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चतुर्थी तिथि की श्रेष्ठता

साल भर के गणेश चतुर्थी व्रत-माहात्म्य एवं व्रत विधि

हमें फॉलो करें चतुर्थी तिथि की श्रेष्ठता
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शिवपुराण की कथा है- श्वेतकल्प में जब भगवान शंकर के अमोघ त्रिशलू से पार्वतीनंदन दण्डपाणि का मस्तक कट गया, तब पुत्रवत्सला जगज्जननी शिवा अत्यंत दुःखी हुईं। उन्होंने बहुत सी शक्तियों को उत्पन्न किया और उन्हें प्रलय मचाने की आज्ञा दे दी। उन परम तेजस्विनी शक्तियों ने सर्वत्र संहार करना प्रारंभ किया। प्रलय का दृश्य उपस्थित हो गया। देवगण हाहाकार करने लगे। तब समस्त भयनाशिनी जगदम्बा को प्रसन्न करने के लिए देवताओं ने उत्तर दिशा से हाथी का सिर लाकर शिवा पुत्र के धड़ से जोड़ दिया। महेश्वर के तेज से पार्वती का प्रिय पुत्र जीवित हो गया।

अपने पुत्र गजमुख को जीवित देखकर त्रैलोक्यजननी शिवा अत्यंत प्रसन्न हुईं। उस समय दयामयी पार्वती को प्रसन्न करने के लिए ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि सभी देवताओं ने वहीं गणेश को 'सर्वाध्यक्ष' घोषित कर दिया। उसी समय अत्यंत प्रसन्न देवाधिदेव महादेव ने अपने वीर पुत्र गजानन को अनेक वर प्रदान करते हुए कहा- 'विघ्नाश के कार्य में तेरा नाम सर्वश्रेष्ठ होगा। तू सबका पूज्य है, अतः अब मेरे सम्पूर्ण गणों का अध्यक्ष हो जा।'

तदनन्तर परम प्रसन्न भक्तवत्सल आशुतोष ने गणपति को पुनः वर प्रदान करते हुए कहा-'गणेश्वर! तू भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि को चन्द्रमा का शुभोदय होने पर उत्पन्न हुआ है। जिस समय गिरिजा के सुंदर चित्त से तेरा रूप प्रकट हुआ, उस समय रात्रि का प्रथम प्रहर बीत रहा था, इसलिए उसी दिन से आरंभ करके उसी तिथि में प्रसन्नता के साथ (प्रतिमास) तेरा उत्तम व्रत करना चाहिए। वह व्रत परम शोभन तथा संपूर्ण सिद्धियों का प्रदाता होगा।

फिर व्रत की विधि बतलाते हुए सर्वसुहृद प्रभु पार्वतीवल्लभ ने गणेश चतुर्थी के दिन अत्यंत श्रद्धा-भक्तिपूर्वक गजमुख को प्रसन्न करने के लिए किए गए व्रत, उपवास एवं पूजन के माहात्म्य का गान किया और कहा- 'जो लोग नाना प्रकार के उपचारों से भक्तिपूर्वक तेरी पूजा करेंगे, उनके विघ्नों का सदा के लिए नाश हो जाएगा और उनकी कार्यसिद्धि होती रहेगी। सभी वर्ण के लोगों को, विशेषकर स्त्रियों को यह पूजा अवश्य करनी चाहिए तथा अभ्युदय की कामना करने वाले राजाओं के लिए भी यह व्रत अवश्य कर्तव्य है। व्रती मनुष्य जिस-जिस वस्तु की कामना करता है, उसे निश्चय ही वह वस्तु प्राप्त हो जाती है, अतः जिसे किसी वस्तु की अभिलाषा हो, उसे अवश्य तेरी सेवा करनी चाहिए।'

'गणेशपुराण' में भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मध्याह्न काल में भी आदिदेव गणेश के पूजन की तीव्र लालसा से शिवप्रिया लेखनाद्रि के एक रमणीय स्थान पर गणेश का ध्यान करते हुए उनके एकाक्षरी मंत्र का जप करने लगीं। इस प्रकार बारह वर्ष तक कठोर तप करने पर गुण वल्लभ गणेश संतुष्ट हुए और पार्वती के सम्मुख प्रकट होकर उन्होंने उनके पुत्र के रूप में अवतरित होने का वचन दिया।

भाद्र शुक्ल चतुर्थी का मध्याह्न काल था। उस दिन चन्द्र वार, स्वाति नक्षत्र एवं सिंह लग्न का योग था। पाँच शुभ ग्रह एकत्र थे। जगज्जननी शिवा ने गणेशजी की षोडशोपचार से पूजा की और उसी समय उनके सम्मुख अमित महिमामय, कुन्दधवल, षड्भुज, त्रिनयन भगवान गुणेश पुत्र रूप में प्रकट हो गए।

भक्तसुखदायक परमप्रभु गुणेश की प्राकट्य तिथि होने के कारण भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी दयाधाम गुणेश की वरदा तिथि प्रख्यात हुई। उस दिन मध्याह्न काल में भगवान गणेश की मृन्मयी मूर्ति की श्रद्धा-भक्तिपूर्ण पूजा एवं मंगलमूर्ति प्रभु के स्मरण, चिंतन एवं नाम-जप का अमित माहात्म्य है। वह पुण्यमय तिथि अत्यंत फलप्रदायिनी कही गई है। चतुर्मुख ब्रह्मा ने अपने मुखारविन्द से कहा है कि 'इस चतुर्थी व्रत का निरूपण एवं माहात्म्य गान शक्य नहीं।'

'मुद्गल पुराण' में भी आता है कि परम पराक्रमी लोभासुर से त्रस्त होकर देवताओं ने परम प्रभु गजानन से उसके विनाश की प्रार्थना की। दयाधाम गजमुख उस महान असुर के विनाश के लिए परम पावनी चतुर्थी को मध्याह्न काल में अवतरित हुए, इस कारण उक्त तिथि उन्हें अत्यंत प्रीति प्रदायिनी हुई।

चतुर्थी तिथि की उत्पत्ति, तप और वर प्राप्ति

श्रीगणेश को अत्यंत प्रिय परम पुण्यमयी 'वरदा चतुर्थी' की उत्पत्ति की पवित्रतम कथा मुद्गल पुराण में प्राप्य है। वह अत्यंत संक्षेप में इस प्रकार है- लोकपितामह ब्रह्मा ने सृष्टि रचना के अनन्तर अनेक कार्यों की सिद्धि के लिए अपने हृदय में श्री गणेश का ध्यान किया। उसी समय उनके शरीर से परा प्रकृति, महामाया, तिथियों की जननी कामरूपिणी देवी प्रकट हुईं। उन परम लावण्यवती देवी के चार पैर, चार हाथ और चार सुंदर मुख थे। उन्हें देखकर विधाता अत्यंत प्रसन्न हुए।

उन महादेवी ने सृष्टा के चरण कमलों में प्रणाम कर अनेक स्तोत्रों से उनका स्तवन करने के अनन्तर निवेदन किया- 'ब्रह्माण्डनायक! मैं आपके शुभ अंग से उत्पन्न हुई हूँ। आप मेरे पिता हैं। आप मुझे आज्ञा प्रदान करें, मैं क्या करूं? प्रभो! आपके पावन पद-पद्मों में मेरा बारंबार प्रणाम है। आप मुझे कृपापूर्वक रहने के लिए स्थान और विविध प्रकार के भोग्यपदार्थ प्रदान करें।'

लोकसृष्टा ने श्री गणेश का स्मरण कर उत्तर दिया- 'तुम अद्भुत सृष्टि करो।' और फिर प्रसन्न पिता ब्रह्मा ने उन्हें श्री गणेश का 'वक्रतुण्डाय हुम्‌' -'यह षडक्षर मंत्र दे दिया।'

महिमामयी देवी ने भगवान वेदगर्भ के चरणों में भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और फिर वे वन में जाकर श्री गणेश का ध्यान करते हुए उग्र तप करने लगीं। वे अत्यंत श्रद्धा-भक्तिपूर्वक दिव्य सहस्र वर्ष तक तप करती रहीं।

उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर देवदेव गजानन प्रकट हुए और उन्होंने कहा- 'महाभागे! मैं तुम्हारे निराहार तपश्चरण से अत्यंत प्रसन्न हूँ। तुम इच्छित वर माँगो।'

परम प्रभु की सुखद वाणी सुनकर महिमामयी माता ने हर्षगद्गद कंठ से उनका स्तवन किया। इससे अतिशय संतुष्ट हुए मूषक वाहन ने पुनः कहा- 'देवि! मैं तुम्हारे तप एवं स्तवन से अत्यंत संतुष्ट हूँ। तुम अपनी इच्छा व्यक्त करो।'

साश्रुनयना देवी ने परम प्रभु गजानन के पावनतम चरणों में प्रणाम कर निवेदन किया- 'करुणानिधे! आप मुझे अपनी सुदृढ़ भक्ति प्रदान करें। मुझे सृष्टि सर्जन की सामर्थ्य प्राप्त हो। मैं आपको सदा प्रिय रहूँ और मुझसे आपका कभी वियोग न हो।'

स्वीकृतिसूचक 'ओम्‌' का उच्चारण कर परम प्रभु ने वर प्रदान किया- 'चतुर्विध फल प्रदायिनी देवि! तुम मुझे सदा प्रिय रहोगी! तुम समस्त तिथियों की माता होओगी और तुम्हारा नाम 'चतुर्थी' होगा। तुम्हारा वामभाग 'कृष्ण' एवं दक्षिण भाग 'शुक्ल' होगा। निस्संदेह तुम मेरी जन्मतिथि होओगी। तुम्हारे में व्रत करने वाले का मैं विशेष रूप से पालन करूंगा और इस व्रत के समान अन्य कोई व्रत नहीं होगा।'

यह कहकर भगवान गजमुख अन्तर्धान हो गए। तिथियों की माता चतुर्थी गणपति का ध्यान करते हुए सृष्टि रचना करने लगीं। सहसा उनका वामभाग कृष्ण और दक्षिण भाग शुक्ल हो गया। महाभाग्यवती शुक्लवर्णा अत्यंत विस्मित हुईं। उन्होंने पुनः गणाध्यक्ष का ध्यान करते हुए सृष्टि रचना का उपक्रम किया ही था कि उनके मुखारविन्द से प्रतिपदा तिथि उत्पन्न हो गई। इसी प्रकार नासिका से द्वितीया, वक्ष से तृतीया, अंगुली से पंचमी, हृदय से षष्ठी, नेत्र से सप्तमी, बाहु से अष्टमी, उदर से नवमी, कान से दशमी, कंठ से एकादशी, पैर से द्वादशी, स्तन से त्रयोदशी, अहंकार से चतुर्दशी और मन से पूर्णिमा तथा जिह्वा से अमावस्या तिथि प्रकट हुई।

सभी तिथियों सहित दोनों चतुर्थियों ने भगवान गजमुख के ध्यान और नाम जप के साथ तपश्चरण प्रारंभ किया। इस प्रकार उनके एक वर्ष तक तप करने पर भक्तवत्सल प्रभु विघ्नेश्वर प्रकट हुए। वे मध्याह्न में शुक्ल चतुर्थी के समीप पहुँचकर बोले- 'वर माँगो।'

शुक्ल चतुर्थी ने आदिदेव गजमुख के चरणों में प्रणाम कर उनकी पूजा और स्तुति की। तदनन्तर उन्होंने कहा- 'परमप्रभु गजमुख! मैं आपका वासस्थान होऊं और आप मुझे अपनी शाश्वती भक्ति प्रदान करें।'

दयामय गजमुख ने वर प्रदान किया- 'तुम्हें मध्याह्न काल में मेरा दर्शन प्राप्त हुआ है, अतएव मध्याह्न काल में शिवादि देवगण मेरा भजन करेंगे। शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को मेरे भक्तजन सदा तुम्हारा व्रत करेंगे। जो निराहार रहकर मेरे साथ तुम्हारी उपासना करेंगे, उनका संचित कर्म भोग समाप्त हो जाएगा और उन्हें मैं सब कुछ प्रदान करूंगा। तुम्हारा नाम 'वरदा' होगा।'

इतना कहकर श्री गणेश अन्तर्धान हो गए और भगवती शुक्ल चतुर्थी का 'वरदा' नाम प्रख्यात हुआ। वे श्री गणेश को अत्यंत प्रिय हुईं। उस दिन व्रत के साथ श्री गणेश की उपासना कर पंचमी को सविधि पारण करने से निश्चय ही मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सब कुछ प्राप्त कर लेते हैं। व्रती की प्रत्येक कामना पूरी होती है और अन्त में वह अतिशय सुखदायक गणेश धाम को प्राप्त होती है।

इसके अनन्तर भगवान गणपति ने रात्रि के प्रथम प्रहर में चन्द्रमा के उदित होने पर कृष्ण चतुर्थी के समीप पहुँचकर कहा- 'महाभाग्यवती! तुम वर माँगो, मैं तुम्हारी अभिलाषा पूरी करूँगा।'

विघ्ननिघ्न प्रभु के दर्शन एवं उनके वचन से प्रसन्न होकर भगवती कृष्ण चतुर्थी ने उनके मंगलमय चरणों में प्रणाम कर उनकी विधिपूर्वक पूजा की। फिर उनका स्तवन कर निवेदन किया- 'मंगलमय लम्बोदर! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपापूर्वक मुझे अपनी सुदृढ़ भक्ति प्रदान करें। मैं आपको सदा प्रिय रहूँ और मुझसे आपका वियोग कभी न हो। आप मुझे सर्वमान्य कर दें।'

कृष्ण चतुर्थी की श्रद्धा-भक्तिपूर्ण वाणी से प्रसन्न हो महोदर ने वर प्रदान करते हुए कहा-'महातिथे! तुम मुझे सदा प्रिय रहोगी और तुमसे मेरा कभी वियोग नहीं होगा। चन्द्रोदय होने पर तुमने मुझे प्राप्त किया है, अतएव चन्द्रोदयव्यापिनी होने पर तुम मुझे अत्यधिक प्रिय होओगी। मेरे प्रसाद से तुम उस समय अन्न-जल त्यागकर उपासना करने वालों का संकट हरण करो। उस दिन व्रतोपवास करने वालों को तुम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सब कुछ प्रदान करोगी। उनकी समस्त कर्मराशि ध्वस्त हो जाएगी और वे निश्चय ही इस लोक में समस्त सुखों को भोगकर अन्त में जन्म-मृत्यु के पाश से मुक्त हो मेरे दुर्लभ धाम में जाएँगे। संकष्टहारिणी देवि! निस्संदेह मेरी कृपा से तुम सर्वदा लोगों को आनंद प्रदान करने वाली होओगी।'

'उस दिन यति मेरा व्रत निराहार रहकर करें। दूसरे लोग रात्रि में चन्द्रोदय होने पर मेरा पूजन कर ब्राह्मण की साक्षिता देकर (उन्हें भोजन कराकर) स्वयं भोजन करें। पूजन के अनन्तर उस दिन श्रावण में लड्डू और भाद्र में दधि का भोजन करना चाहिए। व्रती आश्विन में निराहार रहे। कार्तिक में दुग्धपान, मार्गशीष में जलाहार और पौष में गोमूत्र लेना चाहिए। माघ में श्वेत तिल, फाल्गुन में शर्करा, चैत्र में पंचगव्य, वैशाख में पद्मबीज (कमलगट्टा), ज्येष्ठ में गोघृत और आषाढ़ में मधु का भोजन करना चाहिए।'

महिमामयी चतुर्थी व्रत करने वालों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली है। इस व्रत के प्रभाव से धन-धान्य और आरोग्य की प्राप्ति होती है, समस्त आपदाएँ नष्ट हो जाती हैं तथा भगवान गणेश की कृपा से परमार्थ की भी सिद्धि होती है। अतएव यदि संभव हो तो प्रत्येक मास की दोनों चतुर्थी तिथियों को व्रत और उपवाससहित श्री गणेशजी का पूजन करें और यदि यह संभव न हो तो भाद्रपद कृष्ण चतुर्थी 'बहुला', कार्तिक कृष्ण चतुर्थी करका (करवा) और माघ कृष्ण चतुर्थी 'तिलका' का व्रत कर लें। रविवार या मंगलवार से युक्त चतुर्थी तिथि का अमित माहात्म्य है। इस प्रकार की एक चतुर्थी व्रत का सविधि पालन करने से वर्षभर की चतुर्थी व्रतों का फल प्राप्त हो जाता है।

कृष्णपक्ष की प्रायः सभी चतुर्थी तिथियाँ कष्ट निवारण करने वाली हैं और उनमें चन्द्रोदयव्यापिनी चतुर्थी में व्रत की पूजा का विधान किया गया है। यदि दोनों ही दिन चतुर्थी चन्द्रोदयव्यापिनी हो तो तृतीया से विद्धा पूर्वा का ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि 'मातृविद्धा गणेश्वरे- गणेश्वर के व्रत में मातृ तिथि (तृतीया) से विद्धा चतुर्थी ग्रहण की जाती है'- यह वचन मिलता है। यदि दोनों ही दिन चन्द्रोदयव्यापिनी न हो तो परा चतुर्थी लेनी चाहिए। (व्रतराज)

यदि वह दो दिन चन्द्रोदयव्यापिनी हो या न हो तो 'मातृविद्धा प्रशस्यते' के अनुसार पूर्वविद्धा लेनी चाहिए। (व्रत परिचय) अन्य विद्वानों का मत है कि 'तृतीयायुक्त चतुर्थी इस व्रत के लिए श्रेष्ठ अवश्य मानी गई है, किन्तु जब सूर्यास्त होने के पहले तृतीया में छह घड़ी चतुर्थी का प्रवेश होता हो। पहले दिन चन्द्रोदय काल में तिथि का अभाव होने पर दूसरे दिन ही व्रत करना चाहिए।'

इस विषय में धर्मशास्त्रीय निर्णय इस प्रकार है- 'संकष्ट चतुर्थी चन्द्रोदयव्यापिनी ग्राह्य है। यदि दो दिन चतुर्थी हो और दूसरे दिन की ही चतुर्थी चन्द्रोदयव्यापिनी हो तो दूसरे दिन ही व्रत करना चाहिए। यदि दोनों दिन चन्द्रोदयव्यापिनी तिथि हो तो पहले दिन की तृतीयायुक्त चतुर्थी को ही व्रत के लिए ग्रहण करना चाहिए। यदि दोनों ही दिनों की चतुर्थी चन्द्रोदयव्यापिनी न हो तो दूसरे दिन ही व्रत का पालन करना चाहिए।' (गणेश कोश)

साल भर के चतुर्थी व्रतों की संक्षिप्त विधि और उनका माहात्म्

चैत्र मास- चैत्र मास की चतुर्थी को वासुदेवस्वरूप गणेश की विधिपूर्वक पूजा कर ब्राह्मण को सुवर्ण की दक्षिणा देने पर मनुष्य संपूर्ण देवताओं से वंदित हो क्षीराब्धिशायी श्री विष्णु के सुखद लोक में जाता है।

वैशाख मास- वैशाख मास की चतुर्थी को संकर्षण गणेश की पूजा कर ब्राह्मणों को शंख का दान करना चाहिए। इसके प्रभाव से मनुष्य संकर्षण लोक में कल्पों तक सुख प्राप्त करता है।

ज्येष्ठ मास- ज्येष्ठ मास की चतुर्थी को प्रद्मरूपी गणेश की पूजा कर ब्राह्मणों को फल-मूल का दान करने से व्रती स्वर्गलोक प्राप्त कर लेता है।

ज्येष्ठ चतुर्थी को 'सतीव्रत' नामक एक दूसरा श्रेष्ठ व्रत होता है। इस व्रत का विधिपूर्वक पालन करने से स्त्री गजमुख जननी शिवा के लोक में जाकर उन्हीं के समान आनंद प्राप्त करती है।

आषाढ़ मास- आषाढ़ मास की चतुर्थी को अनिरुद्धस्वरूप गणेश की प्रीतिपूर्वक पूजा करके संन्यासियों को तूंबी का पात्र दान करना चाहिए। इस व्रत को करने वाला मनुष्य मनोवांछित फल प्राप्त करता है।

रथन्तर कल्प का प्रथम दिन होने से आषाढ़ की चतुर्थी को एक दूसरा उत्तम व्रत होता है। उस दिन मनुष्य श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मंगलमूर्ति गणेश की सविधि पूजा कर वह फल प्राप्त कर लेता है, जो देव समुदाय के लिए भी दुर्लभ है।

श्रावण मास- श्रावण मास की चतुर्थी को चन्द्रोदय होने पर मंगलमय श्री गणेशजी के स्वरूप का ध्यान करते हुए उन्हें अर्घ्य प्रदान करें। फिर आवाहन आदि संपूर्ण उपचारों से उनकी भक्तिपूर्वक पूजा कर लड्डू का नैवेद्य अर्पित करना चाहिए। व्रत पूरा होने पर व्रती स्वयं भी प्रसादस्वरूप लड्डू खाए और फिर रात्रि में गणेशजी का पूजन कर पृथ्वी पर ही शयन करे। इस व्रत को करने वाले मनुष्य की संपूर्ण कामनाएँ पूरी होती हैं और अन्त में उसे गणेशजी का पद प्राप्त हो जाता है। त्रैलोक्य में इसके समान अन्य कोई व्रत नहीं है।

श्रावण शुक्ल चतुर्थी को 'दूर्वागपति' (सौरपुराण) का व्रत बताया गया है। उस दिन प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर सिंहासनस्थ चतुर्भुज, एकदन्त गजमुख की स्वर्णमयी मूर्ति का निर्माण कराएँ और सोने की दूर्वा बनवाएँ। तदनन्तर सर्वतोभद्र मण्डल पर कलश स्थापन करके उसमें सोने की दूर्वा लगाकर उस पर गणेशजी की प्रतिमा को स्थापित करना चाहिए। मंगलमूर्ति गणेशजी को अरुण वस्त्र से विभूषित कर सुगंधित पत्र-पुष्पादि से उनकी भक्तिपूर्वक पूजा करें। आरती, स्तवन, प्रणाम और परिक्रमा कर अपराधों के लिए क्षमा-याचना करें। इस प्रकार तीन या पाँच वर्ष तक व्रत पालन से समस्त कामनाएँ पूरी होती हैं।

भाद्रपद चतुर्थी- भाद्रपद कृष्ण चतुर्थी को बहुलासहित गणेश की गंध, पुष्प, माला और दूर्वा आदि के द्वारा यत्नपूर्वक पूजा कर परिक्रमा करनी चाहिए। सामर्थ्य के अनुसार दान करें। दान करने की स्थिति न हो तो बहुला गो को प्रणाम कर उसका विसर्जन कर दें। इस प्रकार पाँच, दस या सोलह वर्षों तक इस व्रत का पालन करके उद्यापन करें। उस समय दूध देने वाली स्वस्थ गाय का दान करना चाहिए। इस व्रत को करने वाले स्त्री-पुरुषों को सुखद भोगों की उपलब्धि होती है। देवता उनका सम्मान करते हैं और अन्त में गोलोकधाम की प्राप्ति करते हैं।

भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को सिद्धि विनायक व्रत का पालन करना चाहिए। इस दिन गणेशजी का मध्याह्न में प्राकट्य हुआ था, अतः इसमें मध्याह्नव्यापिनी तिथि ही ली जाती है।

सर्वप्रथम एकाग्र चित्त से सर्वानन्दप्रदाता सिद्धिविनायक का ध्यान करें। फिर श्रद्धा और भक्तिपूर्वक उनके इक्कीस नाम लेकर इक्कीस पत्ते समर्पित करें। उनके प्रत्येक नाम के साथ 'नमः'जुड़ा हो। वे इक्कीस नाम और पत्ते इस प्रकार हैं-

'सुमुखाय नमः' कहकर शमीपत्र अर्पित करें। 'गणाधीशाय नमः' कहकर भंगरैया का पत्ता, 'उमापुत्राय नमः' कहकर बिल्वपत्र, 'गजमुखाय नमः' कहकर दूर्वादल, 'लम्बोदराय नमः' कहकर बेर का पत्ता, 'हरसूनवे नमः' कहकर धतूरे का पत्ता, 'शूर्पकर्णाय नमः' कहकर तुलसीदल, 'वक्रतुण्डाय नमः' कहकर सेम का पत्ता, 'गुहाग्रजाय नमः' कहकर अपामार्ग का पत्ता, 'एकदन्ताय नमः' कहकर वनभंटा या भटकटैया का पत्ता, 'हेरम्बाय नमः' कहकर सिंदूर (सिंदूरचूर्ण या सिंदूर वृक्ष का पत्ता), 'चतुर्होत्रे नमः' कहकर तेजपात, 'सर्वेश्वराय नमः' कहकर अगस्त्य का पत्ता, 'विकटाय नमः' कहकर कनेर का पत्ता, 'हेमतुंडाय नमः' कहकर अश्मातपत्र या कदलीपत्र 'विनायकाय नमः' कहकर आक का पत्ता, 'कपिलाय नमः' कहकर अर्जुन का पत्ता, 'वटवे नमः' कहकर देवदारु का पत्ता, 'भालचन्द्राय नमः' कहकर मरुआ का पत्ता, 'सुराग्रजाय नमः' कहकर गान्धारी पत्र और 'सिद्धिविनायकाय नमः' कहकर केतकी पत्र प्रीतिपूर्वक समर्पित करें।

इससे गणेशजी अत्यंत प्रसन्न होते हैं। इसके अनन्तर दो दूर्वादल लेकर गन्ध, पुष्प और अक्षत के साथ गणेशजी पर चढ़ाना चाहिए। फिर नैवेद्य के रूप में पाँच लड्डू उन दयासिन्धु प्रभु गजमुख को अत्यंत प्रेमपूर्वक अर्पण करें। तदनन्तर आचमन कराकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उनके चरणों में बार-बार प्रणाम और प्रार्थना करते हुए विसर्जन करना चाहिए। समस्त सामग्रियों सहित गणेशजी की स्वर्णमयी प्रतिमा आचार्य को अर्पित करके ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिए। इस प्रकार पाँच वर्ष तक व्रत एवं गणेश पूजन करने वालों को लौकिक एवं पारलौकिक समस्त सुख प्राप्त होते हैं। इस तिथि की रात्रि में चन्द्रदर्शन का निषेध है। चन्द्रदर्शन करने वाले मिथ्या कलंक के भागी होते हैं।

आश्विन चतुर्थी- आश्विन शुक्ल चतुर्थी को 'पुरुषसूक्त' द्वारा षोडशोपचार से कपर्दीश विनायक की भक्तिपूर्वक पूजा का माहात्म्य है।

कार्तिक चतुर्थी- कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को 'करकचतुर्थी' (करवा चौथ) का व्रत कहा जाता है। यह व्रत स्त्रियाँ विशेष रूप से करती हैं। इस दिन व्रती के लिए प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर वस्त्राभूषणों से विभूषित हो गणेशजी की भक्तिपूर्वक पूजा करने का विधान है। पवित्र चित्त से अत्यंत श्रद्धापूर्वक पकवान से भरे हुए दस करवे परमप्रभु गजानन के सम्मुख रखें। समर्पण करते हुए मन ही मन प्रार्थना करें कि 'करुणासिन्धु कपर्दिगणेश! आप मुझ पर प्रसन्न हों।' तदनन्तर सुवासिनी स्त्रियों और ब्राह्मणों को इच्छानुसार आदरपूर्वक उन कारवों को बाँट दें।

समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाले भगवान गणेश का स्मरण-चिंतन एवं नाममंत्र का जप करते रहना चाहिए। रात्रि में चन्द्रोदय होने पर चन्द्रमा को विधिपूर्वक अर्घ्य प्रदान करें। व्रत पूर्ति के लिए स्वयं मिष्ठान भोजन करना चाहिए।

इस व्रत को बारह या सोलह वर्षों तक करना चाहिए। तदनन्तर इसका उद्यापन करें। इसके बाद स्त्री चाहे तो इसे छोड़ सकती है, अन्यथा सुख-सौभाग्य के लिए स्त्री इसे जीवनपर्यंत कर सकती है। स्त्रियों के लिए इसके समान सौभाग्य प्रदान करने वाला अन्य व्रत नहीं है।

मार्गशीर्ष चतुर्थी- मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी की 'कृच्छ्र चतुर्थी' संज्ञा है। (स्कन्द पु.) इससे लेकर एक वर्ष तक प्रत्येक चतुर्थी का व्रत रखकर देवदेव गजमुख का प्रीतिपूर्वक पूजन करें। उस दिन एकभुक्त (दिन में एक समय भोजन) करें और दूसरे वर्ष प्रत्येक चतुर्थी को केवल रात्रि में एक बार भोजन करें। तीसरे वर्ष प्रत्येक चतुर्थी को अयाचित (बिना माँगे मिला हुआ) अन्न एक बार खाकर रहें और फिर चौथे वर्ष में प्रत्येक चतुर्थी को सर्वथा निराहार रहकर गणेशजी का स्मरण, चिंतन, भजन एवं अत्यंत प्रीतिपूर्वक पूजन करना चाहिए।

इस प्रकार विधिपूर्वक व्रत करते हुए चार वर्ष पूर्ण होने पर अन्त में व्रत स्नान करें। उस समय व्रत करने वाला मनुष्य गणेशजी की सुवर्ण की प्रतिमा बनवाए। यदि सुवर्ण मूर्ति बनवाने की क्षमता न हो तो वर्णक (हल्दी चूर्ण) से ही गणपति की प्रतिमा बना लें।

फिर विविध रंगों से भूमि पर पद्मपत्र बनाकर उस पर कलश स्थापित करें। कलश के ऊपर चावल से भरा तांबे का पात्र रखें। उक्त चावलों से भरे पात्र पर दो वस्त्र रखकर उस पर गणेशजी को विराजमान करें। इसके बाद गन्धादि उपचारों से श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उन दयामय देव की पूजा करनी चाहिए। फिर मोदक प्रिय मंगलविग्रह गणेशजी को संतुष्ट करने के लिए उन्हें नैवेद्य के रूप में लड्डू समर्पित करें। प्रणाम, परिक्रमा एवं प्रार्थना के अनन्तर संपूर्ण रात्रि गीत, वाद्य, पुराण कथा एवं गणेशजी के स्तवन और नाम-जप के साथ जागरण करने का विधान है।

अरुणोदय होने पर स्नानादि दैनिक कृत्य से निवृत्त हो शुद्ध वस्त्र धारण कर श्रद्धापूर्वक तिल, चावल, जौ, पीली सरसों, घी और खांड से मिली हवन सामग्री का विधिपूर्वक होम करें। गण, गणाधिप, कूष्माण्ड, त्रिपुरान्तक, लम्बोदर, एकदन्त, रुक्मदंष्ट्र, विघ्नप, ब्रह्मा, यम, वरुण, सोम, सूर्य, हुताशन, गन्धमादी तथा परमेष्ठी इन सोलह नामों द्वारा प्रत्येक के आदि में प्रणव और अन्त में चतुर्थी विभक्ति और उसमें 'नमः' पद लगाकर अग्नि में एक-एक आहुति दें।

इसके बाद 'वक्रतुण्डाय हुम्‌' इस मंत्र से एक सौ आठ आहुतियाँ दें। तदनन्तर व्याहृतियों द्वारा यथाशक्ति होम करके पूर्णाहुति देनी चाहिए। फिर दिक्पालों की पूजा करके चौबीस ब्राह्मणों को अत्यंत आदरपूर्वक लड्डू और खीर भोजन करावें। आचार्य को दक्षिणा के साथ सवत्सा गो का दान कर दूसरे ब्राह्मणों को अपनी शक्ति के अनुसार भूयसी दक्षिणा दें। इसके बाद उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों के चरणों में श्रद्धापूर्वक प्रणाम कर उनकी परिक्रमा करें। तदुपरान्त उन्हें आदरपूर्वक विदा करना चाहिए। फिर स्वजन बंधुओं के साथ स्वयं प्रसन्नतापूर्वक भोजन करें।

इस महिमामय व्रत का पालन करने वाले मनुष्य दयासिन्धु गणेशजी के प्रसाद से इस लोक में उत्तम भोग भोगते और परलोक में भगवान विष्णु के सायुज्य के अधिकारी होते हैं।

पौष चतुर्थी- पौष मास की चतुर्थी को भक्तिपूर्वक विघ्नेश्वर गणेश की पूजा और प्रार्थना कर एक ब्राह्मण को लड्डू का भोजन कराकर दक्षिणा देनी चाहिए। इस व्रत को विधिपूर्वक करने वाले पुरुष के यहाँ धन-सम्पत्ति का अभाव नहीं होता।

माघ चतुर्थी- माघ कृष्ण चतुर्थी को 'संकटव्रत' कहा गया है। उस दिन प्रातःकाल स्नान के अनन्तर देवदेव गजमुख की प्रसन्नता के लिए व्रतोपवास का संकल्प करके दिनभर संयमित रहकर श्री गणेश का स्मरण, चिंतन एवं भजन करते रहना चाहिए। चन्द्रोदय होने पर मिट्टी की गणेश मूर्ति बनाकर उसे पीढ़े पर स्थापित करें। गणेशजी के साथ उनके आयुध और वाहन भी होने चाहिए। पहले उक्त मृन्मयी मूर्ति में गणेशजी की स्थापना करें, तदनन्तर षोडशोपचार से उनका भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिए। फिर मोदक तथा गुड़ में बने हुए तिल के लड्डू का नैवेद्य अर्पित करें। आचमन कराकर प्रदक्षिणा और नमस्कार करके पुष्पाँजलि अर्पित करनी चाहिए।

अर्घ्य प्रदा
तदनन्तर शान्तचित्त से भक्तिपूर्वक गणेश मंत्र का इक्कीस बार जप करें और फिर भगवान गणेश को अर्घ्य प्रदान करें। अर्घ्य प्रदान करने का मंत्र इस प्रकार है-

गणेशाय नमस्तुभ्यं सर्वसिद्धिप्रदायक।
संकष्टहर मे देव गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते॥
कृष्णपक्षे चतुर्थ्याँ तु सम्पूजित विधूदये।
क्षिप्रं प्रसीद देवेश गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते

'समस्त सिद्धियों के दाता गणेश! आपको नमस्कार है। संकटों को हरण करने वाले देव! आप अर्घ्य ग्रहण कीजिए, आपको नमस्कार है। कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को चन्द्रोदय होने पर पूजित देवेश! आप अर्घ्य ग्रहण कीजिए, आपको नमस्कार है।'

इन दोनों श्लोकों के साथ 'संकष्टहरणगणपये नमः' (संकष्टहरणगणपति के लिए नमस्कार है) दो बार बोलकर दो अर्घ्य देने चाहिए।

इसके अनन्तर निम्नांकित मंत्र से चतुर्थी तिथि की अधिष्ठात्री देवी को अर्घ्य प्रदान करें-

तिथीनामुत्तमे देवि गणेशप्रियवल्लभे।
सर्वसंकटनाशाय गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते॥
'चतुर्थ्यै नमः' इदमर्घ्यं समर्पयामि।

'तिथियों में उत्तम गणेशजी की प्यारी देवि! आपके लिए नमस्कार है। आप मेरे समस्त संकटों को नष्ट करने के लिए अर्घ्य ग्रहण करें। चतुर्थी तिथि की अधिष्ठात्री देवी के लिए नमस्कार है। मैं उन्हें यह अर्घ्य प्रदान करता हूँ।' (व्रतराज)

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तत्पश्चात्‌ चन्द्रमा का गन्ध-पुष्पादि से विधिवत्‌ पूजन करके तांबे के पात्र में लाल चन्दन, कुश, दूर्वा, फूल, अक्षत, शमीपत्र, दधि और जल एकत्र करके निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करते हुए उन्हें अर्घ्य दें-

गगनार्णवमाणिक्य चन्द्र दाक्षायणीपते।
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं गणेशप्रतिरूपक॥
(नारद पु. पूर्व. 113 । 77)

'गगन रूपी समुद्र के माणिक्य, दक्ष कन्या रोहिणी के प्रियतम और गणेश के प्रतिरूप चन्द्रमा! आप मेरा दिया हुआ यह अर्घ्य स्वीकार कीजिए।

फिर भगवान गणेश के चरणों में प्रणाम कर यथाशक्ति उत्तम ब्राह्मणों को प्रेमपूर्वक भोजन और दक्षिणा से संतुष्ट कर उनकी अनुमति से स्वयं प्रसन्नतापूर्वक भोजन करें।

इस परम कल्याणकारी 'संकष्टव्रत' के प्रभाव से व्रती धन-धान्य से सम्पन्न हो जाता है और उसके सम्मुख कभी कष्ट उपस्थित नहीं होता।

इस व्रत को 'वक्रतुण्ड चतुर्थी' (भविष्योत्तर) भी कहते हैं। इस व्रत को माघ मास से आरंभ करके हर महीने में करें तो संकट का नाश हो जाता है।

माघ मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को उपवास करके श्रद्धा-भक्तिपूर्वक गणेशजी की पूजा करें और पंचमी को तिल का भोजन करें। इस प्रकार व्रत करने पर मनुष्य निर्विघ्न सुखी जीवन व्यतीत करता है। 'गं स्वाहा'- यह मूलमंत्र है। 'गां नमः' आदि से हृदयादि न्यास करें।

'आगच्छोल्काय' कहकर गणेश का आवाहन और 'गच्छोल्काय' कहकर विसर्जन करें। इस प्रकार आदि में गकारयुक्त और अन्त में 'उल्का' शब्दयुक्त मंत्र से उनके आवाहनादि कार्य करें। गन्धादि उपचारों से सविधि गणपति का पूजन कर उन्हें नैवेद्य रूप में लड्डू अर्पण करें, फिर आचमन, प्रणाम और परिक्रमा आदि के अनन्तर इस गणेश-गायत्री का जप करें-

ॐ महोल्काय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि।
तन्नो दन्ती प्रचोदयात्‌॥ (अग्निपुराण)

इस व्रत की बड़ी महिमा है। इसी तिथि को 'गौरी व्रत' भी किया जाता है। उस दिन योगिनी गणों सहित गौरी की पूजा करनी चाहिए। मनुष्यों, विशेषतः स्त्रियों को कुन्द, पुष्प, कुंकुम, लाल सूत्र, लाल फूल, महावर, धूप, दीप, गुड़, अदरख, दूध, खीर, नमक और पालक आदि से भगवती गौरी का प्रीतिपूर्वक पूजन करना चाहिए। अपने सुख-सौभाग्य की वृद्धि के लिए सौभाग्यवती स्त्रियों एवं उत्तम ब्राह्मणों की पूजा का भी विधान है। तदनन्तर प्रसन्न मन बन्धु-बान्धवों सहित स्वयं भी भोजन करना चाहिए। इस 'गौरीव्रत' के प्रभाव से सौभाग्य एवं आरोग्य की वृद्धि होती है। कुछ लोग इसे 'ढुण्ढि व्रत', 'कुण्ड व्रत', 'ललिता व्रत और 'शान्ति व्रत' भी कहते हैं।

इस पुण्यमय तिथि के स्नान, दान, जप और होम आदि शुभ कार्य आदिदेव गजवंदन की कृपा से सहस्रगुने फलदायी हो जाते हैं।

फाल्गुन चतुर्थी- फाल्गुन मास की चतुर्थी को मंगलमय 'ढुण्ढिराज व्रत' बताया गया है। उस दिन व्रतोपवास के साथ गणेशजी की सोने की मूर्ति बनवाकर उसकी श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पूजा करें। तदनन्तर वह मूर्ति ब्राह्मणों को दान कर दें। गणेशजी को प्रसन्न करने के लिए उस दिन तिलों से ही दान, होम, पूजन आदि करें। उस दिन तिल के पीठे से ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रती स्वयं भी भोजन करे। इस व्रत के प्रभाव से समस्त सम्पदाओं की वृद्धि होती है और मनुष्य गणेशजी की कृपा से ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है।

'मत्स्यपुराण' के अनुसार फाल्गुन शुक्ल चतुर्थी को 'मनोरथ चतुर्थी' कहते हैं। आराधना की विधि यही है। पूजनोपरान्त नक्तव्रत का विधान है। इस प्रकार बारहों महीने की प्रत्येक शुक्ल चतुर्थी को व्रत करते हुए वर्षभर के बाद उस स्वर्णमूर्ति का दान करने से मनोरथ सिद्ध होते हैं। अग्निपुराण में इसको 'अविघ्ना चतुर्थी' की संज्ञा दी गई है।

जिस किसी मास में भी चतुर्थी तिथि रविवार या मंगलवार से युक्त हो, वह विशेष फलदायिनी होती है, उसे 'अंगारक चतुर्थी' कहते हैं। उस दिन गणेशजी का पूजन करके मनुष्य संपूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्त कर लेता है।

अमित महिमामयी चतुर्थी व्रत में पूजा के अन्त में चतुर्थी व्रतकथा श्रवण की बड़ी महिमा गाई गई है। पौराणिक कथाओं के अतिरिक्त प्रत्येक प्रान्त में परम्परागत कुछ लोक कथाएँ भी कही-सुनी जाती हैं। वे सभी भगवान गणेश की प्रीति प्रदान करने वाली हैं।

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