आंग सान सू ची आज देश-विदेश में जान-पहचाना नाम है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित और बर्मा (अब म्यांमार) में लोकतंत्र के लिए सैनिक सरकार का शांतिपूर्ण तरीके से विरोध करने वाली 'आंग सान सू ची' पूरी दुनिया में एक मिसाल बन गई हैं। बार-बार नजरबंद और रिहाई जैसी कठोर प्रक्रिया से गुजरने के बाद भी शांति का परचम लहराने वाली आंग सान सू ची एक बार फिर चर्चा में है। हाल ही में सू ची ने स्पष्ट किया कि म्यांमार के आगामी उपचुनाव में वे उम्मीदवार के रूप में खड़ी होंगी।
अपने इस विरोध के चलते उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। सैनिक सरकार के द्वारा उन्हें 1989 से 2010 तक छोटी-छोटी अवधि की रिहाई के साथ घर पर नजरबंद रखा गया। ये गिरफ्तारियां भी लोकतंत्र के प्रति उनके समर्थन के जोश और जुनून को कम नहीं कर सकीं।
उनका जन्म 19 जून 1945 को बर्मा के रंगून शहर में हूआ। उनके पिता आंग सान स्वतंत्र बर्मा के संस्थापक कहे जाते हैं। उन्होंने बर्मा को ब्रिटिश सरकार के बंधन से आजाद कराने में अहम भूमिका निभाई। सू ची की मां डॉ किन ची शादी के पहले महिला राजनैतिक समूह का हिस्सा रहीं। सू ची जब महज सिर्फ दो वर्ष की थीं तभी उनके पिता की विपक्षी समूह ने हत्या कर दी।
सू ची ने अपने प्रारंभिक वर्ष बर्मा में ही व्यतीत किए जब 1960 में उनकी मां को भारत का बर्मा राजदूत नियुक्त किया गया तब वे अपनी मां के साथ भारत आ गईं। सू ची ने अपनी शुरुआती पढ़ाई रंगून में ही पूरी की। आगे की पढ़ाई भारत से संपन्न की। उन्होंने नई दिल्ली के लेडी श्री राम महाविद्यालय से 1964 में स्नातक की पढ़ाई की।
इसके बाद वे अपनी आगे की पढ़ाई के लिए ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय चली गई जहां से उन्होंने 1967 में दर्शन शास्त्र, अर्थशास्त्र और राजनीति में बीए किया।
इसके बाद भी उनकी पढ़ाई के प्रति ललक कम नहीं हुई। अपनी आगे की पढ़ाई के लिए जब वे यूनाइटेड स्टेट्स गई तब उनकी मुलाकात वहां के सचिव यू थांट से हुई। उनकी प्रेरणा से उन्होंने प्रशासनिक एवं आय-व्यय के सवालों के लिए सलाहकारी संगठन में सह सचिव का पद ग्रहण कर लिया।
उन्होंने 1972 में भूटान के विदेशी मंत्रालय में रिसर्च ऑफिसर के रूप में काम किया। उसी साल वे डॉ. माइकल ऐरिस के साथ विवाह बंधन में बंध गईं। 1973 में पहले बेटे अलेक्जेंडर के जन्म के समय यह जोड़ा इंग्लैंड आ गया। यहीं 1977 में इनके दूसरे बेटे किम का जन्म हुआ। शादी के पहले ही सू ची ने ऐरिस को आगाह कर दिया था कि एक दिन बर्मा के लोगों को मेरी जरुरत होगी और उस दिन मुझे वापिस जाना होगा।
देश के प्रति कर्तव्य की भावना उन्होंने अपने पिता से सीखी और माफ मर देने की भावना अपनी मां से। साथ ही वे भारत के अहिंसावादी महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी से भी प्रभावित रहीं।
1985-1987 के बीच सू ची ने एक विजिटिंग स्कॉलर के रूप में क्योटो विश्वविद्यालय से अध्ययन किया। 1987 में सू ची ने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज से अपना फेलोशिप पूर्ण किया।
इसके बाद 1988 में सू ची अपनी बीमार मां की देखभाल करने के लिए रंगून वापिस लौट आईं। अगस्त-सितंबर 1988 में उन्होंने अपना पहला राजनैतिक कदम उठाया और जनरल सेक्रेटरी के रूप में नेशनल लाग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) में शामिल हो गईं। उन्होंने लोकतंत्र के समर्थन में कई भाषण दिए।
उनके इसी समर्थन के चलते 20 जुलाई 1989 को उन्हें रंगून में स्टेट लॉ एंड ऑर्डर रिस्टॉर्टेशन काउंसिल (एसएलओआरसी) द्वारा घर पर ही नजरबंद कर दिया गया। इसी साल लंबे समय से बीमारी से पीड़ित उनकी मां का देहांत हो गया। गिरफ्तारी के शुरुआती वर्षों में सू ची से किसी को भी मिलने की इजाजत नहीं थी लेकिन कुछ साल बाद उनके परिवार के लोगों को उनसे मिलने की स्वीकृति दे दी गई।
जुलाई 1995 में उन्हें रिहा कर दिया गया। तब तक सू ची को सेना की देख-रेख में घर पर ही नजरबंद रखा गया। इसके बाद भी सरकार ने उनके आंदोलन पर बंदिशें जारी रखीं। उनकी रिहाई के प्रारंभिक सालों में उन्हें सिर्फ अपने आवासीय शहर तक जाने की छूट थी। सरकार ने उनके म्यांमार के बाहर जाने पर भी पाबंदी लगा रखी थी। सैनिक सरकार ने उन्हें देश के बाहर जाने और वहीं रहने के कई प्रस्ताव दिए लेकिन उन्होंने उसे नहीं माना।
अपनी रिहाई के बाद भी उन्होंने प्रवक्ता के रूप में एनएलडी में अपने योगदान को बरकरार रखा। 1999 में उनके पति माइकल ऐरिस की इंग्लैंड में मृत्यु हो गई। म्यांमार सरकार ने ऐरिस की सू ची से मिलने की अंतिम इच्छा को ठुकरा दिया था। सरकार के कहना था कि सू ची ऐरिस से मिलने चली जाएं। लेकिन सू ची नहीं गईं वे घर पर ही रहीं। सू ची को इस बात का डर था कि अगर वे चली गईं तब उनको वापिस म्यांमार में आने नहीं दिया जाएगा।
सितंबर 2000 को उन्हें एनएलडी सदस्य से मिलने हेतु म्यांमार से बाहर जाने की कोशिश करने पर एक बार फिर घर में नजरबंद की सजा दे दी गई। ओसलो में दिसंबर 2001 को नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने एकत्रित होकर सू ची की इस घर नजरबंदी के खिलाफ आवाज उठाई और सरकार से सू ची के साथ-साथ अन्य 15 राजनैतिक कैदियों को रिहा करने का अनुरोध किया। इसके बाद सू ची को 2002 में दोबारा रिहा कर दिया गया।
सरकार ने कहा कि यह रिहाई बिना किसी शर्त के है और सू ची अपनी राजनैतिक गतिविधियों को जारी रख सकती हैं। उन्हें मई 2002 में हुए कत्ले आम के बाद एक बार फिर से गिरफ्तार किया गया और इस बार उन्हें घर पर नहीं सलाखों के पीछे रखा गया। 2002 के आखिर में उन्हें कोठरी से वापिस घर पर नजरबंद कर दिया गया। इस घर की नजरबंदी से उनकी रिहाई 13 नवंबर 2010 को हुई। म्यांमार के आगामी उपचुनाव में वे उम्मीदवार के रूप में खड़ी हो रही हैं। यह लोकतंत्र के लिए सुखद संकेत है।
सू ची ने अपने इस गिरफ्तारी और आंदोलन के चरण में अपने शांतिपूर्ण विरोध के लिए कई अवॉर्ड प्राप्त किए। 1991 में स्वतंत्रता के विचार के लिए सखारोव पुरस्कार और नोबेल शांति पुरस्कार। 1992 में अंतरराष्ट्रीय सिमोन बॉलीवर पुरस्कार प्रमुख हैं। 2002 में बिल क्लिंटन ने उन्हें प्रेसिडेंशियल मेडल ऑफ फ्रीडम से नवाजा। उन्हें भारत द्वारा जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
आंग सान सू ची का अद्भुत व्यक्तित्व समस्त नारी शक्ति के लिए प्रेरणादायी है। संघर्षों के बीच अदम्य साहस का उदाहरण रचने वाली 'आंग सान सू ची' सच्चे दिल से बधाई की पात्र है।