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देश में विदेश जैसा चेन्नई

मधु कांकरिया

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विदेश में रहते हुए भी अपने देश जैसा अनुभव होने के बारे में तो यार-दोस्तों से खूब सुना था। कहीं लंदन में बसा छोटा सा भारत तो कहीं न्यूयॉर्क में मिनी इंडिया पर अपने ही देश में विदेशी होने का अनुभव अभूतपूर्व था। पूरा उत्तर भारत घूम चुकी थी, यहाँ तक कि उत्तर-पूर्व में सिक्किम, असम, मेघालय आदि भी पर कहीं भी भाषा ने इतना नहीं मारा जितना चेन्नई में भाषा ने कहर बरपाया।

पहली नजर में चेन्नई आधुनिकता और प्राचीनता के संगम स्थल पर खड़ा बेहद पारंपरिक व्यवस्थित, साफसुथरा एवं हरियाला शहर लगा। दसवीं शताब्दी के प्राचीन मंदिर और 21वीं शताब्दी के बड़े-बड़े श‍ॉपिंग मॉल साथ-साथ। बड़े ही सुनियोजित ढंग से विकसित होता महानगर। शायद ही कोई जगह खाली हो जहाँ नीम और नारियल के पेड़ न लगे हों। आत्मा को सुकून और मन को शां‍ति देती यहाँ की हरियाली।

कोलकाता से निकली तो सोचा था कि थोड़ी हिंदी थोड़ी अँगरेजी मिलाकर काम चला लूँगी पर यहाँ के लोगों की भाषा और संस्कृति प्रेम देखकर दंग रह गई। हिंदी का तो खैर यहाँ देशनिकाला ही है पर तगड़ी तमिल भाषा की तुलना में अँगरेजी जानने के बावजूद तमिल आपस में तमिल भाषा ही बोलना पसंद करते हैं। हम उत्तर भारतीयों की तरह उनमें न तो अपनी भाषा के प्रति कोई कुंठा है और न ही रौब गाँठने के लिए अँगरेजी झाड़ने की मनोवृत्ति। आम तमिल स्वाभाविक जीवन जीने में विश्वास करता है।

अपनी सत्ता, संपदा, समृद्धि और उच्च होने का बोझ वह अपने सिर पर लादकर नहीं चलता है। बड़े से बड़े धनाढ्‍य भी सुबह व्यर्थ के दिखावे से दूर आधी लुंगी यानी घुटनों के ऊपर तक बँधी लुंगी में आप देख सकते हैं। कोयंबटूर में हुए तमिल इंटरनेशनल समिट की सफलता देखकर मैं तो दंग रह गई। सिर्फ दक्षिण के भी एक राज्य की भाषा और इतना विराट अंतरराष्ट्रीय आयोजन और वह भी तीन दिनों तक।

तमिल भाषा की खासियत है कि यह जितनी समृद्ध है, उतनी ही जटिल भी। संस्कृत की तासीर में रची-बसी होने पर भी यह हिंदी से कोसों दूर है।

तो अब सुनिए, चेन्नई में बाहर निकलने का एक उत्तर भारतीय का पहला अनुभव। बाहर निकलते ही कोलकाता के ऑटोवाले खूब याद आए। कितने सभ्य, कितने ईमानदार। चेन्नई में ऑटो वालों की दादागिरी है और वे बँधे-बँधाए भाड़े में जाने को तैयार नहीं होते। यदि आपको भाड़े का अंदाज है तब तो ठीक है, नहीं तो खुदा ही मालिक है। जेब पर डाका डलवाने को पूरा तैयार रहिए। वहाँ से मैं एक डिपार्टमेंटल स्टोर पहुँची। वहाँ कोई तकलीफ नहीं हुई। सजेधजे सामानों के पैकेट को उठाती गई पर मुझे दालचीनी कहीं ‍िदखाई नहीं पड़ी। मैंने एक सेल्सगर्ल से पूछा, 'दालचीनी?' उसने किसी और से कहा और थोड़ी ही देर में एक दूसरी सेल्सगर्ल अरहर की दाल और चीनी लेकर हाजिर हो गई थी।

वहाँ से लौटते वक्त फिर मजेदार घटना घटी। एक ठेले वाले को मैंने इशारे से कहा, 'तीन केला।' उसने समझा तीन रुपए का केला। उसने जवाब दिया, 'इल्लै चानी तीन रुपए में केला नहीं है।' मैंने फिर उसे दस का नोट पकड़ाया और तीन उँगली दिखाई। इस बार वह समझ गया और उसने मुझे तीन केले पकड़ा दिए। सबसे अधिक दिक्कत आई काम करने वाली बाई से काम करवाने में। काम पर उसे मकान मा‍लकिन ने तमिल बोलकर लगवा दिया। उन्हीं दिनों मैं जबर्दस्त बीमार पड़ गई। मुझे भयंकर उलटियाँ होने लगीं। मैं किसी भी प्रकार उसे नहीं समझा पाई कि मुझे डॉमस्टल टेबलेट चाहिए।

दूसरे दिन मैं थोड़ा ठीक महसूस कर रही थी। मुझे पपीता खाने की इच्छा हुई। अब उसे समझाऊँ कैसे? अचानक मुझे याद आया कि कूड़े की बाल्टी में बासी कटे पपीता के कुछ टुकड़े हैं। मैंने बाल्टी से पपीते का छिलका निकाल उसे दिखाया और पचास का नोट पकड़ा दिया। पंद्रह मिनट के भीतर ही वह पपीता लेकर हाजिर थी। सुबह ठेलेवालों को देख मुझे जबर्दस्त प्रेरणा मिलती। यहाँ चेन्नई में कोलकाता की तुलना में कहीं ज्यादा संख्‍या में सब्जियों और फलों के लिए श‍ॉपिंग मॉल हैं।

अलग-अलग काउंटर पर प्राइस टैग लटकाए सजीधजी सब्जियाँ, जिन्हें देख मैं हमेशा अवसाद से भर जाती हूँ कि ये चल गईं तो खुदरे सब्जी और फल बेचने वालों का क्या होगा। पर नहीं, फेरी लगा-लगाकर अपनी लकड़ी की चौपाया गाड़ी में सब्जी रख हांक लगा-लगाकर बेचने वाले ये फेरीवाले रिलायंश फ्रेश को भी मात देते हैं। वहाँ तो आप पहुँचेंगे तब पहुँचेंगे, ये तो सुबह हुई नहीं कि आपके घर हाजिर।

जिजीविषा और अकथनीय श्रम का एक उदाहरण और देखा। मेरे घर के सामने ही एक मकान बन रहा था। कई औरतें तसले में रेत-सीमेंट भर-भरकर उसे मकान की छत पर पहुँचा रही थीं। तभी एक मजदूर स्त्री पर नजर पड़ी। उसकी गोद में बच्चा था। मैं सोचने लगी बच्चे को गोद में लिए यह तसला कैसे उठाएगी। उसने अपने थैले से एक साड़ी खींची, पास ही बने नीम के पेड़ की डाली पर साड़ी से झूला डाला, दूधमुँहे को उसने सुलाया, कुछ देर झूला डुलाया, देखते-देखते दूधमुँहा सो गया और वह चालू हो गई, भर-भर तसला बालू-सीमेंट ऊपर पहुँचाने लगी। मैं प्रशंसा और सहानुभूति के भाव से उस औरत को देखती रही। उस शाम अल्प और अति के चरम बिंदुओं पर जीता यह शहर मुझे एक उदास रचना ही नजर आया।

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