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एक अभिनव प्रयोग अकाल मृत्यु का शिकार हो गया

आम चुनाव की कहानी- 1989

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-पार्थ अनिल जै
10 साल (1989-1999), 5 चुनाव, खंडित जनादेश, त्रिशंकु लोकसभा, बनती-गिरती सरकारें, 6 प्रधानमंत्री, लोकसभा में विश्वास-अविश्वास प्रस्ताव का सिलसिला, कांग्रेस का उभार, भाजपा का उभार, जनता दल नाम का बिखरता कुनबा, यथास्थितिवाद का शिकार वामपंथ और क्षत्रपों के इशारे पर नाचती सरकारें- इन्हीं कुछेक शब्दों में ही लिपटी है इन 5 लोकसभा चुनावों की पूरी अंतरकथा।
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भारतीय राजनीति के इन 10 वर्षों की कहानी किसी थ्रिलर उपन्यास से कम नहीं रही। रहस्य-रोमांच, यारी-दुश्मनी, जोड़-तोड़, जासूसी, षड्यंत्र और अपराध से भरपूर है यह कहानी। इन 10 वर्षों के दौरान कई बड़े घोटाले हुए तो इन घोटालों का पर्दाफाश करने के लिए नाना प्रकार के हथकंडे भी अपनाए गए।

राजनीतिक दलों और गठबंधनों में टूट-फूट के साथ-साथ 'पालाबदल' के भी नए-नए कीर्तिमान स्थापित हुए। सरकार चलाने का ही नहीं, सरकार बनने का भी संकट रहा। लोकतंत्र में जो घटना कल्पना के स्तर पर थी, वह यथार्थ में तब्दील हो गई।

इसी दौर में देश की एक सरकार महज 1 वोट से विश्वास मत हारी और प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। रहस्य और रोमांच से भरी इस राजनीतिक पटकथा की शुरुआत हुई थी 1987 से।

1989 के आम चुनाव का एक ही मुद्‌दा था बोफोर्स तोपों की खरीदी में हुई घूसखोरी और निशाने पर थे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी। इस चुनाव के हीरो थे विश्वनाथ प्रताप सिंह यानी वीपी सिंह।

राजीव गांधी मंत्रिमंडल में पहले वाणिज्य, फिर वित्त और अंत में रक्षामंत्री रहे वीपी सिंह के हाथ में बोफोर्स का मुद्‌दा आ गया और देखते ही देखते 'मिस्टर क्लीन' की छवि वाले राजीव गांधी की छवि रक्षा सौदों में दलाली खाने वाले 'महाभ्रष्ट राजनेता' की बन गई।

बोफोर्स कांड की हकीकत का पता तो आज तक भी नहीं चल पाया, लेकिन यह मुद्दा राजीव गांधी के सत्ता से बेदखल होने का सबब जरूर बन गया। 1984 में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने थे, लेकिन महज 3 साल के भीतर ही यानी 1987 आते-आते उनकी उलटी गिनती शुरू हो गई।

इधर वीपी सिंह ने बगावत की और उधर हरियाणा विधानसभा का चुनाव कुरुक्षेत्र का युद्ध बन गया जिसमें चौधरी देवीलाल महानायक बनकर उभरे। दक्षिण में एनटी रामाराव का अभ्युदय पहले ही हो चुका था।

1984 के अर्द्धमूर्च्छित योद्धा भी उठ खड़े हुए... पढ़ें अगले पेज पर...


विपक्ष के तमाम महारथी, जो 1984 के आम चुनाव में परास्त होकर अर्द्धमूर्छित अवस्था में पड़े हुए थे उन सबकी जान में जान आ गई। मजबूरी में ही सबको वीपी सिंह के पीछे खड़ा होना पड़ा। सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के इस्तीफे से खाली हुई इलाहाबाद लोकसभा सीट का उपचुनाव निर्णायक बन गया।

मई-जून 1988 में हुए इस उपचुनाव में वीपी सिंह उम्मीदवार बने। सभी विपक्षी दलों ने उन्हें समर्थन दिया। यह चुनाव एक तरह से कांग्रेस और राजीव गांधी के विरुद्ध राष्ट्रीय जनमत संग्रह का प्रतीक बन गया जिसमें वीपी सिंह जीते और कांग्रेस हार गई।

इसके करीब 1 वर्ष बाद 1989 में 9वीं लोकसभा चुनने के लिए आम चुनाव हुआ। विपक्ष के सारे धड़े 1977 के बाद पहली बार एकजुट हुए। चुनावी राजनीति में पहली बार एक नया प्रयोग हुआ।

विपक्ष का मंच त्रिस्तरीय था। जो दल करीब-करीब समान विचारधारा वाले थे और जिन्हें राजनीति की भाषा में मध्यमार्गी कहा जाता है उन सबने मिलकर जनता दल का गठन किया।

दूसरा खेमा था वामपंथी मोर्चा जिसमें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी) और फॉरवर्ड ब्लॉक शामिल थे। तीसरा खेमा दक्षिणपंथी भाजपा-शिवसेना का था।

एक चौथा खेमा क्षेत्रीय दलों का भी था जिसमें एनटी रामाराव की तेलुगुदेशम, करुणानिधि की द्रमुक, असम गण परिषद और बादल-तोहड़ा के नेतृत्व वाला अकाली दल शामिल था। जनता दल ने इन क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर राष्ट्रीय मोर्चा (रामो) का गठन किया।

वीपी सिंह राष्ट्रीय मोर्चा के अध्यक्ष बने और रामाराव संयोजक। कुल मिलाकर 3 विपक्षी खेमे बने- राष्ट्रीय मोर्चा, वामपंथी मोर्चा और भाजपा। 1989 में इन तीनों ने मिलकर कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया।

कांग्रेस की सीटें 415 से घटकर मात्र 197 रह गईं और 39.53 फीसदी वोट हासिल हुए लेकिन अब भी वह लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी थी, लिहाजा राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन ने राजीव गांधी को सरकार बनाने का न्योता दिया। राजीव के इंकार के बाद वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने। उनकी सरकार को वाम मोर्चा और भाजपा ने बाहर से समर्थन दिया।

भारतीय राजनीति में यह अभिनव प्रयोग था। बतौर मतदाता इस चुनाव को 49.89 करोड़ मतदाताओं ने देखा। इनमें से 30.90 करोड़ मतदाताओं ने अपने मताधिकारों का इस्तेमाल किया।

इस चुनाव में जनता दल को 143 सीटों के साथ 17.79 फीसदी वोट मिले। भाजपा ने 11.36 वोटों के साथ 85 सीटें हासिल कीं। चारों वामपंथी दलों को 10.16 फीसदी वोटों के साथ 52 सीटें मिलीं।

राष्ट्रीय मोर्चा में शामिल एनटी रामाराव की तेलुगुदेशम, एम. करुणानिधि की द्रमुक, प्रफुल्ल कुमार महंत के नेतृत्व वाली असम गण परिषद आदि का अपने-अपने राज्यों में लगभग सफाया हो गया।

1977 की तरह 1989 के चुनाव नतीजों में भी उत्तर-दक्षिण का विभाजन साफ दिखा। उत्तर भारत में कांग्रेस बुरी तरह हारी, पर दक्षिण में उसने अपने विरोधियों को धूल चटा दी।

जिस दिन जनता दल के सांसद अपना नेता चुनने जुटे थे उसी दिन तय हो गया कि इस सरकार की आयु ज्यादा लंबी नहीं है। दरअसल, चन्द्रशेखर नहीं चाहते थे कि वीपी सिंह प्रधानमंत्री बनें। सांसदों की बैठक में उन्हें यही पता था कि नेता देवीलाल ही चुने जाने वाले हैं।

बेहद नाटकीय अंदाज में वीपी सिंह ने देवीलाल का नाम प्रस्तावित किया जिसका चन्द्रशेखर ने समर्थन किया। लेकिन देवीलाल तुरंत उठे और उन्होंने वीपी सिंह का नाम प्रस्तावित किया जिसका सभी सांसदों ने हल्ला बोल अंदाज में समर्थन कर दिया। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच वीपी सिंह नेता चुन लिए गए।

चन्द्रशेखर ने इसका विरोध किया और वे आखिर तक कहते रहे कि नेता का चुनाव षड्यंत्रकारी ढंग से हुआ है। इसका बदला लेने का मौका उन्हें 1 साल के भीतर ही मिल गया। वीपी सरकार राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार थी। भाजपा और वामपंथी बाहर से समर्थन कर रहे थे। देवीलाल उपप्रधानमंत्री बनाए गए थे। चन्द्रशेखर की महत्वाकांक्षा अलग थी।

जिस तरह चौधरी चरण सिंह ने दिल्ली में किसान रैली के जरिए 1978 में मोरारजी देसाई को चुनौती दी थी, कुछ-कुछ उसी तरह देवीलाल ने इस बार वीपी सिंह को चुनौती दे डाली।

कहा जाता है कि इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए ही वीपी सिंह ने पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने की घोषणा कर दी। देश में आरक्षण विरोधी आंदोलन शुरू हो गया।

इस आंदोलन को परोक्ष रूप से भाजपा और कांग्रेस ने भी हवा दी। भाजपा ने तो इसके साथ ही मंडल के जवाब में कमंडल यानी अयोध्या में राम मंदिर का मुद्‌दा उठा दिया। लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ से अयोध्या तक की राम रथयात्रा पर निकल पड़े।

देशभर में जातीय और सांप्रदायिक तनाव का माहौल बन गया। ऐसे में जब बिहार में लालू प्रसाद यादव की सरकार ने आडवाणी की रथयात्रा को रोककर उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया।

तत्कालीन विपक्ष के नेता राजीव गांधी ने लोकसभा में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया जिसका भाजपा ने भी समर्थन किया। वीपी सिंह की सरकार गिर गई।

जनता दल के 56 सांसद टूटकर चन्द्रशेखर के साथ खड़े हो गए और कांग्रेस की मदद से चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री बन गए। वीपी सिंह की सरकार 11 महीने चली जबकि चन्द्रशेखर की सरकार महज 4 महीने।

राजीव गांधी की कथित जासूसी के मुद्दे को कांग्रेस द्वारा बेवजह तूल देने से खफा होकर चन्द्रशेखर ने इस्तीफा दे दिया। इस तरह केंद्र में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के 1977 के बाद इस दूसरे प्रयोग की भी अकाल मृत्यु हो गई।

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