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नीरज
अँधियार ढलकर ही रहेगा
आँधियाँ चाहे उठाओ,
बिजलियाँ चाहे गिराओ,
जल गया है दीप तो अँधियार ढलकर ही रहेगा।
रोशनी पूँजी नहीं है, जो तिजोरी में समाए,
वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर ग्राहक लगाए,
वह पसीने की हँसी है, वह शहीदों की उमर है,
जो नया सूरज उगाए जब तड़पकर तिलमिलाए,
उग रही लौ को न टोको,
ज्योति के रथ को न रोको,
यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अँधियार ढलकर ही रहेगा।
दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार है वह,
धूप में कुछ भी न, तम में किन्तु पहरेदार है वह,
दूर से तो एक ही बस फूँक का वह है तमाशा,
देह से छू जाए तो फिर विप्लवी अंगार है वह,
व्यर्थ है दीवार गढ़ना,
लाख-लाख किवाड़ जड़ना,
मृतिका के हाथ में अमृत मचलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अँधियार ढलकर ही रहेगा।
है जवानी तो हवा हर एक घूँघट खोलती है,
टोक दो तो आँधियों की बोलियों में बोलती है,
वह नहीं कानून जाने, वह नहीं प्रतिबन्ध माने,
वह पहाड़ों पर बदलियों-सी उछलती डोलती है,
जाल चाँदी का लपेटो,
खून का सौदा समेंटो,
आदमी हर कैद से बाहर निकलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अँधियार ढलकर ही रहेगा।
वक्त को जिसने नहीं समझा उसे मिटना पड़ा है,
बच गया तलवार से तो फूल से कटना पड़ा है,
क्यों न कितनी ही बड़ी हो, क्यों न कितनी ही कठिन हो,
हर नदी की राह से चट्टान को हटना पड़ा है,
उस सुबह से सन्धि कर लो,
हर किरन की माँग भर लो,
है जगा इन्सान तो मौसम बदलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।