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आप को बदलना होगा, वरना...

वेबदुनिया चुनाव डेस्क

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हमें फॉलो करें अरविंद केजरीवाल
पिछले कुछ दिनों से लोकसभा चुनाव को लेकर देश में बहुत उत्साह है और जनतंत्र के इस महोत्सव का उत्साह ही लोकतंत्र की आत्मा को जिंदा रखता है। भारत में पिछले 2 दशक से सत्ता मुख्यत: केवल दो ही दलों के पास रही है, हालांकि किसी एक दल के पास पूर्ण बहुमत न होने से गठबंधन की राजनीति आरंभ हुई और इसमें लगातार परिवर्तन होते रहे।

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परिवर्तन किसी भी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए बेहद जरूरी है और राजनीति में बदलाव न हो तो उसका भ्रष्ट होना तय है। लोकतंत्र का सबसे बड़ा महत्व है कि कोई भी व्यक्ति या समूह अपनी स्वतंत्र विचारधारा प्रस्तुत भी कर सकता है और उसका प्रचार-प्रसार भी कर सकता है। भारत में ऐसा हमेशा से होता आया है।

पिछले एक साल में भारतीय राजनीति में एक बड़ा बदलाव आया जो सीधे-सीधे भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर जनता में उपजे क्रोध की अभिव्यक्ति थी। इस बदलाव को राजनीतिक शक्ल मिली आम आदमी पार्टी के गठन से।

लेकिन, कई बार बदलाव जब एकाएक होता है तो स्थापित व्यवस्था बुरी तरह से हिलने लगती है, ठीक उसी तरह जैसे कोई इमारत भूकंप के आने पर थर्राती है। आप का उदय एक ऐसा ही अचानक से हुआ बदलाव साबित हुआ, जिसने भारतीय राजनीति की स्थापित शक्तियों को हिलाकर रख दिया है।

अगले पन्ने पर, सकारात्मक सोच से आम आदमी पार्टी का जन्म...


आप के उदय से बड़ी राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही और मौकापरस्त क्षेत्रीय दलों से त्रस्त जनता को एक नया विकल्प दिखा जिसे उन्होंने दिल खोलकर समर्थन दिया। अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद से देश में एक गजब का माहौल बनने लगा और उम्मीद जागी कि बदलाव हो रहा है और सकारात्मक सोच रखने वाले कई लोग एक नए विकल्प ही राह तकने लगे।

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बस इसी भावना से 'आप' का जन्म हुआ। क्या यह चमत्कार नहीं कि मात्र एक साल पुरानी पार्टी ने विधानसभा चुनाव में देश की राजधानी दिल्ली को जीत लिया। आम आदमी को जीत हासिल हुई लेकिन कुछ ही दिनों में जीत का खुमार हैंगओवर की तरह सिरदर्द साबित हुआ और विरोध की राजनीति करने वाले सत्ता चलाने में विवश दिखाई देने लगे।

राज्य में 5 साल सत्ता चलाने की चुनौती लेकर भारतीय राजनीति में ऐतिहासिक बदलाव करने का मौका छोड़कर अरविंद केजरीवाल ने कुछ मुद्दों को अहम का मसला बना दिया। अपने ही राज्य में मुख्यमंत्री को धरने और सड़क पर देख लोग हैरान थे। इसके बाद जनता से रायशुमारी कर सरकार बनाने वाले ने बिना जनता से पूछे लोकसभा के लिए अपना दांव चल दिया और दिल्ली में आप की सरकार को महज 49 दिनों में ही समाप्त कर ‘आम आदमी’ के वोट को जाया कर दिया।

क्या अच्छा न होता कि केजरीवाल दिल्ली में सुशासन का कोई ऐसा रोल मॉडल तैयार करते जो उनकी कथनी और करनी को सही सिद्ध करता, लेकिन उन्होंने लंबा और कठिन रास्ता न चुनते हुए देश के लिए दिल्ली को दरकिनार कर दिया। बस यहीं से केजरीवाल को मिला समर्थन भी भ्रमित होने लगा।

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ऐसा नहीं है कि आप में सिर्फ खामियां ही है इसका सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि अब तक जनता को उपेक्षित करते आए सभी राजनीतिक दलों ने जनता की कद्र करना शुरू कर दी। भ्रष्टाचार, महंगाई, विकास और बेरोजगारी के मुद्दों पर बड़े नेता न सिर्फ चिंता जताने लगे बल्कि देर से सही लेकिन इस दिशा में कई कदम उठाए भी गए।

लेकिन, जनता की उम्मीदों के विपरीत आप के नेताओं ने कई मौकों पर अपरिपक्व बयान दिए, वे लगातार विवादों में रहे और तमाशा कर जनता से समर्थन हासिल करने के लिए नित नए कौतुक रचते रहे। मीडिया की उपज कही जाने वाली आप पार्टी ने पहले तो मीडिया के प्रति अत्यधिक दोस्ताना व्यवहार रखा, लेकिन बाद में उन्हें मीडिया अपना सबसे बड़ा दुश्मन लगने लगा।

बहरहाल यहां मकसद आप की बुराई नहीं एक विचारधारा के कुचले जाने का है। आप की विचारधारा बिलकुल सीधी लगती थी। भ्रष्टाचार को समाप्त करना और सुशासन की स्थापना जो जनता को उनके वाजिब हक दिलाए। लेकिन इतिहास के पन्ने पलटने पर जब आप की विचारधारा और उनके हर किसी पर आरोप, विवाद या अंतहीन बहस की नीति पर गौर किया जाए तो यह इतनी आसान और सुलझी हुई नहीं लगती।

क्या यह पिछले दो सालों में विश्वभर में हुई क्रांतियों का असर है जो आप हर बात को चुनौती देती है। अराजकता, आरोप धमकियां और हर जगह अपने समर्थकों को नियम तोड़ने की खुली छुट देना। संविधान के अंतर्गत बने नियमों और कानूनों को चुनौती सोच-समझ कर दी जा रही है या यह अनायास हो रहा है। कुछ नेताओं द्वारा नक्सलवाल, कश्मीर में जनमत संग्रह का समर्थन देने वाले बयान देना।

ऐसे बहुत से उदाहरण है जो सोचने पर मजबूर करते हैं कि कहीं भारत को उसी रास्ते पर तो नहीं जा रहा है जिस पर इथोपिया, मिस्र, लीबिया, इराक चल पड़े थे। जास्मीन क्रांति का जिक्र यहां करना बेहद जरूरी है जहां अरब देशों में जनक्रातियां हुई जो लगभग ऐसे ही मुद्दों पर हुई थी। यह क्रांतियां बेहद सफल रहीं, लेकिन आज इन देशों के हाल देखें तो पता चलता है कि यह देश बर्बाद हो गए हैं।

लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं कि ‘आप’ देश को बर्बाद कर देगी। हां अभी यह पार्टी और इसके नेता अपरिपक्व हैं, नौसिखिए हैं, जोश में होश खो रहे हैं। जरूरी है पहले इन्हें परखा जाए, थोड़ा इंतजार कराया जाए। इंतजार की भट्टी में तप कर ये बहुत कुछ सीखेंगे भी और बहुत कुछ सिखाएंगे भी।

हां, एक बात और, भारत अभी क्रांति के लिए तैयार नहीं है। दरअसल भारत में क्रांति की जरूरत ही नहीं है। सिर्फ थोडे सख्त संकेत ही इस देश के लिए, इसके नागरिकों और राजनैतिक दलों के लिए बहुत है। विरोध, धरना और प्रदर्शन तब तक सही हैं जब तक यह आम लोगों को प्रभावित न करें।

महात्मा गांधी का इसलिए उदाहरण देना जरूरी है कि गांधीजी ने इससे बदतर हालात में अपना संघर्ष किया लेकिन उन्होंने कभी किसी को जेल में डालने की धमकी नहीं दी बल्कि वे खुद ही जेल जाने के लिए सदैव प्रस्तुत रहे। त्याग और बलिदान से पिघलने वाले इस देश की जनता को पता है कि सच्चा त्याग क्या होता है।

फिलहाल जरूरी है कि देश में चल रहे राजनीतिक बदलावों को बिना किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हुए देखा जाए। इसके लिए भाजपा, कांग्रेस, आप या किसी भी दल का सदस्य होना नहीं बल्कि सिर्फ एक भारतीय होना मायने रखता है क्योंकि कोई भी चुनाव सिर्फ आने वाले 5 साल में ही नहीं बल्कि काफी दीर्घकालीन परिवर्तन लाता है और ऐसे में जरूरी है कि तटस्थ होकर पूरे माहौल पर नजर रखें और विश्लेषण करते रहें। याद रखिए आप का वोट न सिर्फ आपकी बल्कि आपकी आने वाली पीढ़ी के लिए भी बेहद जरूरी हैं।

इसके लिए जरूरी है 'आप' का बदलना, क्योंकि अतीत से सिर्फ सबक सीखा जा सकता है लेकिन भविष्य का निर्माण वर्तमान से ही होता है। तो पूरी जिम्मेदारी से अपने परिवार, अपने मित्रों और सबसे बढ़कर अपने देश के लिए मतदान करें और सोचसमझ कर अपना चुनाव करें।

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