स्मृति का उभार, गुम होती सुषमा...
-वेबदुनिया चुनाव डेस्क
भारतीय जनता पार्टी में इन दिनों बड़ा ही विचित्र खेल रहा है, जहां पुराने चेहरे एक-एक कर परदे के पीछे जा रहे हैं, वहीं नए नेताओं को जरूरत से ज्यादा अहमियत दी जाने लगी है। ...और यह सब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार मोदी और पार्टी अध्यक्ष राजनाथसिंह के हाथ में पार्टी के सूत्र आने के बाद से हुआ है। हालांकि इसे समय की मांग या राजनीति का हिस्सा कहा जा सकता है, लेकिन पूरी तरह सही भी नहीं माना जा सकता।
पार्टी में सबसे पहले बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी को हाशिए पर डाला गया, इसके बाद एनडीए सरकार में वित्त, विदेश और रक्षा मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहे जसवंतसिंह को 'बाहर' का रास्ता दिखाया गया। लालजी टंडन से छीनकर लखनऊ सीट राजनाथ को दे दी गई, तो मोदी के लिए मुरली मनोहर जोशी से बनारस खाली करा लिया गया और उन्हें कानपुर का टिकट दे दिया गया। यहां तक सब ठीक था क्योंकि परिस्थितियां कुछ ऐसी ही बन रही थीं, लेकिन जिस तरह से पार्टी की एक और शीर्ष नेता इन दिनों हाशिए पर दिखाई दे रही हैं। यह किसी के भी गले नहीं उतर रहा है। ये हैं सुषमा स्वराज, जिनकी चर्चा भाजपा के लिए महत्वपूर्ण समझे जाने वाले लोकसभा चुनाव में नहीं के बराबर रही है, जबकि वे भाजपा की स्टार प्रचारकों में से एक हैं। दूसरी ओर योजनाबद्ध तरीके से उनके समानांतर खड़ा किया गया स्मृति ईरानी को।यह किसी से छिपा नहीं है कि सुषमा स्वराज को आडवाणी गुट का माना जाता है, इसीलिए वे कई बार नरेन्द्र मोदी का भी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से विरोध करती रही हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सुषमा ने रेड्डी बंधुओं को टिकट देने के नरेन्द्र मोदी के फैसले का ट्विटर पर विरोध किया था। फिलहाल सुषमा का कद पार्टी में काफी बड़ा है। पांच साल तक संसद में उन्होंने भाजपा की ओर से नेता प्रतिपक्ष की भूमिका भी सफलतापूर्वक निभाई है। जेटली के मुकाबले उनकी स्वीकार्यता ज्यादा है।
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मोदी टीम की अहम सदस्य स्मृति ईरानी वर्तमान में गुजरात से राज्यसभा की सदस्य हैं साथ ही उनका कार्यकाल भी अभी बाकी है। ऐसे में यदि वे चुनाव हार भी जाती हैं तो उनकी राज्यसभा सदस्यता तो बरकरार रहेगी ही, लेकिन जिस तरह मोदी एंड पार्टी ने उन्हें अमेठी से राहुल के सामने अड़ाया है उससे जानकार मानते हैं कि यह उनकी योजना का ही हिस्सा है, जिससे सुषमा के असर को कम किया जा सके और स्मृति के कद को बढ़ाया जा सके। एक ओर सुषमा जहां कम चर्चित विदिशा सीट पर चुनाव लड़ रही हैं, दूसरी ओर स्मृति राहुल के खिलाफ चुनाव लड़ने के कारण पूरे देश की मीडिया में छाई हुई हैं। जिस तरह सुषमा की जीत तय है, उसी तरह स्मृति की हार भी तय है (यदि कोई चमत्कार नहीं हुआ तो)। ...लेकिन सुर्खियां बटोरने के मामले में स्मृति सुषमा से काफी आगे निकल गई हैं। मोदी ने भी स्मृति के समर्थन में अमेठी में सभा लेकर वहां के लोगों को बता दिया स्मृति की उनकी नजर में क्या अहमियत है। उन्होंने न सिर्फ ईरानी को कई बार अपनी छोटी बहन कहा बल्कि यह भी कहा कि आप उन्हें चुनाव जिताएं और अगली बार उनके कामकाम का हिसाब मुझसे मांगें।
गौरतलब है कि किसी समय स्मृति को दिवंगत भाजपा नेता प्रमोद महाजन का काफी 'करीबी' माना जाता था और 2002 के गुजरात दंगे के बाद वे खुलकर मोदी के विरोध में उतर आई थीं, इतना ही नहीं उन्होंने उस समय धमकी दी थी कि यदि मोदी मुख्यमंत्री पद से नहीं हटे तो वे आमरण अनशन करेंगी। हालांकि वे उस समय राजनीति में नहीं थीं। जब वे पार्टी में आईं तो उन्होंने स्पष्टीकरण दिया था कि वे मीडिया की पक्षपातपूर्ण खबरों को देखकर मोदी के खिलाफ हो गई थीं, लेकिन जब गुजरात के लोगों से मिलीं तो हकीकत का पता चला।लेकिन, वक्त ने करवट बदली जो स्मृति कभी मोदी के विरोध में थीं, वही आज मोदी ब्रिगेड की प्रमुख सदस्यों में से एक हैं और जानकार मान रहे हैं कि सुषमा का कद घटाने के लिए स्मृति को और आगे लाया जाएगा क्योंकि सुषमा भी प्रधानंमत्री पद की एक दावेदार तो हैं ही साथ में महिला भी हैं।