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हमने हमीं से गाँधी छीन लिया

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- रमेश दव

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आजादी के साठ बरस और गाँधी की हत्या के उनसाठ बरस बाद यदि यह सवाल किया जाए कि गाँधी से हमने क्या पाया था तो एक सहज जवाब यह मिलेगा, कि गाँधी से मिली थी आजादी, गाँधी से मिला था स्वाभिमान, गाँधी से मिला था स्वावलंबन, गाँधी से मिला था सर्वधर्म समभाव और गाँधी से मिला था स्वदेशीपन पर गर्व, हमने गाँधी को शरीर से तो खोया ही लेकिन उससे कहीं ज्यादा गाँधी को इन सब मूल्यों से खो दिया।

गाँधी कभी किसी मंदिर में नहीं गए मगर वे सबसे बड़े धार्मिक थे। गाँधी कभी तीर्थ नहीं गए मगर भारत की गरीबी और गाँव के वे सबसे बड़े तीर्थयात्री थे। गाँधी कभी सत्ता में नहीं रहे मगर दुनिया की बड़ी से बड़ी सत्ता उनके आगे छोटी थी। गाँधी किसी के दुश्मन नहीं थे मगर उनसे दोस्ती करना भी मामूली बात नहीं थी। गाँधी ने स्वयं को हिन्दू कहा, मगर हिन्दुत्व का कोई झंडा नहीं उठाया। गाँधी ने प्रार्थना सभाएँ कीं मगर कभी कोई कर्मकांड, हवन, यज्ञ नहीं किया और वैष्णव प्रार्थना भी गाई तो पराई पीर की प्रार्थना गाई।

गाँधी शिक्षाविद नहीं थे, फिर भी शिक्षा पर जो गाँधी ने कहा वैसा कोई शिक्षा नीति या आयोग नहीं कह सका। गाँधी ने न भगवाकरण का नाम लेकर हिन्दू शिक्षा की बात की, न वेदों की, न ज्योतिष की और न किसी धार्मिक या धर्म शिक्षा की। गाँधी ने यह भी नहीं कहा कि इतिहास कैसा पढ़ाया जाए। भूगोल हमारा क्या हो और विज्ञान एवं गणित कब, कितना पढ़ाया जाए। गाँधी ने तो केवल यह कहा कि जिस शिक्षा से हाथ काम करके पेट भरना सीख जाएँ, वह शिक्षा दिलाई जाए।

जिस धर्म से प्रेम, अहिंसा और शांति पैदा होती हो वह धर्म सिखाया जाए। जिस इतिहास से हमें स्वयं, देश व समाज के लिए कुछ अच्छा काम करने की प्रेरणा मिलती हो, वह इतिहास पढ़ाया जाए और जो भूगोल मनुष्यता की धरती से जुड़ता हो, जहाँ हर तरह की सीमा समाप्त हो जाती हो और जिस धरती पर रहकर इंसान, इंसान बना रहे, वह भूगोल पढ़ायाजाए। गाँधी का विज्ञान था उनका अपना जीवन। कोई काम गाँधी का ऐसा नहीं था जो अवैज्ञानिक हो या जिसके लिए ज्योतिषियों से मुहूर्त निकलवाने पड़ते हों।

गाँधी-गणित तो पूरी तरह से कर्म का ही गणित था। उनके आश्रम में अतिथि बनकर जाएँ या स्वयंसेवक, काम का रिश्ता भोजन से था, काम का रिश्ता भजन से था, काम का रिश्ता कप़ड़ों से थे और काम का ही रिश्ता वहाँ रहने से था। चरखा चलाएँ, बागवानी करें, सफाई करेंया सेवा करें, काम के बिना जीवन नहीं। गाँधी के लिए घड़ी समय नहीं थी बल्कि समय ही घड़ी था।
गाँधी के स्वदेशी रोजगार
सन्‌ 1947 से आज तक शिक्षा के जितने दस्तावेज बने, उनसे धीरे-धीरे गाँधी को इस कदर हटाया गया कि वर्ष 2000 का राष्ट्रीय शिक्षा पाठ्यक्रम केवल गाँधी का उद्धरण देकर समाप्त हो जाता है। गाँधी के स्वदेशी रोजगारों को कोई जगह नहीं।
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गाँधी जिसे चाहते उसे दुनिया की सबसे बड़ी नौकरी दिलवा सकते थे मगर गाँधी ने कभी कोई सिफारिश नहीं की। कभी कोई चन्दा न आश्रम के लिए लिया और न किसी पार्टी के लिए। वे बड़े से बड़े उद्योगपति के अतिथि रहे मगर उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि देवदास को यहाँ, हरि को यहाँ, मणि को यहाँ और राम को यहाँ लगा दीजिए। बड़े परिवार के होते हुए गाँधी ने अपना कोई परिवारवाद नहीं रचा। दीवान पिता के पुत्र होते हुए न स्वयं दीवान बने और न लड़कों को बनाया। वकील होते हुए केवल सत्य की वकालत पर लड़े। जब यहलगा कि सत्य की वकालत से ज्यादा जरूरी है सत्य की लड़ाई, तो सत्याग्रह लेकर सत्य की लड़ाई में लग गए।

सन्‌ 1947 से आज तक शिक्षा के जितने दस्तावेज बने, उनसे धीरे-धीरे गाँधी को इस कदर हटाया गया कि वर्ष 2000 का राष्ट्रीय शिक्षा पाठ्यक्रम केवल गाँधी का उद्धरण देकर समाप्त हो जाता है। गाँधी के स्वदेशी रोजगारों को कोई जगह नहीं, गाँधी के गाँव को कोई जगह नहीं, गाँधी के गरीब को कोई जगह नहीं और जो लोग भगवाकरण की बात उठा रहे हैं वे भी यह नहीं कह रहे कि गाँधी के हटने का मतलब ही भगवाकरण है।

गाँधी के शिल्प समाप्त यानी चरखे की जगह कम्प्यूटर और इन्फोटेक तो आएँगे ही, हाथों के काम के बजाए केवल मशीनों के काम होंगे तो बेरोजगारों की भीड़ तो पैदा होगी ही। नब्ज पकड़कर बीमारी बताने वाले और प्रकृति से इलाज करने वाले जब मशीनों से जाँच करेंगे तो अस्पताल में डॉक्टर कहाँ होंगे? वे तो केवल बीमारियों और मशीनों के व्यापारी होंगे। पहले मशीन डॉक्टर की सेवक थी अब मशीन का सेवक डॉक्टर है।

गाँधी ने गरीबी से लड़ने का मंत्र दिया था, हमने अमीर बनने के यंत्र बनाए। मंत्र स्वयं मर गया या मार डाला गया और यंत्र हमें इस कदर मार रहे हैं कि दुनिया का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र, दुनिया की सबसे ऊँची इमारतों में बैठा राष्ट्र और दुनिया की सर्वश्रेष्ठ मशीनों वाला राष्ट्र उन्हीं मशीनों से क्षण भर में थरथरा उठा जिन मशीनों की खोज उसने और उसके दोस्त या दुश्मन देशों ने मिलकर की थी। शस्त्र किसी के हाथ में भी हो, वह शांति सिखा ही नहीं सकता। अस्त्र किसी के पास हो, वे अहिंसा सिखा नहीं सकते। शस्त्रों से ज्यादा जब नफरतें बढ़ गईंतो शस्त्र ही आतंक बने, शस्त्र ही आतंकवाद, शस्त्र ही युद्ध और शस्त्र ही महायुद्ध। गाँधी की होड़ किसी ने नहीं की।

अच्छाइयों से होड़ खत्म हो गई और धर्म, जिसे दुनिया की पवित्रतम वस्तु कहा जा सकता है, उसे धर्मांधों और तथाकथित धर्मनिरपेक्षकों ने अधर्म में बदल लिया।

गाँधी ने नंगे बदन का नेतृत्व दिया था मगर आज वस्त्रों की फैशन परेड और विश्व सुन्दरी प्रतियोगिताएँ हो रही हैं, वह भी भारत और फिलीपींस जैसे देशों में, जहाँ का सौंन्दर्य तो फकीरी में रहा है। गाँधी ने चवन्नी चन्दे से कांग्रेस चलाई, अब चन्दा हर दल का, हर नेताका धंधा हो गया है। एक प्रकार का चन्दा माफिया पूरी राजनीति में उतर आया है। गाँधी के पास गुण्डे फटक भी नहीं सकते थे अब गुण्डे नेताओं को पाल रहे हैं। गाँधी की शिक्षा में संस्कार मूल्य थे, अब पूरी शिक्षा में पैसा ही मूल्य है और पैसों का ही मूल्य है।

गाँधी अपना नमक बनाते थे और खाते थे, हम अपने नमक से वफादारी छोड़कर मल्टीनेशनल नमक खाने लगे हैं। अनाज हमारा, डिब्बा उनका। पानी हमारा, बोतल उनकी। खदानें हमारी, खनिज उनके। यहाँ तक कि सरकार हमारी मगर आर्थिक गुलामी उनकी। कितना दिया था गाँधी ने, यह अगर कोई जानना चाहे तो 'हिन्द स्वराज्य' और 'आत्मकथा' पढ़े मगर कितना खो दिया हमने गाँधी को, यह सब कोई जानना ही नहीं चाहता तो फिर क्यों कहें कि गाँधी भारत की देन हैं? इससे तो बेहतर यही है कि अँगरेजों ने हमें गाँधी दिया था मगर हमने हमीं से गाँधी छीन लिया।

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