आजकल तो कोई भी व्यक्ति किसी को भी गुरु बनाकर उसकी घर में बड़ीसी फोटो लगाकर पूजा करने लगा है और ऐसा वह इसलिये करता है क्योंकि वह भी उसी गुरु की तरह गुरु घंटाल होता है। कथावाचक भी गुरु है और दुष्कर्मी भी गुरु हैं। आश्रम के नाम पर भूमि हथियाने वाले भी गुरु हैं और मीठे-मीठे प्रवचन देकर भी गुरु बन जाते हैं। इनके धनबल, प्रवचन और शिष्यों की संख्या देखकर हर कोई इनका शिष्य बनना चाहेगा क्योंकि सभी के आर्थिक लाभ जुड़े हुए हैं।
1. आश्रमों में गुरु और शिष्य की प्राचीन भारत में परंपरा रही है। अब ना गुरु, गुरु जैसा है और ना शिष्य, शिष्य जैसा। बदल गए हैं आश्रम, तो फिर सब कुछ बदलेगा ही। गुरु और शिष्य की परम्परा के ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिससे यह जाहिर होता है कि गुरु को शिष्य और शिष्य को गुरु बनाने में कितनी जद्दोजहद का सामना करना पड़ा। भगवानश्री रजनीश कहते हैं गुरु की खोज बहुत मुश्किल होती है। गुरु भी शिष्य को खोजता रहता है। बहुत मौके ऐसे होते हैं कि गुरु हमारे आसपास ही होता है, लेकिन हम उसे ढूंढ़ते हैं किसी मठ में, आश्रम में, जंगल में या किसी भव्य प्रेस कांफ्रेंस में या प्रवचनों के तामझाम में।
2. क्या स्कूल या कॉलेज का शिक्षक गुरु नहीं होता? 'गु' शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' शब्द का अर्थ है प्रकाश ज्ञान। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रूप प्रकाश है, वह गुरु है। वैसे तो हमारे जीवन में कई जाने-अनजाने गुरु होते हैं जिनमें हमारे माता-पिता का स्थान सर्वोपरि है फिर शिक्षक और अन्य। लेकिन असल में गुरु का संबंध शिष्य से होता है न कि विद्यार्थी से। आश्रमों में गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह होता रहा है।
3. कुछ लोग कहते हैं कि शास्त्रों अनुसार और गुरु-शिष्य की परंपरा अनुसार पता चलता है कि गुरु वह होता है जो आपकी नींद तोड़ दे और आपको मोक्ष के मार्ग पर किसी भी तरह धकेल दे। हालांकि कहा जा सकता है कि जो भी जिस भी प्रकार की शिक्षा दे वह सभी गुरु ही होते हैं। गुरु द्रोण ने धनुष विद्या की शिक्षा दी, तो क्या वे गुरु नहीं थे? क्या जो सिर्फ मोक्ष का मार्ग ही दिखाए वहीं गुरु होते हैं, जो डॉट नेट, डॉक्टरी या इंजीनियरिंग सिखाए वे गुरु नहीं होते?
4. अंधे भक्तों के अंधे गुरु : बहुत साधारण से लोग हमें गुरु नहीं लगते, क्योंकि वे तामझाम के साथ हमारे सामने प्रस्तुत नहीं होते हैं। वे ग्लैमर की दुनिया में नहीं है और वे तुम्हारे जैसे तर्कशील भी नहीं है। वे बहस करना तो कतई नहीं जानते।
तुम जब तक उसे तर्क या स्वार्थ की कसौटी पर कस नहीं लेते तब तक उसे गुरु बनाते भी नहीं। लेकिन अधिकांश ऐसे हैं जो अंधे भक्त हैं, तो स्वाभाविक ही है कि उनके गुरु भी अंधे ही होंगे। मान जा सकता है कि वर्तमान में तो अंधे गुरुओं की जमात है, जो ज्यादा से ज्यादा भक्त बटोरने में लगी है।
भागवत कथा बांचने वाला या चार वेद या फिर चार किताब पढ़कर प्रवचन देने वाला गुरु नहीं होता। किताब, चूरण, ऑडियो-वीडियो कैसेट, माला या ध्यान बेचने की नौकरी देने वाला भी गुरु नहीं होता।
जैन धर्म में कहा गया है कि साधु होना सिद्धों या अरिहंतों की पहली सीढ़ी है। अभी आप साधु ही नहीं हैं और गुरु बनकर दीक्षा देने लगे तो फिर सोचो ये कैसे गुरु। कबीर के एक दोहे की पंक्ति है- 'गुरु बिन ज्ञान ना होए मोरे साधु बाबा।' उक्त पंक्ति से ज्ञात होता है कि कबीर साहब कह रहे हैं किसी साधु से कि गुरु बिन ज्ञान नहीं होता।
5. शिष्यों को देखकर जाना जा सकता है कि गुरु कैसा है : गुरु क्या है, कैसा है और कौन है यह जानने के लिए उनके शिष्यों को जानना जरूरी होता है और यह भी कि गुरु को जानने से शिष्यों को जाना जा सकता है, लेकिन ऐसा सिर्फ वही जान सकता है जो कि खुद गुरु है या शिष्य। गुरु वह है जो जान-परखकर शिष्य को दीक्षा देता है और शिष्य भी वह है जो जान-परखकर गुरु बनाता है।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने बहुत प्रयास किए कि नरेंद्र (विवेकानंद) मेरा शिष्य हो जाए क्योंकि रामकृष्ण परमहंस जानते थे कि यह वह व्यक्ति है जिसे सिर्फ जरा-सा धक्का दिया तो यह ध्यान और मोक्ष के मार्ग पर दौड़ने लगेगा।
लेकिन स्वामी विवेकानंद बुद्धिवादी व्यक्ति थे और अपने विचारों के पक्के थे। उन्हें रामकृष्ण परमहंस एक ऐसे व्यक्ति नजर आते थे जो कोरी कल्पना में जीने वाले एक मूर्तिपूजक से ज्यादा कुछ नहीं। वे रामकृष्ण परमहंस की सिद्धियों को एक मदारी के चमत्कार से ज्यादा कुछ नहीं मानते थे। फिर भी वे परमहंस के चरणों में झुक गए क्योंकि अंतत: वे जान गए कि इस व्यक्ति में कुछ ऐसी बात है जो बाहर से देखने पर नजर नहीं आती।
तब यह जानना जरूरी है कि आखिर में हम जिसे गुरु बना रहे हैं तो क्या उसके विचारों से, चमत्कारों से या कि उसके आसपास भक्तों की भीड़ से प्रभावित होकर उसे गुरु बना रहे हैं, यदि ऐसा है तो आप सही मार्ग पर नहीं हैं।