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न्यू मूर द्वीप डूबा

अन्य द्वीपों के डूबने का खतरा

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कोलकाता से दीपक रस्तोग

आप मानें या न मानें। बंगाल की खाड़ी में जलवायु और पारिस्थितिकी परिवर्तन के चलते भारत और बांग्लादेश के बीच 30 साल से चला आ रहा एक विवाद खुद-ब-खुद सुलझ गया है। बंगाल की खाड़ी में 70 के दशक में उग आए एक द्वीप पर दोनों ही देश अपना हक जता रहे थे। इस साल की ताजा शोध रपटों के अनुसार, भारत में पूर्वांशा और बांग्लादेश में दक्षिणी तालपट्‍टी के नाम से परिचित साढ़े तीन वर्ग किलोमीटर का वह द्वीप अब समुद्र में समा चुका है।

वैज्ञानिक इस द्वीप को न्यू मूर आइसलैंड कहा करते थे। इस घटना से समुद्र वैज्ञानिकों में खासी हलचल है और बंगाल की खाड़ी में पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के बीच स्थित छोटे-छोटे सैकड़ों द्वीपों की भौगोलिक स्थिति के भविष्य को लेकर चर्चा तेज होने लगी है।

अभी प्रलय नहीं आई है लेकिन हमारे आसपास की जमीन तेजी से पानी में समा रही है। बंगाल की खाड़ी में स्थित द्वीप एक के बाद एक समुद्र और नदी का हिस्सा बन रहे हैं। दरअसल बंगाल की खाड़ी में समुद्र 3.3 फुट प्रतिवर्ष की रफ्तार से बढ़ रहा है। वजह 'ग्लोबल ॉर्मिंग'। वैज्ञानिकों को आशंका है कि यह रफ्तार बनी रही तो वर्ष 2020 तक 14 द्वीपों का अस्तित्व मिट चुका होगा। इन द्वीपों पर रहने वाली 70 हजार से अधिक की आबादी अपनी जड़ों से उखड़ चुकी होगी। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अनुमान लगाया है कि बांग्लादेश की तरफ वाले हिस्से में समुद्र बढ़ने से दो करोड़ लोग वर्ष 2050 तक विस्थापित हो चुके होंगे।

भारत की तरफ यानी पश्चिम बंगाल के नजदीक पड़ने वाले न्यू मूर द्वीप ही नहीं, लोहाचारा, बेडफोर्ड, कबासगाड़ी और सुपारीभांगा नामक द्वीप भी डूब चुके हैं। इन द्वीपों पर कभी रह रहे छह हजार से अधिक परिवार विस्थापित हैं। बहुचर्चित घोड़ामारा द्वीप 90 फीसदी हिस्सा यानी 9600 एकड़ जमीन जल में समा चुकी है। आशंका जताई जा रही है कि अगले 25-30 वर्षों में 13 बड़े द्वीपों के अस्तित्व पर भारी खतरा आ सकता है। देश के अन्य हिस्सों को मशहूर तीर्थस्थल गंगासागर से जोड़ने वाले सागर, नामखाना समेत मौसुनी, पाथरप्रतिमा, दक्षिण सुरेंद्र नगर, लोथियान, धुलिबासानी, धांची, बुलछेरी, अजमलमारी, भांगादुआनी, डलहौजी, जंबूद्वीप के हिस्सों के समुद्र में समाने से सरकार को वर्ष 2020 तक कम से कम 700 करोड़ रुपए की चपत लग चुकी होगी। बांग्लादेश के कोक्सेज बाजार क्षेत्र में हटिया द्वीप समूह की किस्मत भी कुछ ऐसी ही बताई जा रही है।

आइए पहले न्यू मूर द्वीप की कहानी सुनें। छोटे से इस द्वीप का पता 1974 में चला, जब वैज्ञानिक उपग्रह से मिले कुछ चित्रों का अध्ययन कर रहे थे। 80 के दशक की शुरुआत में भारत और बांग्लादेश दोनों ही ने इस द्वीप पर दावेदारी जताई। वजह, यह द्वीप बंगाल के दक्षिण 24 परगना और बांग्लादेश के सातखीरा के बिल्कुल बीचोबीच उग आया था।

इस ओर बंगाल की खाड़ी का समुद्र और उस ओर बांग्लादेश की नदी हरियाभांगा का डेल्टा। 1981 में भारत ने वहाँ राष्ट्रीय ध्वज लगाकर सीमा सुरक्षा बल की एक चौकी स्थापित कर दी और नौसेना ने भी गश्त लगाना शुरू कर दी। 1987 के बाद से इस द्वीप का कटाव होने लगा।

वर्ष दो हजार आते-आते यह द्वीप वीरान हो चला था। बीएसएफ ने चौकी खाली कर दी थी। हालाँकि, नौसेना की गश्त भी जारी है। वर्ष 2009 के आखिर तक इसका अस्तित्व खत्म हो चला था। जाधवपुर विश्वविद्यालय के समुद्र विज्ञान विभाग और इसरो के मिले-जुले शोध में इस द्वीप के समुद्र में समा जाने की पुष्टि हो चुकी है। 1990 में यह द्वीप समुद्र से सिर्फ तीन मीटर की ऊँचाई पर था।

न्यू मूर द्वीप के भी पहले 1996 में लोहाचारा द्वीप डूब चुका था। दिसंबर 2006 तक पानी में डूबा यह द्वीप दिखता भी था। फिर तो यहाँ पानी की गहराई दो-तीन मीटर तक पहुँच गई थी। इस द्वीप के अस्तित्व खत्म होने का शोक दुनिया भर में मनाया गया था। 2007 में ऑस्कर फिल्म समारोह में भी ट्रॉफी के साथ लोहाचारा का मॉडल भी दिया गया था, यह कहते हुए कि दुनिया का पहला द्वीप जो ग्लोबल वॉर्मिंग का शिकार बना। हालाँकि, जाधवपुर के समुद्र विज्ञान विभाग के शोधकर्ता तुहीन घोष का कहना है कि दो साल बाद 2008 में यह द्वीप पुन: प्रकट हुआ था लेकिन वह अल्प समय के लिए था।

70 के दशक में विवाह कर लोहाचारा में अपने पति के साथ गृहस्थी बसाने वाली ज्योत्सना गिरि के लिए अब वहाँ की यादें ही बची हैं। वे बताती हैं कि तब यहाँ पाँच से छह हजार लोगों की आबादी थी। खेती और मछली पकड़ना इनका मुख्‍य रोजगार था। बगैर खाद के लहलहाती फसल। वे याद करती हैं कि कैसे एक दिन हाई टाइड में उनका लोहाचारा का मकान डूब गया। 150 से अधिक छोटे-बड़े मवेशी नदी में बह गए। उसके बाद वे और उनका परिवार गंगासागर की रिफ्‍यूजी कॉलोनी में पहुँच गया। अब मजूरी कर परिवार का पेट पलता है। ज्योत्सना गिरि की तरह की कहानी हर विस्थापित परिवार के पास है।

जाधवपुर विश्वविद्यालय के समुद्र विज्ञान विभाग के निदेशक डॉ. सुगत हाजरा के अनुसार, बंगाल की खाड़ी में पिछले 40 वर्षों में 210 वर्ग किलोमीटर जमीन समुद्र में समा चुकी है। 2001 से 2009 के बीच जमीन का कटान बढ़ा है।

सिर्फ इन आठ वर्षों में ही 84.20 वर्ग किलोमीटर जमीन नष्ट हो चुकी है। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड ने फरवरी में जारी अपनी रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि सुंदरवन के इलाके में मैन्ग्रोव के जंगल काटे जाने के चलते वहाँ की पारिस्थितिकी में तेजी से बदलाव आ रहा है।

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की उपनिदेशक (कंजरवेशन साइंस) कोल्बे लॉक्स और उनकी टीम ने हाई रेज्योलेशन कैमरों से तस्वीरें खींचकर इस इलाके में समुद्र की सतह के बढ़ने का अध्ययन किया। इन लोगों ने समुद्र की सतह में 80 हजार ग्लोबल पोजीशनिंग एलिवेशन प्वाइंट्‍स लगाए हैं। कोल्बे और उनकी टीम का अध्ययन मुख्‍य रूप से बंगाल टाइगर्स को लेकर है लेकिन उन्होंने पारिस्थितिकी से जुड़े कई मुद्दों को लेकर आशंका जताई है। उनकी टीम का अनुमान है कि वर्ष 2070 तक बंगाल की खाड़ी का समुद्र 11.2 इंच बढ़ जाएगा। ऐसे में बांग्लादेश की तरफ सुंदरवन में बाघों की संख्‍या कहीं 20 तक ही न सिमट जाए - इसकी आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। वजह, समुद्र के बढ़ने का खतरा बांग्लादेश वाले हिस्से में ज्यादा है। उधर की तरफ साठ फीसदी जमीन डूब जाएगी।

वैज्ञानिकों की नजर में भारत की तरफ का घोड़ामार द्वीप, समुद्र के बढ़ने के खतरे का सबसे बड़ा उदाहरण है। यह द्वीप क्षेत्रफल में सबसे बड़ा और जैव-विविधता के लिहाज से रोचक रहा है। पिछले कुछ वर्षों में तो यह मशहूर पर्यटन स्थल भी बन चुका था।

बंगाल की खाड़ी स्थित यह द्वीप कभी नौ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ था। पिछले 25 वर्षों में इसका क्षेत्रफल घटकर 4.7 वर्ग किलोमीटर रह गया है। इस द्वीप को लेकर बड़े पैमाने पर चिंता जताई जा रही है। यहाँ के छह हजार लोग अभी तक विस्थापित हो चुके हैं। यहाँ की समस्याओं को देखने के लिए पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गाँधी ने भी यहाँ का दौरा किया था।

दरअसल, दुनियाभर में समुद्र के बढ़ने का औसत 2.2 मिलीमीटर प्रति वर्ष का रहा है। घोड़ामारा में प्रतिवर्ष 3.12 मिमी की रफ्तार से पानी बढ़ रहा है। यहाँ अब भी दो हजार लोग जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं। यहाँ के पंचायत प्रधान अजय कुमार पात्र के अनुसार, यहाँ चावल की फसल अच्‍छी होती रही है। 30-35 साल पहले सरकार ने दक्षिण 24 परगना के विभिन्न हिस्सों से लोगों को यहाँ चावल की खेती करने के लिए बसाया था। लेकिन अब नदी और समुद्र के कटान के चलते खेती की आधी से ज्यादा जमीन पानी में समा चुकी है। इसी तरह बंगाल की खाड़ी में स्थिति मौसुनी द्वीप भी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।

हालाँकि, यहाँ नदी-समुद्र के कटान की अभी शुरुआत ही हुई है। 24 वर्ग किलोमीटर में फैले इस द्वीप की आबादी लगभग 20 हजार है। यहाँ नदी और समुद्र के कटान से बचने के लिए पश्चिमी और दक्षिणी किनारों पर बालू से अवरोधक लगाए गए हैं लेकिन पिछले साल के आइला में ये किसी काम नहीं आए थे। हो सकता है, घोड़ामारा के बाद नंबर मौसुनी द्वीप का आए। हम-आप ग्लोबल वार्मिंग पर चर्चा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लें लेकिन इस तथ्‍य से मुँह नहीं छुपाया जा सकता कि जिन द्वीपों का अस्तित्व खत्म हो चुका है या जो द्वीप धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं, वहाँ जिंदगी की लड़ाई कठिन होती जा रही है।

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