उमा भारती मोदी के बारे में जो कहती हैं, उसमें से आधा ठीक है और आधा ग़लत। उमा कहती हैं कि मोदी अच्छे वक्ता नहीं हैं, सो एकदम सच बात है। वो कहती हैं कि उनमें भीड़ जुटाने की अद्भुत क्षमता है, ये ग़लत बात है। भीड़ जुटाने की क्षमता मोदी में नहीं संघ और भाजपा संगठन में है।
सीधा सा तर्क है कि कोई अगर अच्छा भाषण नहीं देता, तो लोग उसे सुनने क्यों आएंगे? उन्हें तो लाया जाएगा या आने पर मजबूर किया जाएगा। मोदी की सभा में भीड़ का एक राज़ और भी है। मोदी की सभाएं दो शहरों के ऐसे मिलन स्थल पर होती हैं, जहां पर दोनों शहरों के संगठन भीड़ ला सके। मिसाल के तौर पर कल हुई सभा नोएडा और गाजियाबाद की सीमा पर हुई थी।
इससे पहले वाराणसी में भी शहर से 15 किलोमीटर दूर ऐसी जगह सभा की गई थी कि दो-तीन इलाकों के लोग आ जाएं। रही बात मोदी के भाषण की, तो कल मोदी का भाषण चल ही रहा था कि लोग लौटने लगे थे। आधे भाषण से ही लोगों ने घर की तरफ जाना शुरू कर दिया था।
और इसका कारण क्या है? मोदी वाकई अच्छा भाषण नहीं देते। उनके भाषण में तर्क नहीं होते और तथ्य भी। भाइयों-बहनों वे इतनी बार बोलते हैं कि कोफ्त होने लगती है। वे बार-बार जनता से पूछते हैं कि भाई देश में रोज़गार होना चाहिए या नहीं? भाईचारा होना चाहिए या नहीं? अब कौन कहेगा कि देश मज़बूत नहीं होना चाहिए या देश में सब कुछ अच्छा-अच्छा नहीं होना चाहिए।
कल उन्होंने तान तोड़ी सेक्लुरिज्म पर, सोनिया गांधी पर। पता नहीं कहां से वो ये बात उठा लाए कि कांग्रेस सरकार पिंक रेवोल्यूशन चाहती है। यानी मांस निर्यात को बढ़ाना चाहती है। पिछली सभा में वे एकदम शाकाहारी हो गए थे, फिर समझ में आया होगा कि बहुत से उच्चवर्ण हिंदू, दलित हिंदू भी मांसाहारी हैं तो आज यह कहा कि निर्यात से यहां मांस महंगा हो जाएगा। मगर कहां देश को संभालने की बात और कहां ये शाकाहार-मांसाहार की चर्चा।
मोदी का भाषण इसलिए अच्छा नहीं लगता कि उसमें विरोधियों के प्रति निजी नफरत झलकती है, जबकि बात मुद्दों पर होना चाहिए। कल उन्होंने यह बात भी निकाली कि कांग्रेस ने फौज में अल्पसंख्यकों की संख्या जाननी चाही थी। क्यों जाननी चाही थी, इसे वे गोल कर गए और आरोप लगाया कि कांग्रेस फौज में सांप्रदायिकता फैलाना चाहती है।
सोनिया ने कहा कि सेक्युलर वोट बंटना नहीं चाहिए इसकी शिकायत उन्होंने चुनाव आयोग से की है और उन्हें इस बयान पर कड़ा ऐतराज़ है। कुल मिलाकर उनका भाषण सुनने लायक नहीं था और सच तो यह है कि लोग सुन भी नहीं रहे थे। युवाओं की एक टीम तय करके आई थी कि वो मोदी-मोदी के नारे लगाएगी। इन्हें ऐसी जगह बैठाया गया था कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के कैमरों और टेप पर इनकी आवाज़ दर्ज होती रहे।
उन्मादी युवा बार-बार नारे लगाते थे और इसकी परवाह नहीं करते कि मोदी बोल रहे हैं तो उन्हें सुना जाए। अच्छे वक्ता को लोग ऐसे सुनते हैं कि तिनका भी गिरे तो आवाज आए। यहां मोदी की ही बात सुनाई नहीं दे रही थी। मोदी सभा स्थल पर आए 1.36 पर। आते ही पांच मिनिट के अंदर उनका स्वागत भी हो गया और उन्होंने बोलना भी शुरू कर दिया।
सभा शुरू होने से पहले जो गीत और बातें टेप पर सुनवाई जा रही थीं, वो सांस्कृतिक सांप्रदायिक राष्ट्रवाद को उभारने वाली थीं। धीरे-धीरे भाजपा के मंचों का हाल भी कांग्रेस के मंचों जैसा होने लगा है। मुख्य मंच, जिस पर मोदी थे, उस पर भी बड़ी भीड़ थी। जिन्हें होना चाहिए से ज्यादा भीड़ उन लोगों की थी, जिन्हें नहीं होना था। दूसरे छोटे मंच पर भी इतनी भीड़ थी कि नेता गिरे-गिरे पड़ रहे थे। अब सवाल यह कि सभा में लोग कितने थे? न तो सभा के कारण रास्ते जाम हुए और ना ही वो मैदान पूरा भर पाया जिसमें सभा थी।
प्रशासन का अंदाजा था कि तीस हजार लोग आए तो मैदान पूरा भर जाएगा। इस हिसाब से होंगे बीस हजार लोग। मगर इससे ज्यादा नहीं। ग्यारह बजे का समय दिया गया था, मगर ग्यारह बजे केवल दो हजार लोग सभा स्थल पर थे। ग्यारह के बाद तो लोग आना शुरू हुए। नोएडा और गाजियाबाद के करीब 1500 बूथ अध्यक्षों को दस-दस लोग लाने को कहा गया था। 15 हजार लोग तो अपने कार्यकर्ता ही हुए। कुछ तमाशबीन, बाकी पुलिस वाले और इंतज़ाम अली मिला लिए जाएं तो हो गए बीस हजार। मगर न तो भाषण में कुछ खास था और न कोई वक्ता ही कुछ खास बोल पाया। इसके मुकाबले लालू की सभा ज्यादा सफल थी। जब तक लालू का भाषण खत्म नहीं हुआ था, तब तक एक आदमी अपनी जगह से नहीं हिला था।