स्वामी है।
शास्त्रीजी प्राणपण से राष्ट्रोत्थान के लिए प्रयासशील रहे। वे राष्ट्रीय प्रगति के पर्वतारोही थे, इसलिए राष्ट्र को उन्होंने उपलब्धियों के उत्तुंग शिखर पर पहुँचाया। उनकी प्रशासन पर पैनी पकड़ थी। राष्ट्रीय समस्याओं के समुद्र में आत्मविश्वासपूर्वक अवगाहन करके उन्होंने समाधान के रत्न खोजे। उदाहरणार्थ- भाषावाद की भभकती भट्टी में भारत की दक्षिण और उत्तर भुजाएँ झुलस गईं तो शास्त्रीजी ने राष्ट्रभाषा विधेयक के विटामिन से दोनों की प्रभावशाली चिकित्सा की। असम के भाषाई दंगों के दावानल के लिए 'शास्त्री फार्मूला' अग्नि-शामक सिद्ध हुआ। पंजाब में अकालियों के आंदोलन के विस्फोट को रोकने में शास्त्रीजी की भूमिका महत्वपूर्ण रही।
शास्त्रीजी ने अपने प्रधानमंत्रित्व के दौर में देश को परावलंबन की पगडंडी से हटाकर स्वावलंबन की सड़क पर गतिशील किया। उन्होंने 'जय जवान, जय किसान' के नारे के साथ हर क्षेत्र में स्वावलंबी, स्वाभिमानी और स्वयंपूर्ण भारत के सपने को साकार करने के लिए उसे योजना के ढाँचे और युक्ति के साँचे में ढाला।
सन् 1965 में भारत-पाक युद्ध में भारत की पाकिस्तान पर विजय, शास्त्रीजी के कार्यकाल में राष्ट्र की उच्चतम उपलब्धि थी। वे अहिंसा के पुजारी थे, किंतु राष्ट्र के सम्मान की कीमत पर नहीं। उनका आदेश होते ही शक्ति से श्रृंगारित एवं आत्मबल से भरपूर भारतीय सेना ने पाकिस्तान की सेना को परास्त करके विजयश्री का वरण कर लिया था।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि लालबहादुर शास्त्री आपदाओं में आकुल और विपत्तियों में व्याकुल नहीं हुए। उस समय जबकि सारा देश ही अनिश्चय के अंधकार में अचेत था, वे चेतना के चिराग की तरह रोशन हुए। उनका व्यक्तित्व तानाशाही के ताड़-तरु की श्रेणी में नहीं, प्रजातंत्र की तुलसी के बिरवे के वर्ग में आता है। भारतीय संस्कृति में तुलसी का बिरवा उल्लेखनीय तो है ही, सम्माननीय भी है।