जब साधुओं ने लिया अँगरेजों से लोहा
ग्वालियर। 1857 की क्रांति का जिक्र होते ही हमारे जेहन में अनेक क्रांतिकारियों के चेहरे आ जाते हैं। लेकिन इनमें से कुछ ऐसे भी हैं, जो घोषित तौर पर तो साधु थे पर जब बात राष्ट्र की आई तो क्रांति का चोला पहनकर इन्होंने अपने प्राणों को न्यौछावर करते हुए अपने वचनों का पालन किया। ऐसे ही क्रांतिकारी साधु-संत थे बाबा गंगादास की ब़ड़ी शाला के। जिन्होंने रानी लक्ष्मीबाई के अँगरेजों से लोहा लेने में बहुत हद तक आंदोलन की सफलता की कूटनीति को अंजाम दिया था। इस शाला के 745 साधुओं ने अपने प्राणों को न्यौछावर करते हुए इस क्रांति में अपना बहुमूल्य योगदान दिया।शाला में बनी थी युद्ध की योजना बड़ी शाला के 18वीं पीढ़ी के महंत बाबा रामसेवक दास जी महाराज ने बताया कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की जो नवधारा झाँसी से शुरू हुई थी, उसकी मुख्य योजना महारानी लक्ष्मीबाई के आग्रह पर बाबा गंगादास की शाला में व उनकी अध्यक्षता में एक गोपनीय सभा में आयोजित की गई थी। इस सभा में अँगरेजों को यहाँ से भगाने की योजना पर गहन विचार-विमर्श किया गया था। इस सभा में दतिया, शिवपुरी, देवास, धौलपुर, आगरा, ग्वालियर आदि के राजाओं ने शिरकत की और कैसे अंग्रेजों से मुकाबला किया जा सकता की रणनीति भी तय की गई।जमकर किया मुकाबलाअँगरेजों से युद्ध करते हुए जब वीरांगना लक्ष्मीबाई घायल अवस्था में थीं, तब उनके साथी उन्हें बाबा गंगादास की बड़ी शाला में लेकर आए। जहाँ उन्होंने बाबा से दो वचन लिए। प्रथम वचन उनके दत्तक पुत्र दामोदर के प्राणों की रक्षा करना व दूसरा वचन उनकी मृत देह को अँगरेजों के हाथ न लगने देना। बाबा ने भी उनके वचन को हर हाल में पूरा करने का वचन दिया। इस बीच वीरांगना ने अपनी अंतिम साँसें लीं और बाबा गंगादास ने उनकी अंत्येष्टि करने की पूरी योजना बनाई और अँगरेजों की सेना शाला की ओर बढ़ रही थी। उस समय शाला में एक हजार साधु व 1500 कर्मचारी मौजूद थे।इस समय बाबा दुविधा में थे कि एक तरफ शाला के साधुओं की रक्षा का प्रश्न और दूसरी तरफ अँगरेज सेना से रानी की मृत देह की रक्षा का सवाल। अंततः जुबान की कीमत और वीरांगना की अंतिम इच्छा की विजय हुई और शाला के चमीटा व भाला चलाने वाले साधु समर में कूद पड़े। इसमें अँगरेजों का सामना करते हुए 745 साधुओं ने अपने प्राणों की आहुति दी। इसमें शाला पूरी तरह तहस-नहस हो गई और बागियों ने शाला को लूट लिया।महंत गंगादास ने किया था अंतिम संस्कार बागी अँगरेजों से रानी की देह को बचाते हुए बाबा गंगादास ने उसे अपनी कुटिया में लाए और 200 गंजी घास के बीच पुत्र दामोदर का स्पर्श कराते हुए स्वयं बाबा ने वीरांगना को मुखाग्नि दी। वहीं दामोदर की रक्षा करते हुए उसे साधु की वेशभूषा में वन के रास्ते सरहद पार करा दिया गया। उसी स्थान पर आज वीरांगना का स्मारक स्थित है और ठीक इसके पीछे बड़ी शाला बनी है।साधुओं के स्मारक की माँग बड़ी शाला के महंत बाबा रामसेवक दास जी ने जिला प्रशासन से माँग की है कि रानी लक्ष्मीबाई के स्मारक के पास ही शहीद 745 साधुओं का शहीद स्मारक बनाया जाए, ताकि आने वाले लोग उनकी शहीदी को भी जान सकें।