स्थानीयता में निहित वैश्विकता
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चिन्मय मिश्र
गाँधी की मृत्यु को भी 60 वर्ष होने को आए परंतु हममें से अधिकांश अभी भी उनका मूल्यांकन एक ऐसे व्यक्ति के रूप में करते हैं जो सत्य और अहिंसा को जीवन का उद्देश्य बताता था। परंतु गाँधी दर्शन के अनुसार ये उद्देश्य भर नहीं, यही जीवन है। इसके इतर जीवन का कोई अर्थ ही नहीं है। आज सारे विश्व में गाँधी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जा रहा है, जिसने एक अहिंसक समाज के प्रति विश्व को जागरूक किया था। हम सब भी उन्हें उनके वैश्विक स्वरूप में ही देखना पसंद करते हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि यह हमें अत्यंत सुविधाजनक जान पड़ता है। क्योंकि इस तरह से हम सिर्फ सैद्धांतिक विमर्श का हिस्सा बनकर बच जाते हैं और गाँधी भी दर्शन के व्यावहारिक पक्ष की अनदेखी करने हेतु स्वतंत्र हो जाते हैं। गाँधीजी का एक वैश्विक स्वरूप है। हर महान व्यक्ति संपूर्ण मानवता की धरोहर होता है। गाँधीजी अपनी वैश्विक सोच के बरक्स एक निहायत ही स्थानीयता में जीने वाले मनुष्य थे। जीवन के प्रत्येक मोड़ पर उन्होंने अपनी कमजोरियों और त्रुटियों को स्वीकार किया। किसी भी किस्म की आत्म प्रवंचना से वे ताउम्र बचते रहे। इसके ठीक विपरीत आज जब हम अपने आसपास से लेकर सुदूर संयुक्त राज्य अमेरिका तक देखते हैं तो हमें एक भी ऐसा सार्वजनिक व्यक्तित्व नजर नहीं आता जो अपनी कमियों या त्रुटियों को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करे।
आज भारतीय राष्ट्र पूरी तरह से हिंसा की तरफदारी करते हुए 2 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से गाँधी जयंती को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में मनाने को तत्पर है।
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फिर चाहे वह अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश हो या संयुक्त राष्ट् संघ के (पूर्व) महासचिव कोफी अन्नान। भारतीय संदर्भों में देखें तो स्थितियाँ और भी स्पष्ट हो जाती हैं। क्योंकि यहाँ तो मामला बाबरी मस्जिद का हो या रामसेतु का, तथाकथित विकास हेतु परमाणु ऊर्जा के उत्पादन के लिए अमेरिका से समझौते का हो या उसी विकास के लिए नर्मदा घाटी और ऐसी अनेक परियोजनाओं के निर्माण के लिए करोड़ों को विस्थापित करने का, कोई भी व्यक्ति अपनी त्रुटि स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
आज भारतीय राष्ट्र पूरी तरह से हिंसा की तरफदारी करते हुए 2 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से गाँधी जयंती को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में मनाने को तत्पर है। ऐसे में उसे क्या एक क्षण रुककर यह नहीं सोचना चाहिए कि उसके अपने प्रयत्न किस तरह हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं? फिर चाहे बात किसानों व बुनकरों की आत्महत्या की हो, नक्सलवादियों व आतंकवादियों की हो, गरीबी, भुखमरी व गंदगी में पलते समाज की हो, स्कूल, कॉलेज की फीस न भर पाने की आशंका में आत्महत्या करते मेधावी छात्रों की हो, यह सूची बहुत लंबी है, परंतु भारत में व्याप्त व्यापक हिंसा को समझने के लिए इतने उदाहरण काफी हैं।
इस हिंसा को समाप्त करने का गाँधीवादी या दूसरे शब्दों में कहें तो एकमात्र तरीका स्थानीय समस्याओं को स्थानीय संसाधनों से हल करना है। स्थानीय समस्याओं को वैश्विक रूप देने की अपनी प्रवृत्ति पर लगाम लगाकर ही हम हिंसा का प्रतिकार कर सकते हैं। गाँधीजी के जन्मदिन को मनाने की एक अनिवार्य शर्त यह है कि हम अहिंसा और सत्य को अपने अनुभवों पर तौलें, तदुपरांत किसी निर्णय पर पहुँचें। महात्मा गाँधी के ही शब्दों में कहें तो भारतीय सभ्यता एक लंगर की तरह है जो न केवल पूरे जहाज को तूफान से होने वाले नुकसान से रोकती है अपितु शांत समय में भी जहाज के अडिग खड़े रहने में उसकी आवश्यकता पड़ती है। आज भारत नामक जहाज ने स्थानीयता नामक लंगर को उठाकर इस जहाज को भटकने के लिए छोड़ दिया गया है।
अल्लामा इकबाल ने कभी भारत के बारे में लिखा था-
'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा।'
हमने, आपने, सबने इस शेर को तो कंठस्थ कर रखा है परंतु गाँधी के बाद शायद ही किसी नेता ने इसको अर्थ देने का प्रयास किया है। परंतु अपसंस्कृति का जो काम हजार साल की गुलामी भी नहीं कर पाई वह 60 साल की आजादी ने कर दिखाया। गाँधीजी आज होते तो क्या कहते या करते यह सब सोचने के बजाय हम सबको गाँधीजी को सार्थक रूप से आत्मसात करने की जरूरत है। एक अहिंसक समाज की स्थापना गाँधी के देश का नैतिक कर्तव्य भी है। 'जोश' मलीहाबादी के शब्दों में कहें तो-
वक्त लिखेगा कहानी एक नए मजमून की
जिसकी सुर्खी को जरूरत है तुम्हारे खून की।