डॉ. किशोर पँवार
गर्मियों के आते ही वन-उपवन, बाग-बगीचों की छटा कुछ बदली-बदली सी नजर आती है। जब हम होली की तैयारी में लगे रहते हैं तब प्रकृति में फूल भी फाग रचने को तैयार रहते हैं। फूल तो कई हैं पर मेरे कॉलेज परिसर में चार-पाँच सेमल के पेड़ प्रकृति प्रेमियों का ध्यान अपनी रंगीन अदा से खींच ही लेते हैं। इन दिनों में सेमल में बड़े-बड़े कटोरेनुमा रसभरे फूलों का गहरा लाल रंग अपने शबाब पर होता है। पलाश, सेमल और टेबेबुआ को देखकर मुझे यह लगता है कि निश्चय ही मनुष्य ने होली खेलने की प्रेरणा जंगल का यह मनमोहक, मादक दृश्य देखकर ही ली होगी।
प्रकृति हजारों लाखों वर्षों से यह होली खेलती आ रही है। निसर्ग का यह फागोत्सव फरवरी से शुरू होकर अप्रैल-मई तक चलता है। सेमल के पेड़ और होली का गहरा संबंध यह भी है कि होली को जो डांडा गाड़ा जाता है वह सेमल या अरण्डी का ही होता है। ऐसा संभवत: इसलिए किया जाता है क्योंकि सेमल के पेड़ के तने पर जो काँटे होते हैं उन्हें बुराई का प्रतीक मानकर उन्हें जला दिया जाता है।
देखा जाए तो सेमल के पेड़ की तो बात ही निराली है। भारत ही नहीं दुनिया के सुंदरतम वृक्षों में इसकी गिनती होती है। दक्षिण-पूर्वी एशिया का यह पेड़ ऑस्ट्रेलिया, हाँगकाँग, अफ्रीका और हवाई द्वीप के बाग-बगीचों का एक महत्वपूर्ण सदस्य है। पंद्रह से पैंतीस मीटर की ऊँचाई का यह एक भव्य और तेजी से बढ़ने वाला, घनी पत्तियों का स्वामी, पर्णपाती पेड़ है। इसके फूलों और पुंकेसरों की संख्या और रचना के कारण अँगरेज इसे 'शेविंग ब्रश' ट्री कहते हैं।
इसके तने पर मोटे तीक्ष्ण काँटों के कारण संस्कृत में इसे 'कंटक द्रुम' नाम मिला है। इसके तने पर जो काँटे हैं वे पेड़ के बड़ा होने पर कम होते जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि युवावस्था में पेड़ को जानवरों से सुरक्षा की जरूरत होती है जबकि बड़ा होने पर यह आवश्यकता खत्म हो जाती है। है न कमाल का प्रबंधन।
सेमल के मोटे तने पर गोल घेरे में निकलती टहनियाँ इसे ज्यामितीय सुंदरता प्रदान करती हैं। पलाश के तो केवल फूल ही सुंदर हैं परंतु सेमल का तना, इसकी शाखाएँ और हस्ताकार घनी हरी पत्तियाँ भी कम खूबसूरत नहीं। इसकी इन्हीं विशेषताओं के कारण इसे बाग-बगीचों और सड़कों के किनारे, छायादार पेड़ के रूप में बड़ी संख्या में लगाया जाता है। बसंत के जोर पकड़ते ही मार्च तक यह पर्णविहीन, सूखा-सा दिखाई देने वाला वृक्ष हजारों प्यालेनुमा गहरे लाल रंग के फूलों से लद जाता है। इसके इस पर्णविहीन एवं फिर फूलों से लटालूम स्वरूप को देखकर ही मन कह उठता है -
'पत्ता नहीं एक/फूल हजार
क्या खूब छाई है/सेमल पर बहार।'
सेमल सुंदर ही नहीं उपयोगी भी है। इसका हर हिस्सा काम आता है। पत्तियाँ चारे के रूप में, पुष्प कलिकाएँ सब्जी की तरह, तने से औषधीय महत्व का गोंद 'मोचरस' निकलता है जिसे गुजरात में कमरकस के रूप में जाना जाता है। लकड़ी नरम होने से खिलौने बनाने व मुख्य रूप से माचिस उद्योग में तीलियाँ बनाने के काम आती हैं। रेशमी रूई के बारे में तो सभी जानते ही हैं। बीजों से खाद्य तेल निकाला जाता है।
इन दिनों मकरंद से भरे प्यालों के रूप में लाल फूलों से लदा यह पेड़ किस्म-किस्म के पक्षियों का सभास्थल बना हुआ है। तोता, मैना, कोए, शकरखोरे और बुलबुलों का यहाँ सुबह-शाम मेला लगाता है। सेमल पर एक तरह से दोहरी बहार आती है, सुर्ख लाल फूलों की और हरी, पीली, काली चिड़ियों की। इन्हीं चिड़ियों के कारण इसकी वंशवृद्धि होती है। इस पर फल लगते हैं। बीज बनते हैं। सेमल के पेड़ और पक्षियों का यह रिश्ता पृथ्वी पर सदियों से चला आ रहा है और यदि हम इनके रंग में भंग न डालें तो यह ऐसे ही आगे भी चलता रहेगा। हालाँकि प्रकृति में दिनोंदिन हमारी दखलअंदाजी के चलते ऐसी संभावना क्षीण होती जा रही है।
पेड़-पौधों के फूलने की घटना के संदर्भ में वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है कि पौधों की पत्तियाँ ही उन्हें फूलने का संदेश देती हैं। परंतु सेमल पर जब बहार आती है तब तो उसके तन पर पत्तों का नामोनिशान तक नहीं होता। तो फिर सेमल को फूलने का संदेश किसने दिया। दरअसल इसकी पत्तियाँ झड़ने से पूर्व ही इसके कानों में धीरे-से बहार का गीत गुनगुना जाती हैं कि उठो, जागो, फूलने का समय आ गया है बसंत आने ही वाला है। वास्तव में पतझड़ी पेड़ों की पत्तियाँ झड़कर आने वाली बहार का गीत गाकर ही इनके तन से विदा होती हैं। हमें सेमल की सुंदरता, पत्तियों के विदा गीत और प्रकृति का इस उपकार के लिए धन्यवाद करना चाहिए।