क्यों साहिब, मुझसे क्यों ख़फा़ हो? आज महीना-भर हो गया होगा, या बाद दो-चार दिन के हो जाएगा, कि आपका ख़त नहीं आया। इंसाफ़ करो कितना कसीर-उल-एहबाब आदमी था। कोई वक्त ऐसा न था कि मेरे पास दो-चार दोस्त न होते हों। अब यारों में एक शिवाजीराम ब्राह्मण और बालमुकुंद उसका बेटा, ये दो शख्स हैं कि गाह-गाह आते हैं।
इससे गुज़रकर, लखनऊ और काल्पी और फर्रुख़ाबाद और किस-किस जिले से ख़तूत आते रहते थे। उन दोस्तों का हाल ही नहीं मालूम कि कहाँ हैं, और किस तरह हैं? वह आमाद ख़तूत की मौकूफ़, सिर्फ तुम तीन साहिबों के ख़त के आने की तवक्क़ो, उसमें वे दोनों साहिब गाह। हाँ, एक तुम कि हर महीने में एक-दो बार मेहरबानी करते हो।
सुनो साहिब, अपने पर लाज़िम कर लो, हर महीने में एक ख़त मुझको लिखना। अगर कुछ काम आ पड़ा, दो ख़त तीन ख़त, वरना सिर्फ ख़ैर-ओ-आफ़ियत लिखी और हर महीने में एक बार भेज दी।
भाई साहिब का भी ख़त दस बाहर दिन हुए कि आया था, उसका जवाब भेज दिया गया। मौलवी क़मरुद्दीन ख़ाँ यक़ीन है कि इलाहाबाद गए हों, किस वास्ते कि मुझको मई में लिखा था कि अवायल जून में जाऊँगा। बहरहाल, अगर आप आजुर्दा नहीं तो जिस नि मेरा ख़त पहुँचे, उसके दूसरे दिन इसका जवाब लिखिए। अपनी खै़र-ओ-आ़फियत, मुंशी साहिब की खै़र-ओ-आ़फियत, मौलवी साहिब का अहवाल।
इससे सिवा ग्वालियर के फ़ितना व फ़साद का माजरा, जो मालूम हुआ हो वह अल्फ़ाज-ए-मुनासिब-ए-वक्त में ज़रूर लिखना, राजा जो वहाँ आया हुआ है, उसकी हक़ीक़त, धौलपुर का रंग, साहिबान-ए-आलीशान का इरादा वहाँ के बंदोबस्त का किस तरह पर है? आगरा का हाल क्या है? वहाँ के रहने वाले कुछ ख़ाइफ़ हैं या नहीं?
19 जून 1858 ई. गा़लिब