Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

जनता पार्टी के प्रयोग का दर्दनाक अंत, कांग्रेस की वापसी

आम चुनाव की कहानी-1980

हमें फॉलो करें जनता पार्टी के प्रयोग का दर्दनाक अंत, कांग्रेस की वापसी
-पार्थ अनि
आपातकाल के दुर्भाग्यपूर्ण कालखंड की कोख से 1977 में जिस नए गैर-कांग्रेसी प्रयोग का जन्म हुआ उसने 1980 आते-आते दम तोड़ दिया। जनता पार्टी में शामिल विभिन्न घटक दलों के नेताओं ने अपनी आपसी कलह से कांग्रेस और इंदिरा गांधी के फिर से सत्ता में लौटने का रास्ता साफ कर दिया।
FILE

कुल मिलाकर 1977 से 1980 के बीच की कहानी केंद्र में बनी पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के दर्दनाक पतन और इंदिरा गांधी की अगुवाई में कांग्रेस की सत्ता में शानदार वापसी की कहानी है। इस दौरान वह सब कुछ हुआ जिसकी आम जनता को कतई उम्मीद नहीं थी।

मार्च 1977 में लोकसभा के चुनाव हुए थे। जयप्रकाश नारायण जनता पार्टी के प्रणेता थे, लेकिन उन्होंने पहले से ही तय कर लिया था कि वे कोई पद नहीं लेंगे। जनता पार्टी ने किसी एक नेता को आगे रखकर चुनाव नहीं लड़ा था। जनता पार्टी रूपी इस कुनबे में खांटी कांग्रेसी मोरारजी देसाई थे तो मधु लिमये, राजनारायण, जॉर्ज फर्नांडीस और मधु दंडवते जैसे समाजवादी भी थे।

संघ परिवार के अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख थे तो 1967 में कांग्रेस से बगावत कर अलग हो चुके चौधरी चरण सिंह और आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत का झंडा उठाने वाले चंद्रशेखर, मोहन धारिया, रामधन और कृष्णकांत की युवा तुर्क चौकड़ी भी।

इस जमात में जगजीवन राम तथा हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे कांग्रेसी भी आ मिले थे, जो आपातकाल के दौरान पूरे समय इंदिरा गांधी के साथ रहते हुए सत्ता-सुख भोगते रहे थे। चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री पद के 3 दावेदार उभरे- मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और चौधरी चरण सिंह।

जनता पार्टी संसदीय दल ने नेता चुनने का अधिकार जेपी और आचार्य जेबी कृपलानी को सौंप दिया था। दोनों बुजुर्ग नेताओं ने प्रधानमंत्री पद के लिए मोरारजी के नाम पर मुहर लगाई। चरण सिंह गृहमंत्री बने और जगजीवन राम रक्षामंत्री।

24 मार्च 1977 को मोरारजी मंत्रिमंडल ने शपथ ली। बमुश्किल 2 महीने बाद ही 27 मई 1977 को बिहार का बहुचर्चित बेलछी कांड हो गया। दबंग कुर्मियों ने करीब 1 दर्जन दलितों का नरसंहार कर दिया। इंदिरा गांधी ने बेलछी का दौरा किया। वे हाथी पर सवार होकर बेलछी पहुंची थीं।

देशी-विदेशी मीडिया ने उनकी यह यात्रा खूब चर्चित हुई। दरअसल, यही घटना इंदिरा की वापसी की शुरुआत बन गई। कुछ ही दिनों बाद आपातकाल की ज्यादतियों की जांच के लिए गठित शाह आयोग की सिफारिशों के आधार पर इंदिरा गांधी को गिरफ्तारी हो गईजिसके विरोध में संजय गांधी की ब्रिगेड ने देशभर में तूफान खड़ा कर दिया। हजारों कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने अपनी नेता के समर्थन में गिरफ्तारियां दीं।

इस मुद्दे पर सरकार में अंतरविरोध पैदा हो गए। गृहमंत्री के नाते गिरफ्तारी का आदेश चरण सिंह का था। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई इससे सहमत नहीं थे। और भी मसलों के चलते मतभेद बढ़ते गए।

आखिरकार चरण सिंह ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। थोड़े ही दिनों बाद चरण सिंह ने अपनी ताकत दिखाने के लिए दिल्ली के बोट क्लब पर एक विशाल किसान रैली की। माना जाता है कि यह रैली न सिर्फ तब तक के बल्कि अब तक के इतिहास की सबसे बड़ी रैली रही। रैली के बाद मान-मनौवल का दौर शुरू हुआ।

चरण सिंह दोबारा मंत्रिमंडल में शामिल हुए। इस बार वे उपप्रधानमंत्री बने और साथ में वित्त मंत्रालय मिला। संतुलन साधने के लिए बाबू जगजीवन राम भी उपप्रधानमंत्री बनाए गए। यह पहला मौका था, जब देश में एकसाथ 2 उपप्रधानमंत्री बने।

यह कहानी 1978 के आखिरी महीने की है। इसी दौरान एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में कांग्रेस का एक और विभाजन हो चुका था। पार्टी के एक धड़े का नेतृत्व इंदिरा गांधी कर रही थीं जबकि दूसरे धड़े के प्रमुख नेता थे यशवंतराव चव्हाण, ब्रह्मानंद रेड्डी, देवराज अर्स आदि।

इंदिरा गांधी नवंबर 1978 में कर्नाटक की चिकमंगलूर लोकसभा सीट से उपचुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंच चुकी थीं। इसी बीच जनता पार्टी में मधु लिमये ने दोहरी सदस्यता का मुद्दा भी उठा दिया था। बहस छिड़ गई थी कि जनता पार्टी में शामिल जनसंघ के लोग एक ही साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनता पार्टी के सदस्य नहीं रह सकते।

इस बहस ने पार्टी के भीतर पहले जारी घटकवाद को सतह पर ला दिया। इसी घटकवाद के चलते मोरारजी की सरकार में स्वास्थ्य मंत्रालय संभाल रहे राजनारायण को इस्तीफा देना पड़ा और उत्तरप्रदेश में रामनरेश यादव, बिहार में कर्पूरी ठाकुर और हरियाणा में चौधरी देवीलाल भी एक-एक कर मुख्यमंत्री पद से हटा दिए गए।

ये तीनों ही नेता पूर्व समाजवादी/ लोकदल घटक के थे। माना गया कि चरण सिंह को नीचा दिखाने के लिए मोरारजी और जनसंघ के नेताओं से मिलकर इन तीनों मुख्यमंत्रियों को हटवाया था। चरण सिंह इसी सबके चलते मोरारजी से हिसाब चुकता करने का मौका तलाशने लगे और उनकी महत्वाकांक्षा फिर अंगड़ाई लेने लगी।

इंदिरा और संजय गांधी ने भी उनकी महत्वाकांक्षा को सहलाने का काम किया। आखिरकार जुलाई 1979 में चरण सिंह ने बगावत कर दी। उनके खेमे के करीब 90 सांसदों ने मोरारजी देसाई सरकार से समर्थन वापस लेकर अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया।

मधु लिमये, राजनारायण, जॉर्ज फर्नांडीस आदि अधिकांश पुराने समाजवादी चरण सिंह के साथ हो गए। चरण सिंह के नेतृत्व में जनता पार्टी (सेकुलर) के नाम से नई पार्टी अस्तित्व में आ गई जिसका नाम थोड़े ही दिनों बाद लोकदल रख दिया गया।

मोरारजी की सरकार गिरी, चरणसिंह बने प्रधानमंत्री... पढ़ें अगले पेज पर....


अविश्वास प्रस्ताव को कांग्रेस के दोनों धड़ों का समर्थन मिला और मोरारजी की सरकार गिर गई। 15 जुलाई 1979 को मोरारजी देसाई ने अपना इस्तीफा राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्‌डी को सौंप दिया। कांग्रेस के दोनों धड़ों के समर्थन से चरण सिंह प्रधानमंत्री बन गए।

इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया जबकि दूसरा धड़ा सरकार में शामिल हुआ। इस धड़े के नेता यशवंतराव चव्हाण उपप्रधानमंत्री बने, लेकिन यह सरकार बेहद अल्पजीवी रही। चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद संभालने के महज 3 सप्ताह बाद ही 20 अगस्त, 1979 को इस्तीफा दे दिया।

चरण सिंह के इस्तीफे का घटनाक्रम भी कम दिलचस्प नहीं रहा। राष्ट्रपति के निर्देशानुसार चरण सिंह को उस समय जारी संसद के मानसून सत्र में ही विश्वास मत हासिल करना था।

इंदिरा गांधी ने वैसे तो उन्हें घोषित तौर बिना शर्त समर्थन दिया था लेकिन विश्वास मत की तारीख नजदीक आते-आते उनके दूतों के माध्यम से चरण सिंह के पास संदेश आने लगे थे कि विश्वास मत के दौरान उन्हें इंदिरा गांधी समर्थन तभी मिलेगा, जब वे इंदिरा और संजय गांधी के खिलाफ सारे मुकदमे वापस लेने का आश्वासन देंगे। चरण सिंह ने यह सौदेबाजी मंजूर नहीं की।

20 अगस्त 1979 को चरण सिंह को विश्वास मत हासिल करना था। उस दिन वे संसद जाने के लिए घर से निकले। तय कार्यक्रम के मुताबिक उन्हें इंदिरा गांधी के आवास पर उनसे मुलाकात करते हुए संसद भवन जाना था, लेकिन चरण सिंह बीच रास्ते से ही लौट गए।

वे न तो इंदिरा गांधी के घर पहुंचे और न ही संसद भवन बल्कि वे सीधे राष्ट्रपति भवन पहुंच गए और राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को अपनी सरकार का इस्तीफा सौंपकर लोकसभा भंग करने की सिफारिश कर दी।

इंदिरा गांधी अपने घर पर चरण सिंह के इंतजार में गुलदस्ता लिए खड़ी रह गईं। राष्ट्रपति ने 22 अगस्त 1979 को लोकसभा भंग कर दी। चौधरी चरण सिंह ऐसे प्रधानमंत्री रहे जिन्होंने कभी संसद का सामना नहीं किया।

बंबई के जसलोक अस्पताल में डायलिसिस के लिए बिस्तर पर लेटे जयप्रकाश नारायण असहाय होकर सरकार गिराने और बनाने का यह प्रहसन देखते रहे। उनके जीते-जी उनके सपने की अकाल मौत हो गई और करीब 4 महीने बाद जनवरी 1980 में देश को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा।

इस चुनाव में इंदिरा गांधी का एक ही नारा था- 'चुनिए उसे जो सरकार चला सके।' कांग्रेस के दूसरे धड़े के अधिकांश दिग्गज भी फिर से उनकी छतरी के नीचे आ गए। जिन हेमवती नंदन बहुगुणा ने जनता पार्टी की टूट में चरण सिंह का साथ दिया था वे भी इंदिरा गांधी की कांग्रेस में लौट गए।

चरण सिंह और और उनके साथ अधिकांश समाजवादियों के अलग हो जाने के बाद बची-खुची जनता पार्टी ने जगजीवन राम को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर चुनाव लड़ा लेकिन उसकी करारी हार हुई।

कांग्रेस ने दो-तिहाई बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की और 14 जनवरी 1980 को इंदिरा गांधी फिर देश की प्रधानमंत्री बनीं। चुनाव के बाद जनसंघ घटक ने भी जनता पार्टी से नाता तोड़कर अपनी नई पार्टी बना ली- भारतीय जनता पार्टी।

1980 के चुनाव में कांग्रेस के कुल 492 उम्मीदवार मैदान में थे जिनमें से 353 जीते और 7 की जमानत जब्त हुई। 1977 के मुकाबले कांग्रेस की सीटों में दोगुने से भी ज्यादा का इजाफा हुआ जबकि उसका वोट करीब 8 फीसदी बढ़कर 42.69 प्रतिशत हो गया।

विपक्षी दलों में किसी को इतनी सीटें भी हासिल नहीं हुईं कि उसे लोकसभा में आधिकारिक विपक्ष का दर्जा मिल सके। चन्द्रशेखर की अध्यक्षता वाली जनता पार्टी 433 सीटों पर लड़ी लेकिन उसके महज 31 उम्मीदवार ही जीते और 116 की जमानत जब्त हुई। उसे करीब 19 प्रतिशत वोट मिले।

चरण सिंह के लोकदल को 42 सीटें मिलीं और वह कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। 293 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली इस पार्टी के 152 प्रत्याशियों को अपनी जमानत गंवानी पड़ी। उसे केवल 9.39 फीसदी वोट मिले।

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के 37 उम्मीदवार जीते और उसे 6.24 फीसदी वोट हासिल हुए। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) को 10 सीटों के साथ 2.49 फीसदी वोट मिले।

विभाजित कांग्रेस के बचे-खुचे धड़े का नेतृत्व उस समय देवराज अर्स कर रहे थे, उनकी पार्टी कांग्रेस (अर्स) को 13 सीटें और 5.28 फीसदी वोट मिले, जबकि उसके 212 में से 143 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई।

तमिलनाडु में हर बार की तरह इस बार भी एक क्षेत्रीय पार्टी का दबदबा दिखाई पड़ा। वहां द्रमुक को सर्वाधिक 17 सीटें मिलीं।

इस चुनाव में 9 निर्दलीय भी जीते थे। लोकसभा की कुल 542 में से 529 सीटों पर हुए इस चुनाव में 4,629 प्रत्याशी मैदान में थे जिनमें से 3,417 की जमानत जब्त हो गई थी।

कुल 143 महिलाएं चुनाव लड़ी थीं जिनमें से 28 जीती थीं। 35 करोड़ 60 लाख मतदाताओं में से 20 करोड़ 30 लाख ने अपने मत का प्रयोग किया था यानी मतदान का प्रतिशत करीब 57 फीसदी रहा।

लगभग सभी कांग्रेसी दिग्गज लोकसभा में पहुंचे : इस चुनाव में कुछ अपवादों को छोड़कर पक्ष-विपक्ष के तकरीबन सभी बड़े नेता जीतकर लोकसभा पहुंचे। इंदिरा गांधी इस बार 2 सीटों आंध्रप्रदेश की मेडक और उत्तरप्रदेश की रायबरेली से चुनाव लड़ीं और दोनों सीटों पर जीतीं।

बाद में उन्होंने रायबरेली सीट से इस्तीफा दे दिया, जहां फरवरी 1980 में हुए उपचुनाव में अरुण नेहरू कांग्रेस के टिकट पर जीते। संजय गांधी इस बार फिर अमेठी से लड़े और जीतकर पहली बार लोकसभा में पहुंचे।

नैनीताल से नारायण दत्त तिवारी, शाहजहांपुर से जीतेंद्र प्रसाद, सीतापुर से राजेंद्र कुमारी वाजपेयी, लखनऊ से शीला कौल, इलाहाबाद से विश्वनाथ प्रताप सिंह, वाराणसी से कमलापति त्रिपाठी, कानपुर से आरिफ मोहम्मद खान, मेरठ से मोहसिना किदवई और गढ़वाल से हेमवती नंदन बहुगुणा- उत्तरप्रदेश के ये सारे कांग्रेसी दिग्गज चुनाव जीते।

कांग्रेस के टिकट पर बिहार के बेतिया से केदार पांडेय, भागलपुर से भागवत झा आजाद, गिरिडीह से बिंदेश्वरी दुबे और बक्सर से केके तिवारी भी चुनाव जीत गए।

आंध्रप्रदेश से कांग्रेसी दिग्गज पीवी नरसिंहराव, विजय भास्कर रेड्‌डी और पी. शिवशंकर भी लोकसभा में पहुंचने में कामयाब रहे। राव हन्न्मकोंडा से, रेड्‌डी कुरनूल से और पी. शिवशंकर सिकंदराबाद से जीते।

असम की सिलचर सीट से संतोष मोहन देव जीते। तमिलनाडु की मद्रास-दक्षिण सीट से आर. वेंकटरमण भी चुनाव जीते, जो बाद में राष्ट्रपति भी बने। कर्नाटक के कांग्रेसी दिग्गज सीके जाफर शरीफ, एसएम कृष्णा और ऑस्कर फर्नांडीस भी चुनाव जीते।

माधवराव सिंधिया इस चुनाव तक कांग्रेस में आ चुके थे और वे मध्यप्रदेश की गुना सीट से फिर लोकसभा में पहुंचे। महासमुंद से विद्याचरण शुक्ल, कांकेर से अरविंद नेताम, छिंदवाड़ा से कमलनाथ, भोपाल से शंकरदयाल शर्मा, इंदौर से प्रकाशचंद्र सेठी और दुर्ग से चंदूलाल चंद्राकर भी कांग्रेस की ओर से चुनाव जीतने में कामयाब रहे।

वासिम से गुलाम नबी आजाद, वर्धा से वसंत साठे, नांदेड़ से शंकरराव चव्हाण, लातूर से शिवराज पाटिल और पुणे से विट्ठल नरहरि गाडगिल भी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतने में कामयाब रहे।

पंजाब से दोनों कांग्रेसी दिग्गज ज्ञानी जेल सिंह और बूटा सिंह भी लोकसभा में पहुंचे। जेल सिंह होशियारपुर से जबकि बूटा सिंह रोपड़ से जीते। पटियाला से कैप्टन अमरिंदर सिंह भी चुनाव जीत गए।

राजस्थान में कांग्रेस के टिकट पर उदयपुर सीट से मोहनलाल सुखाड़िया, भरतपुर सीट से राजेश पायलट, बयाना से जगन्नाथ पहाड़िया और जोधपुर से अशोक गहलोत भी चुनाव जीतने में कामयाब हुए।

मेघालय की तुरा सीट से पीए संगमा और लक्षद्वीप से पीएम सईद इस बार भी चुनाव जीतने में कामयाब रहे।

दिल्ली में एचकेएल भगत पूर्वी दिल्ली से, सज्जन कुमार बाहरी दिल्ली से और जगदीश टाइटलर दिल्ली सदर से चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचे। पश्चिम बंगाल की मालदा सीट से अब्दुल गनी खां चौधरी जीते।

इंदिरा की आंधी में भी जो विपक्षी दिग्गज जीत गए... पढ़ें अगले पेज पर...


इंदिरा की आंधी में भी जो विपक्षी दिग्गज जीत गए : इस चुनाव में 1977 की तरह भारतीय मतदाताओं की मानसिकता और व्यवहार में उत्तर और दक्षिण का विभाजन देखने को नहीं मिला यानी देश में इंदिरा गांधी अगुवाई में कांग्रेस को चौतरफा समर्थन मिला, लेकिन इसके बावजूद विपक्ष के लगभग सभी दिग्गज चुनाव जीतकर 7वीं लोकसभा में पहुंचने में कामयाब रहे।

जनता पार्टी (सेकुलर) यानी लोकदल के टिकट पर चौधरी चरण सिंह बागपत से और उनकी पत्नी गायत्री देवी कैराना से जीतीं। इसी पार्टी के टिकट पर बिहार के मुजफ्फरपुर से जॉर्ज फर्नांडीस और हाजीपुर से रामविलास पासवान भी जीतने में कामयाब रहे।

जनता पार्टी के टिकट पर चन्द्रशेखर भी बलिया से जीत गए। जनता पार्टी के टिकट पर ही लड़े जगजीवन राम बिहार की सासाराम सीट से लगातार 7वीं बार चुनाव जीते।

नेशनल कान्फ्रेंस के डॉ. फारुक अब्दुल्ला श्रीनगर से और उधमपुर से कांग्रेस (अर्स) के टिकट पर डॉ. कर्ण सिंह जीते। जनता पार्टी के टिकट पर महाराष्ट्र की राजापुर सीट से मधु दंडवते और मुंबई उत्तर से उनकी पत्नी प्रमिला दंडवते भी जीतीं।

जनता पार्टी के टिकट पर ही मुंबई उत्तर-पूर्व से सुब्रमण्यम स्वामी और मुंबई उत्तर-पश्चिम से राम जेठमलानी भी चुनाव जीते। कांग्रेस (अर्स) के टिकट पर सतारा से यशवंतराव चव्हाण भी जीते। कांग्रेस (अर्स) के टिकट पर ही चुनाव लड़े नाथूराम मिर्धा भी राजस्थान के नागौर से जीत गए।

नई दिल्ली सीट पर जनता पार्टी के टिकट पर अटल बिहारी वाजपेयी चुनाव जीते थे। भाकपा के इन्द्रजीत गुप्त बशीरहाट से जीते जबकि माकपा के ज्योतिर्मय बसु डायमंड हार्बर से और सोमनाथ चटर्जी जादवपुर सीट से चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचे।

ओडिशा की केंद्रपाड़ा सीट से लोकदल के टिकट पर बीजू पटनायक तथा कांग्रेस के टिकट पर कटक से जानकीबल्लभ पटनायक और कोरापुट से गिरिधर गोमांगो भी चुनाव जीते। ये तीनों नेता बाद में अपने राज्य के मुख्यमंत्री बनने में भी सफल हुए।

हरियाणा के दोनों लाल देवीलाल और बंसीलाल भी चुनाव जीते। देवीलाल लोकदल के टिकट पर जबकि बंसीलाल कांग्रेस के टिकट पर।

जिन दिग्गजों की किस्मत दगा दे गई... पढ़ें अगले पेज पर...


जिन दिग्गजों की किस्मत दगा दे गई : इस चुनाव में कांग्रेस की लहर होने के बावजूद जहां विखंडित जनता पार्टी के सभी खेमों के ज्यादातर बड़े नेता चुनाव जीतने में कामयाब रहे, वहीं कुछ ऐसे भी रहे जिनकी किस्मत दगा दे गई।

ऐसे विपक्षी दिग्गजों में मधु लिमये, रवि राय, राजनारायण, जनेश्वर मिश्र, पीलू मोदी, मुरली मनोहर जोशी, शरद यादव, विजयाराजे सिंधिया, कुशाभाऊ ठाकरे, बापू कालदाते, लालू प्रसाद यादव, आरिफ बेग, राजमोहन गांधी, अब्दुल गफूर, सुषमा स्वराज और सिकंदर बख्त और जैसे नेता शामिल थे।

कुछ दिग्गज कांग्रेसियों की किस्मत भी दगा दे गई। 6ठी लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे सीएम स्टीफन, जगन्नाथ मिश्र, कमला बहुगुणा और मुरली देवड़ा जैसे नेता चुनाव हार गए। बिहार के बांका संसदीय क्षेत्र से मधु लिमये को कांग्रेस के चंद्रशेखर सिंह ने हराया।

1977 के चुनाव में रायबरेली से इंदिरा गांधी को हराने वाले राजनारायण ने इस चुनाव में वाराणसी से लोकदल के टिकट पर चुनाव लड़ा था, जहां उन्हें कड़े मुकाबले में कांग्रेसी दिग्गज कमलापति त्रिपाठी ने हरा दिया।

जनेश्वर मिश्र लोकदल के टिकट पर बलिया से चुनाव लड़े, जहां से जनता पार्टी के चन्द्रशेखर जीते। कांग्रेस के जगन्नाथ चौधरी दूसरे स्थान पर रहे जबकि मिश्र को तीसरा स्थान नसीब हुआ। सीएम स्टीफन को नई दिल्ली सीट से अटल बिहारी वाजपेयी ने हराया था।

बिहार की झंझारपुर सीट से जगन्नाथ मिश्र भी यह चुनाव हार गए। उन्हें लोकदल के धनिकलाल मंडल ने हराया। मुरली देवड़ा मुंबई दक्षिण सीट पर जनता पार्टी के रतनसिंह राजदां से हारे थे।

जनता पार्टी के टिकट पर लड़े मुरली मनोहर जोशी अल्मोड़ा से और कुशाभाऊ ठाकरे मध्यप्रदेश की खंडवा सीट से हार गए थे। इंदिरा गांधी 2 सीटों से चुनाव जीती थीं। रायबरेली से उनके खिलाफ खड़ी विजयाराजे सिंधिया हारीं तो आंध्रप्रदेश की मेडक सीट से जनता पार्टी के टिकट पर लड़े एस. जयपाल रेड्‌डी हारे।

हेमवती नंदन बहुगुणा और उनकी पत्नी कमला बहुगुणा 1980 में फिर कांग्रेस में लौट आए थे। हेमवती नंदन तो गढ़वाल से जीत गए लेकिन फूलपुर से कमला बहुगुणा हार गईं। उन्हें लोकदल के बीडी सिंह ने हराया।

लोकदल के टिकट पर मध्यप्रदेश के जबलपुर से शरद यादव को कांग्रेस के मुंदर शर्मा ने हराया था। इसी सीट पर जनता पार्टी के टिकट पर लड़े राजमोहन गांधी भी हारे। रवि राय ओडिशा की जगतसिंहपुर सीट से और लालू यादव बिहार की छपरा सीट से लोकदल के टिकट पर लड़े और हारे।

कांग्रेस (अर्स) के टिकट पर लड़े अब्दुल गफूर बिहार के गोपालगंज से हारे जबकि सुभद्रा जोशी दिल्ली की चांदनी चौक सीट से हारीं। इसी सीट से सिकंदर बख्त भी पराजित हुए थे और जीते थे कांग्रेस के भीखूराम जैन।

पीलू मोदी गुजरात की गोधरा सीट से हारे और पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ीं सुषमा स्वराज को हरियाणा की करनाल सीट से हार का मुंह देखना पड़ा।

इसी चुनाव में कांग्रेस को मिला था 'हाथ का पंजा' : 1980 के चुनाव में ही कांग्रेस को नया चुनाव चिह्न मिला था- हाथ का पंजा। 1978 में कांग्रेस में हुए विभाजन के बाद दोनों धड़ों ने अपने को असली कांग्रेस बताते हुए उस समय के पार्टी के चुनाव चिह्न 'गाय और बछड़ा' पर अपना-अपना दावा किया था। इस विवाद के चलते निर्वाचन आयोग ने 'गाय और बछड़ा' चुनाव चिह्न को निरस्त करते हुए दोनों धड़ों को नए चुनाव चिह्न आबंटित किए थे। इस प्रकार इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को 'हाथ का पंजा' और कांग्रेस के दूसरे धड़े को 'चरखा' चुनाव चिह्न मिला था।

हमारे साथ WhatsApp पर जुड़ने के लिए यहां क्लिक करें
Share this Story:

वेबदुनिया पर पढ़ें

समाचार बॉलीवुड ज्योतिष लाइफ स्‍टाइल धर्म-संसार महाभारत के किस्से रामायण की कहानियां रोचक और रोमांचक

Follow Webdunia Hindi