टीवी चैनलों पर दिखाए जा रहे एक्जिट पोल्स की उतावली में कुछ महत्वपूर्ण सवालों और जवाबों का सिलसिला भी चल निकला है। पोल्स का सबसे बड़ा निष्कर्ष यह नहीं है कि राजग (एनडीए) की जीत लगभग तय है लेकिन मोदी की जो लहर सामने आई और इसके परिणामस्वरूप भाजपा का जो उत्थान होगा, वह भारतीय राजनीति की एक नई धुरी होगा।सर्वेक्षणों में बताया गया है कि भाजपा और राजग को बहुमत के लायक सीटें आसानी से मिल जाएंगी और संभव हो कि भाजपा को सहयोगी दलों की मदद की जरूरत भी नहीं पड़े। लेकिन इसके बावजूद मोदी सरकार को समर्थन देने वालों की कमी नहीं होगी। इस बात को मानना होगा कि इन चुनावों में मोदी की हिंदूवादी कट्टरपंथी छवि को बहुत प्रचारित किया गया, लेकिन इसके बावजूद मोदी भाजपा को राजनीति की मुख्यधारा और प्रमुख केन्द्र में लाने में सफल रहे। इस समय हमें 1998 और 2014 के अंतर को समझना होगा। पंद्रह पहले पार्टी में कट्टरपंथी और नरमपंथी का घालमेल देखा गया था और तब विकास पुरुष वाजपेयी को लौह पुरुष आडवाणी के साथ देखा गया था, लेकिन इस बार विकास पुरुष और लौह पुरुष एक ही है और वह नरेन्द्र मोदी हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने दो की बजाय एक व्यक्ति की ताकत को दर्शाया है। इसी का परिणाम है कि वाजपेयी की लहर (अगर कोई थी तो) की तुलना में मोदी की लहर अधिक ताकतवर दिखाई देती है। इसलिए अब भाजपा को अपने शीर्ष पर दो पुरुषों को दिखाने की जरूरत नहीं रही है।हालांकि मोदी को एक 'विभाजनकारी' व्यक्तित्व बताया गया लेकिन वे भाजपा को प्रभावशाली तरीके से मुख्यधारा में लाने में सफल रहे। 1990 के मध्य तक जिस तरह कांग्रेस राष्ट्रीय राजनीति की एक मजबूत धुरी थी और जो 2009 में लोकसभा चुनावों को जीतने में शामिल हुई थी, इस बार भाजपा इसी भूमिका में है और इसके प्रभाव का दायरा दक्षिण भारत, बंगाल और ऐसे अन्य स्थानों पर देखा जा रहा है, जहां भाजपा के लिए पैर जमाना कठिन माना जा रहा था।हालांकि एक्जिट पोल्स 2004 में गलत साबित हो चुके हैं और राजग की संभावित विजय पराजय में तब्दील हो गई थी और कांग्रेस सरकार बनाने में सफल हो गई थी। इस बार भी कुछ उम्मीदों के खिलाफ आश्चर्यजनक परिणाम सामने आ सकते हैं, लेकिन यह विभिन्न राज्यों में विभिन्न दलों को मिलने वाले मतों के प्रतिशत और उनकी जीतों सीटों के तौर पर हो सकते हैं। इसलिए इस बार भी अगर भाजपा और राजग को स्पष्ट बहुमत नहीं भी मिलता है तब भी राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में भाजपा और राजग ही होगी।
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भले ही भाजपा, राजग को 272 सीटें नहीं मिलें और भाजपा करीब 200 सीटों के आसपास ही रहे तब भी भारतीय राजनीति की धुरी पर भाजपा और राजग ही काबिज होगी क्योंकि यहां जितनी सीटें महत्वपूर्ण हैं, शायद उतना ही महत्वपूर्ण वोट शेयर भी होगा। लेकिन इस बार सीटें बढ़ना भी तय हैं क्योंकि नरेन्द्र मोदी इस बार भाजपा के वोट शेयर को 34 फीसदी और राजग के वोट शेयर को 40.5 फीसदी तक लाने में सक्षम हैं। जबकि 2009 में यूपीए का वोट शेयर 32.8 फीसद ही था। अगर इसमें से दो-तीन फीसद वोट शेयर कम हो भी जाता है तो यह कहना गलत ना होगा कि भाजपा एक ऐसी पार्टी है, जिसे एक तिहाई भारत ने वोट दिया है। एक सर्वेक्षण के अनुसार भाजपा और राजग 40 फीसदी से ज्यादा वोट शेयर पा सकते हैं और इसका अर्थ होगा कि कांग्रेस को मिलने वाला वोट शेयर 22 फीसदी ही होगा और यह कांग्रेस का सबसे खराब प्रदर्शन होगा। इसके सहयोगी दलों का वोट शेयर अगर 3.5 प्रतिशत होता है तो इसका कुल वोट शेयर 25.5 फीसद होगा। इसका अर्थ यह भी होगा कि भाजपा, राजग और कांग्रेस, यूपीए के वोट शेयरों में 15 फीसदी का अंतर होगा। यह अंतर कम नहीं होता है और इसी से तय होगा कि भाजपा, राजग को कांग्रेस, यूपीए से कितनी अधिक सीटें मिलेंगी। इस स्थिति का एक निष्कर्ष यह भी है कि भाजपा अपने बूते पर ही बहुमत हासिल कर सकती है और राजग की सीटों के साथ इसका बहुमत और भी बड़ा होगा।इस बार भाजपा और राजग के पक्ष में एक और बात रही है कि केरल, तमिलनाडु और बंगाल में भी भाजपा ने पैर फैलाने शुरू किए हैं। केरल में लोकनीति पोल्स का कहना है कि भाजपा को 10 फीसदी तक वोट मिल सकते हैं। हालांकि इसे कोई सीट नहीं मिले, लेकिन तिरुवनंतपुरम की सीट पर इसका प्रदर्शन ध्यान देने योग्य होगा। बंगाल में भाजपा को 15 फीसदी वोट मिल सकते हैं और यह तृणमूल और वाम दलों के बाद तीसरी ताकत बन सकती है।कांग्रेस बंगाल में चौथे स्थान पर खिसक सकती है। बंगाल में भाजपा को दो या तीन सीटें मिल सकती हैं, लेकिन इस राज्य में वोट शेयर भी कम महत्वपूर्ण नहीं होगा। बंगाल के छह करोड़ 28 लाख मतदाताओं में से अगर 70 फीसदी मतदाता वोट डालते हैं तो इसका अर्थ है कि भाजपा को 65 लाख वोट मिल रहे हैं। लेकिन जब 10, 15 या 20 फीसदी वोट हासिल करने लगते हैं तो आपको सीटें मिलने लगती हैं और आप किसी भी गठबंधन का हिस्सा बन सकते हैं या स्थानीय स्तर पर एक समर्थ प्रतिद्वंद्वी।
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नवीन पटनायक ने कंधमाल दंगों के बाद 2009 में ओडिशा में भाजपा को परे हटा दिया था और इन चुनावों में भाजपा का सफाया हो गया था लेकिन इस बार भाजपा करीब 29 फीसदी वोट शेयर के बाद दूसरी बड़ी पार्टी और संभव है कि अलगे चुनावों में पटनायक को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ सकती है। अगले चुनावों में वे अपने बलबूते पर या अन्य साथियों के साथ राज्य में निर्णायक ताकत बन सकते हैं।इन चुनावों में मोदी की सबसे बडी योग्यता यह रही है कि वे पार्टी को दूसरे दलों के लिए भरोसेमंद बना सके हैं और इस तरह भाजपा को अछूत समझा जाता है, वह स्थिति समाप्त हो गई है। उन्होंने भाजपा को विश्वसनीय सहयोगी और खतरनाक प्रतिद्वंद्वी में बदलने में सफलता पाई है और उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि वे भाजपा को राजनीति के मुख्य केन्द्र में लाने में समर्थ हैं।वाजपेयी भी यही चाहते थे लेकिन वे जिस काम को अपने तरीके से करना चाहते थे, उसे वे भली-भांति नहीं कर सके, लेकिन मोदी ने यह काम अपनी तरह से अपनी शैली में पूरा कर दिया और केन्द्र में ही नहीं वरन दूरे देश में भाजपा को एक ताकत बनाने में सफलता पाई है।