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'कवि मंच अब कपि मंच बन गया है'

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- (आलोक प्रकाश पुतुल, बिलासपुर)
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हिंदी के सुप्रसिद्घ गीतकार गोपालदास नीरज मानते हैं कि कवि मंच अब पहले जैसा कवि मंच नहीं रह गया बल्कि कपि (बंदर) मंच बन गया है। उनका कहना है कि फिल्मों में भी गीत और गीतकार के सुनहरे दिन बीत गए हैं।

नीरज से बात करें तो वे किसी मुद्दे को शिक्षक की तरह समझाने लगते हैं। उनसे कविता और गीतों पर बात करते-करते लगेगा कि आप किसी दार्शनिक से बात कर रहे हैं।

जब तक आप नीरज के शिक्षक, गीतकार और दार्शनिक रूप को पकड़ने की कोशिश करेंगे, नीरज आपसे ज्योतिष के गूढ़ मुद्दों पर साधिकार बात करने लगेंगे।

82 साल के पद्मश्री नीरज कवि हैं, फिल्मी गीतकार हैं, दार्शनिक हैं, ज्योतिष के विद्वान हैं और प्राध्यापक तो वे रहे ही हैं। पिछले दिनों जब वे छत्तीसगढ़ आए तो आलोक प्रकाश पुतुल ने उनसे बातचीत की।
  हिंदी के सुप्रसिद्घ गीतकार गोपालदास नीरज मानते हैं कि कवि मंच अब पहले जैसा कवि मंच नहीं रह गया बल्कि कपि (बंदर) मंच बन गया है। उनका कहना है कि फिल्मों में भी गीत और गीतकार के सुनहरे दिन बीत गए हैं।      


* उम्र के जिस पड़ाव पर आप हैं, वहाँ कई बार अपने अतीत का सब कुछ व्यर्थ जान पड़ता है। आप अपने अतीत को किस तरह देखते हैं?
- सब कुछ व्यर्थ होने के बीच ही मैंने अपनी आँखें खोली हैं। मैंने बचपन से ही पीड़ा झेली है। छह साल की उम्र में पिताजी गुजर गए। पढ़ने के लिए मुझे बुआ के घर भेजा गया। पिता, माँ, बहन और भाइयों के प्यार से वंचित मैं दुख और अभाव में ही पला-बढ़ा। जीवन का एक बड़ा हिस्सा दुख और अभाव से ही लड़ते हुए गुजर गया। कई-कई बार एक-एक जून के खाने के लिए सोचना पड़ता था। फिर मैंने दुख से ही दोस्ती कर ली।

लेकिन बेहतर की उम्मीद कभी नहीं छोड़ी। आज भी नहीं। आज भी वही हाल है। हाँ, सब तरफ भ्रष्टाचार देख-देखकर मन में आक्रोश जरूर पैदा होता है।

* आप प्रेम, करुणा, पीड़ा के साथ-साथ विद्रोह के भी कवि माने जाते हैं। इनकी व्याख्या आप किस तरह करेंगे?
-ये सब तो जीवन के अनुभव हैं और इन सबने मुझे माँजा है। बचपन से ही जो पीड़ा और अकेलापन मैंने भोगा, वही मेरी रचनाओं में आया। पीड़ा और अकेलेपन ने कभी तो मुझमें करुणा उपजाई और कभी गहरे तक विद्रोह से भी भर दिया।

जीवन भर प्रेम की तलाश में भटकता रहा। प्रेम के दौर में ही मैंने अपनी श्रेष्ठ रचनाएँ लिखीं। फिर प्रेम में असफलता मिली तो अध्यात्म की ओर गया। स्वामी मुक्तानंद से लेकर आचार्य रजनीश तक के संपर्क में रहा।

* इसका मतलब कि आपकी श्रेष्ठ रचनात्मकता का स्रोत प्रेम रहा है?
- ऐसा नहीं है। कविता की जन्मदात्री तो पीड़ा होती है। पहली बार नौवीं कक्षा में था तब मैंने कविता लिखी थी- मुझको जीवन आधार नहीं मिलता है, भाषाओं का संसार नहीं मिलता है। हाँ, प्रेम के दौरान मैंने दूसरी तरह की कविताएँ लिखीं। फिल्मों के लिए भी मैंने कुछ इसी तरह के गीत लिखे।

* साहित्य समाज से सरोकार रखने वाले अधिकांश कवियों का फिल्मी दुनिया से कोई ज्यादा मधुर रिश्ता नहीं रहा है। ऐसा क्यों?
- फिल्मों की दुनिया, एक दूसरी दुनिया है। हमारे जमाने में फिल्मी गीतकार नहीं थे। लोग साहित्य से फिल्मों में पहुँचते थे। जिस समय मैंने फिल्मों के लिए गीत लिखे, वह दौर ही दूसरा था। लोग एक-दूसरे का सम्मान करना जानते थे।

'मेरा नाम जोकर' के लिए जब मैंने 'ऐ भाई जरा देख के चलो...' लिखा तो संगीतकार शंकर-जयकिशन ने कहा कि यह भी कोई गीत है, इसकी तो धुन ही नहीं बन सकती। मैंने शंकर-जयकिशन को कहा कि यह कोई मुश्किल काम नहीं है। फिर मैंने इस गीत की धुन बनाई तो राजकपूर के साथ-साथ शंकर-जयकिशन भी खुश हो गए।

अब संभव नहीं कि गीतकार के कहने पर संगीतकार या निर्माता-निर्देशक कोई बात मान ले।

* आपने एक तरफ मंचों पर लोकप्रियता बटोरी और दूसरी तरफ लाखों पाठक भी बनाए। अब ऐसा क्या हुआ कि लिखने वाला कवि और मंच वाला कवि अलग-अलग हो गया?
- 1960 के बाद से साहित्य के मंच को चुटकलेबाजों और हास्य रस वालों ने बर्बाद कर के रुख दिया। कवि मंच अब कपि (बंदर) मंच बन गया है। ऐसे में यह फर्क तो आना ही था।

हिंदी का कितना बड़ा भी कवि हो, उसकी बात समझने वाले श्रोता अब नहीं रहे। लोग तालियाँ जरूर बजाते हैं लेकिन कवि का दर्द नहीं समझते।

नीरज के कुछ लोकप्रिय गी
*कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे (नई उमर की नई फसल)
*लिखे जो खत तुझे, जो तेरी याद में (कन्यादान)
*रंगीला रे, तेरे रंग में यूँ रंगा है मेरा मन (प्रेम पुजारी)
*मेघा छाए आधी रात, बैरन बन गई निंदिया (शर्मिली)
*खिलते हैं गुल यहाँ, खिल के बिछड़ने को (शर्मिली)
*दिल एक शायर है, गम आज नगमा (गैम्बलर)
*बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ (पहचान)
*ए भाई, जरा देख के चलो (मेरा नाम जोकर)

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