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ग़ालिब का ख़त-40

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नवाब अनवरुद्दौला सआ़दुद्दीन ख़ाँ बहादुर शफ़क़
पीर-ओ-मुर्शिद,

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क्या हुक्म होता है? अहमक़ बनकर चुप रहूँ या जो अज़-रूए-क़शफ़-ए-यक़ीनी मुझ पर हाली हुआ है वह कहूँ? अव्वल रज्जब में नवाज़िशनामा आपने कब भेजा? आख़िर मेरे पास पहुँच ही गया। जवाब भेजा अगर रवाना हुआ होता तो वह भी पहुँच गया होता। बहरहाल, मुहब्बत की गर्मी-ए-हंगामा है। यह जुमला महज़ आरायश-ए-उनवान-ए-नामा है :

उमरत दराज़ बाद के ईं हम ग़नीमत अस्त

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पेंशनदारों का इजराए पेंशन, और अहल-ए-शहर की आबादी मसकन, यहाँ उस सूरत पर नहीं है, जैसी और कहीं है। और जगह सियासत है कि मिंजुमला ज़रूरियात-ए-रियासत है, यहाँ क़हर-ए-इलाही है कि मंशा-ए-तबाही है। खास मेरे बाब में गवर्नमेंट से रिपोर्ट तलब हुई है। इबना-ए-रोज़गार हैरान हैं कि यह भी एक बात अजब हुई है।

रिपोर्ट की रवानगी की देर है, चंद रोज़ और भी क़िस्मत का फेर है। दिल्ली इलाक़ा लेफ्‍टिनेंट गवर्नर से इंकताअ़ पा गई और तहत-ए-हु इहाता पंजाब के तहत-ए-हुकूमत आ गई। रिपोर्ट यहाँ से लाहौर और लाहौर और लाहौर से कलकत्ता जाएगी। और इसी तरहफेर खाकर नवीद-ए-हुक्म मंजूरी आएगी।
9 मार्च 1859 ई. अर्ज़दाश्त,
ग़ालिब

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