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...लेकिन प्रधानमंत्री कहां हैं?

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उमेश चतुर्वेदी

, शनिवार, 29 मार्च 2014 (15:20 IST)
चुनावी बयार अपने चरम पर है...राजनीतिक घात-प्रतिघात, शह-मात का खेल पूरे शबाब पर है...। लेकिन इसके बीच एक कमी खल रही है...वह कमी है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की। बेशक, इस चुनाव में कांग्रेस की प्रत्यक्ष अगुआई राहुल गांधी और परोक्ष अगुआई सोनिया गांधी कर रही हैं।

लेकिन हम यह कैसे भूल सकते हैं कि इस देश ने पिछले 10 साल में जो भी अच्छा या बुरा किया, उसकी राजनीतिक अगुआई प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ही की है। अगर इस देश में महंगाई बढ़ी है तो उसके लिए जितनी जिम्मेदार कांग्रेस है, उससे कहीं ज्यादा जिम्मेदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुआई में 10 साल तक चली सरकार है।

अगर चुनावी फिजा में कांग्रेसी उम्मीदवार बीजेपी की तमाम गलतियों के बावजूद खड़े रहने के लिए कठिनाई महसूस कर रहे हैं या चुनावी मैदान से बचने की फिराक में रहे हैं तो उसकी बड़ी वजह मनमोहन सिंह की नीतियां ही रही हैं जिन्हें उन्होंने वक्त की जरूरत के नाम पर लागू किया।

2009 के आम चुनावों में यह प्रधानमंत्री ही थे कि उन्होंने सरकार बनाने के महज 100 दिनों में महंगाई कम करने का वादा किया था, लेकिन महंगाई कम नहीं हुई और उसका ठीकरा अंतरराष्ट्रीय मंदी पर थोप दिया गया।

यह मनमोहन सिंह की अगुआई में ही हुआ कि देश में बेरोजगारी बढ़ी, श्रम कानूनों के उल्लंघन वाली नीतियां लगातार आगे बढ़ती रहीं... देश की पारंपरिक कृषि-संस्कृति पर हमला होता रहा, गांव और गरीब की जिंदगी लगातार मुश्किल होती रही।

उदारीकरण के जरिए कॉर्पोरेट के विस्तार की जो नींव मनमोहन सिंह ने बतौर वित्तमंत्री रहते रखी, अपनी अगुआई वाली सरकार बनाने के बाद उसे उन्होंने लगातार विस्तार दिया। बेशक, इसी दौर में उन्होंने शिक्षा और भोजन का अधिकार देने का फैसला भी किया।

लेकिन दुनिया जानती है कि यह मनमोहन के पिटारे से निकली सौगात नहीं थी, बल्कि इसकी नींव सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने रखी और उसे मनमोहन सिंह ने एक आज्ञाकारी बालक की भांति लागू-भर किया है।

देश में अब एक और सवाल पूछा जा रहा है कि लोगों को इतना समर्थ क्यों न बनाया जाए कि वे अपने भोजन, अपनी शिक्षा और अपने स्वास्थ्य का खुद के दम पर बेहतर खयाल रख सकें। सब कुछ के लिए राज्य पर ही निर्भर क्यों रहा जाए, लेकिन कॉर्पोरेट समर्थक नीतियों में ऐसा संभव ही नहीं है।

अगर ऐसा होता तो आज देश की ज्यादातर संपत्ति पर कुछ सौ कॉर्पोरेट घरानों और उद्योगपतियों का कब्जा कैसे होता? 1948 में जमींदारी उन्मूलन लागू करने के पीछे समानता का सिद्धांत था। भूमि को गरीबों और जरूरतमंदों में बांटने का सवाल था। जमींदार तो खत्म हो गए, लेकिन अब उनकी नई नस्ल कॉर्पोरेट हो गए हैं।

उन्होंने भी शोषण और कानूनों के उल्लंघन की नई-नई राहें अख्तियार कर ली हैं। जहां जरूरत महसूस होती है, वहां वे सरकारी सहयोग भी हासिल कर लेते हैं। आम जनता पिसती है तो पिसती ही रहे। इतना कुछ होने के बावजूद इस देश की करीब 66 फीसदी जनता की जिंदगी सीधे खेती-किसानी से चलती है।

देश की जीडीपी में आज खेती की हिस्सेदारी महज 15 फीसदी है जबकि देश में 49 फीसद रोजगार यह खेती-किसानी ही मुहैया कराती है यानी सबसे कम कमाई वाले क्षेत्र पर सबसे ज्यादा लोगों का रोजगार टिका हुआ है। फिर उनके लिए बुनियादी सहूलियतें भी नहीं हैं और मनमोहन सरकार के 10 साल के कार्यकाल में इसमें बुनियादी बदलाव की उम्मीदें भी खत्म हो गईं।

ऐसे माहौल में प्रधानमंत्री पूरी तरह चुनावी माहौल से गायब हैं। यह तय है कि 16 मई 2014 को चुनाव नतीजे आने के बाद जब तक देश को अगला प्रधानमंत्री नहीं मिल जाता, तब तक ही इस देश के वे ही कर्णधार हैं।

आखिरी बार वे किसी सार्वजनिक सियासी कार्यक्रम में कांग्रेस का घोषणा पत्र जारी करते वक्त सामने आए थे। प्रधानमंत्री के आधिकारिक निवास से उनकी बेडिंग बंध रही और सामान पैक हो रहा है, लेकिन लोकतंत्र का तकाजा यह है कि उन्हें जनता के सामने आना चाहिए।

अच्छा किया तो उसका श्रेय लेना चाहिए... गलत किया तो उसकी सजा तो जनता उन्हें तो नहीं, उनकी पार्टी को जरूर देगी। उन्हें इसलिए नहीं कि वे खुद को ही मैदान से दूर कर लिए हैं... वैसे अगर वे खुद दूर नहीं होते तो राहुल की अगुआई वाली पार्टी ही उन्हें दूर कर देती।

फिर भी उन्हें सामने आना ही चाहिए था, देश की जनता का सामना भी करना चाहिए था, लेकिन वे पूरे चुनावी परिदृश्य से ही गायब हैं।

* लेखक टेलीविजन पत्रकार और स्तंभकार हैं।

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