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चूँकि गणेश पहले पौराणिक पत्रकार थे!

वक्र तुंड गणेश महिमा

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- मधुसूदन आनंद
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पता नहीं क्यों, गणेशजी की मूर्तियाँ और तस्वीरें मुझे बहुत पसंद हैं। दूध पीती नहीं। गणेश बुद्धि के देवता हैं और मेरा बुद्धि से उतना ही नाता है जितना घोड़े का घास से होता है। अखबारों में, पत्रिकाओं में, किताबों में, फिल्मों में, कलाओं में, संगीत में और साहित्य में मुझे दूसरों की उगाई या अर्जित की गई बुद्धि सहज ही प्राप्त हो जाती है। यही मेरी प्यारी पूँजी है जिसे रोज कमाता हूँ और रोज खर्च कर डालता हूँ। इसमें मेरा अपना कुछ नहीं होता इसलिए गणेशजी की तरह मेरी नाक टेढ़ी नहीं है। वक्र तुंड! जी नहीं।

मेरी नाक भी आप सब आम आदमियों की तरह सीधी है। टेढ़ी नाक तो गणेशजी जैसे ज्ञानी की ही हो सकती है हालाँकि वे इतने विनम्र भी हैं कि वेद व्यास के स्टेनोग्राफर बनने में भी उन्होंने ना-नुकुर नहीं की। बस शर्त यह रख दी कि व्यासजी धाराप्रवाह बोलते हुए यदि एक क्षण भी रुके तो वे डिक्टेशन लेना बंद कर देंगे। कई पुराने पत्रकार तो शार्ट हैंड के बल पर ही आजाद भारत में अपना जीवन बिता गए। गणेशजी को मैंने अब जाकर पहचाना है कि वे तो पहले पौराणिक पत्रकार थे। 'महाभारत' संसार की उत्कृष्टतम रचना है जिसकी कथाएँ आज भी बौद्धिक उत्तेजना पैदा करती हैं। जरा सोचिए कि गणेशजी न होते तो 'महाभारत' कैसे लिखी जाती। वह वेद व्यास के मन-मस्तिष्क में लिखी रह जाती या फिर उसका कुछ हिस्सा संजय के नेत्रों और धृतराष्ट्र के कानों तक ही सीमित रह जाता।

गणेशजी की मूर्ति मुझे कुछ अन्य कारणों से भी पसंद है। वैसे तो हमारे अनेक देवता पशु, पक्षियों को अपना वाहन बनाकर उन्हें प्रतिष्ठित करते रहे हैं लेकिन गणेशजी शायद नृसिंह अवतार को छोड़कर अकेले देवता हैं जिनका शरीर आदमी और जानवर से मिलकर बना है। सिर हाथी का और धड़ मनुष्य का। हमारे वैदिक दर्शन में कानों को नेत्रों से भी ज्यादा महत्व दिया गया है। हाथी के कानों से बड़े किसी जीव के कान नहीं होते। हाथी 2 से लेकर 5 किलोमीटर तक की दूरी से आने वाली ध्वनि तरंगों को पकड़ लेता है और फिर दूसरे हाथियों को सूचना भेज सकता है। मैं बार-बार सोचता था कि गणेशजी का सिर हाथी का क्यों है? इस रहस्य का पर्दा तब उठा, जब मैंने हाथियों के बारे में पढ़ा।

गणेशजी का वाहन चूहा है। आपको याद होगा कि जब शिवजी ने उनसे और उनके भाई-बंधुओं से सारे संसार की जल्दी से जल्दी परिक्रमा करके आने को कहा तो गणेशजी अपने वाहन पर बैठकर शिव-पार्वती की ही परिक्रमा करके सबसे पहले उपस्थित हो गए। सो पुरस्कार और प्रशंसा उन्हें ही मिली। उन्होंने कहा कि माता-पिता से बड़ा संसार और क्या हो सकता है। यह गणेशजी के ही वश की बात है कि हाथी का विशाल सिर लिए वे चूहे पर विराजते हैं। सदियों से हमारे समाज की कहावतों में हाथी से बड़ा और चूहे से छोटा कोई जानवर नहीं रहा। गणेशजी ने कैसा सुंदर संतुलन बनाया हुआ है। गणेश जी और उनके परिवार के इर्द-गिर्द चूहों का मंडराना नितांत तार्किक है। मुझे ताज्जुब होता है कि स्वामी दयानंद इतनी-सी बात क्यों नहीं समझे।

शिवजी के यहाँ पुत्र गणेश का स्वागत है, दुलार है तो चूहे का पुचकार क्यों नहीं होगा, जिस पर उनका पुत्र बैठकर आता-जाता है। स्वामी दयानंद ने शिवरात्रि पर मंदिर में शिव लिंग पर एक चूहे को क्या देखा, उन्होंने नतीजा लगा लिया कि जो ईश्वर एक चूहे तक को अपने पास से नहीं हटा सकता, वह ईश्वर कैसे होगा। वे निराकार मार्ग की तरफ बढ़ गए लेकिन देखिए कमाल, इस घटना ने ही मूलशंकर को जग प्रसिद्ध स्वामी दयानंद बना दिया। आप समझ गए होंगे कि उस जमाने में गणेशजी के हाथ कितनी तेजी से लिखते होंगे। वे हम पत्रकारों की तरह मोदक-मिठाई के भी शौकीन रहे हैं। प्रेस कॉन्फ्रेंस में हमारा एक हाथ कलम चला रहा होता है और दूसरा माल को मुख में रख रहा होता है। हमारे यहाँ एक हाथ को दूसरे का पता भले ही न रहता हो हम पत्रकारों के साथ ऐसी समस्या नहीं है।

आज-कल लोगों को पतला होने की बीमारी लग गई है। कन्याएँ तो चाहती हैं कि वे तार-सी पतली हों और हैंगरों पर कपड़ों की तरह टँगी दिखाई दें हालाँकि पारंपरिक भारतीय सौंदर्य में माँसलता और लावण्य का विशेष आकर्षण रहा है। हमारे यहाँ मोटापा बीमारी का नहीं, समृद्धि का प्रतीक है। गणेशजी की तोंद हम भारतीयों में अजब आत्मीयता जगाती है। वह प्रेरणा देती है और गणेशजी हमारे मनों में समृद्धि और शुभ का संचार करते हैं।

कुर्सी पर बैठकर न केवल विचार बल्कि समाचार तक लिखने वाले हम जैसे तोंदू पत्रकारों को गणेशजी की तोंद देखकर संतोष करना चाहिए और बैठे-बैठे ही समाचार-विस्फोट की कामना करनी चाहिए। यह देश लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का ऋणी है जिन्होंने सबसे पहले कहा, 'स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है।' लेकिन उनका एक और भी महत्वपूर्ण योगदान है, उन्होंने गणपति पूजा के जरिए एक तरह का सांस्कृतिक जागरण भी किया। गणेश महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात आदि में घर-घर में पहुँच गए, आज उसका हाल देखकर भले ही तिलक निराश होते। मगर सवाल है कि क्यों तिलक ने गणेशजी को ही चुना?

मुझे 'वक्र तुंड' नाम ठीक लगता है क्योंकि एक पत्रकार के लिए टेढ़ी नाक सर्वाधिक जिज्ञासा की चीज है। वैसे आज के दौर में सीधी नाक वालों के अंदर भी टेढ़ी नाक उपस्थित रहती है लेकिन टेढ़ी नाकें आजकल कुछ ज्यादा ही बढ़ रही हैं। टेढ़ी नाकें अपने पर मक्खी तक नहीं बैठने देतीं।

वे ऐश्वर्य और अहंकार और अज्ञान सिनकती हैं। उनमें से कई में कुछ बात भी होती है जो इशारा करती है कि इस टेढ़ेपन में सचमुच कुछ है जो असाधारण और आत्मीय है और जिस पर गर्व किया जा सकता है। ये नाकें हैं, कोई फलों से लदे पेड़ नहीं, जो झुके रहें और उन पर आप पत्थर मारो तो वे बदले में फल दें।

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