हिमालयन आइबेक्स अर्थात साकिन भारत के हिमालय प्रदेश का एक प्रसिद्ध जंगली बकरा है। भारत में यह तिब्बत और भारत को विभाजित करने वाली हिमालय की पंक्ति पर कश्मीर के आसपास के इलाके में पाया जाता है।
एक अंग्रेज लेखक के मतानुसार सन् 1854 तक हिमालयन आइबेक्स कई-कई सौ के झुंड में मिलता था, पर अब यह बहुत कम रह गया है। इस प्रकार के बकरे और देशों में भी पाए जाते हैं, परंतु उनके चार प्रकार हैं, जिनमें हिमालय की हिमालयन आइबेक्स जाति एक विशेष जाति है।
इसकी काले घने बालों की 7-6 इंच लंबी शानदार दाढ़ी होती है। अन्य देशों के बकरों की अपेक्षा हमारे देश का साकिन आकार में भी बड़ा होता है और सींग भी उसके काफी बड़े होते हैं।
साकिन की चमड़ी मोटी और चमकदार होती है, जिस कारण इसे भयंकर शीत की कोई चिंता नहीं रहती। नर के बड़े ही सुंदर और बड़े सींग होते हैं, जिनमें सामने की ओर गांठें-सी होती हैं।
इसका रंग मौसम के अनुसार बदलता रहता है। गर्मी में रंग भूरा होता है, जो नीचे की ओर हल्का पीला हो जाता है, जबकि जाड़ों में यह पीलापन सफेदी लिए होता है। बूढ़े नरों की पीठ पर सफेद चकत्ते हो जाते हैं। इसकी पीठ पर एक काली लकीर होती है।
दाढ़ी, पूंछ और टांगें, गहरे भूरे रंग की होती हैं। शरीर का निचला भाग और टांगों के भीतर का हिस्सा सफेद होता है। मादा के पीठ के रंग में लालिमा होती है।
एक पूरे नर साकिन के कंधों की ऊंचाई लगभग 42 इंच तक होती है। नर साकिन के सींग 40 से 55 इंच तक लंबे होते हैं। सींग माथे पर सीधे जाकर पीछे को मुड़ जाते हैं। मादा साकिन के सींग 12-15 इंच से अधिक लंबे नहीं होते। यह ऊंचे स्थानों पर ही मिलता है, जो हिम अंधड़ से परेशान होकर कभी-कभी नीचे उतर आता है। बसंत ऋतु में जब घास के नए कल्ले जमने लगते हैं और बर्फ पिघल जाती है तब वह उन कल्लों को चरने आता है।
साकिन की दृष्टि बहुत तेज होती है, पर घ्राण शक्ति तीव्र नहीं होती। होशियार शिकारी साकिन को पीछे से किसी ऊंची चट्टान से चढ़कर मारते हैं। जब तक वे शिकारी को देख न लें तब तक बंदूक की आवाज से भागते नहीं हैं, क्योंकि वे चट्टानों के टूटने की आवाज के अभ्यस्त होते हैं।
यदि झुंड में से कोई साकिन किसी संदिग्ध वस्तु को देखता है तो वह तेज सीटी की आवाज निकालता है और पूरी टोली भाग जाती है। एक टोली में 6-7 साकिन ही देखने को मिलते हैं। जाड़ों में साकिन ऊंचे स्थानों से नीचे की ओर आ जाते हैं, पर बर्फ गलते ही पुनः ऊपर चले जाते हैं। अत्यधिक शिकार की वजह से इनकी संख्या निरंतर कम होती जा ही है।