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'बादल बन बन आए साकी'

बच्चनजी सागर में

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बच्चनजी को मैंने रू-ब-रू देखा 1951 में। सागर में। मैं सागर महाविश्वविद्यालय में बी.ए. अंतिम वर्ष का छात्र था। विश्वविद्यालय युवा था, अध्यापक भी युवा थे, हम सब छात्र तो खैर युवा थे ही। विश्वविद्यालय का कोई भूत न था केवल वर्तमान था और भविष्य के सपने थे। पूरा विश्वविद्यालय उल्लास में सरोबार था। अतीत और इतिहास कितना ही अच्छा क्यों न हो, कुछ न कुछ तनाव तो पैदा करता ही है।

युवाओं की तरह युवा संस्थाओं में भी प्रतिस्पर्धा तो होती है, कटु स्मृतियाँ नहीं होती। डॉ. रामप्रसादा त्रिपाठी इलाहाबाद से हमारे उपकुलपति होकर आ गए थे। (तब कुलपति को उपकुलपति ही कहा जाता था) और अपने साथ सर्जनात्मकता की,कलात्मकता की, संवाद की, खुलेपन की एक पूरी दुनिया ही साथ लाए थे।

कविता पाठ, नाटक, एकालाप, संगीत, वादन, वन भोज, विश्वविद्यालय में निरंतर चलने वाली गतिविधियाँ थी। ऑडियो विजुअल क्लब की स्थापना हो चुकी थी, डॉ. अमर मुखर्जी उसके संचालक थे। उसमें शेक्सपियार के नाटकों की फिल्में लगतीं, लारेल हार्डी के चित्र दिखाए जाते। प्रसिद्ध ब्रिटिश नाट्य मंडली शेक्सपियराना एक बार वर्ष में सागर आती ही आती। पृथ्वी थियेटर्स की दीवार, पठान, पैसा जैसी प्रस्तुतियाँ हम लोगों ने सागर ही देखी थीं। श्रीमती वनमाला भुवालकर संस्कृत की अध्यापिका थीं, उन्होंने हिन्दी में मराठी के एक नाटक का अनुवाद किया था- 'उधार का पति'।

विश्वविद्यालय के छात्र और छात्राएँ इस नाटक को मंच पर अभिनीत करते। राजनाथ पाण्डेय ने 'वासदत्ता' नामक नाटक लिखा था जिसका मंचन मनोहर टॉकीज के मंच पर हुआ था। नए-नए अध्यापक होकर आए राजेंद्र राय जो छोटे राय साहब कहलाते थे कवि दरबार लगाया करते, जिसमें हिन्दी के तमाम लोकप्रिय कवि अपनी अपनी वेशभूषा में मंच पर आते और छात्र उन्हीं के स्वरों में उनका काव्य पाठ करते। बच्चन, भवानी मिश्र, नीरज, राजनारायण बिसारिया- उनकी कविताएँ- उनका स्वर, उनका आरोह-अवरोह, उनकी पठन शैली हमारे लिए सुपरिचित थी। सत्यदेव दुबे वन भोजों में मौका मिलते ही ' टू बी आर नाट टू बी' का एकालाप करते दिखाई देते।

1951 में शिवकुमार श्रीवास्तव छात्र संघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे, वे स्वयं कवि थे, 'अल्हड़' उपनाम से कविता करते, काव्य- मंच-कोविद, अखिल भारतीय सम्मेलनों में जाने लगे थे। 'मैं सिक्का हूँ, लेकिन खोटा' उनकी पहचान बन चुकी थी- श्रोता उनके मंच पर खड़े होते ही 'खोटा सिक्का', 'खोटा सिक्का' की माँग करते। 1951 में छात्रसंघ की ओर से जिस कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ था, उसके 'स्टार पोयट' थे इलाहाबाद के हरिवंश राय बच्चन।

उनको सागर आमंत्रित करने के पीछे हिन्दी के अध्यापक और विश्वविद्यलय के प्राक्टर राजनाथजी पाण्डेय की प्रेरणा थी। अध्यक्ष शिवकुमार श्रीवास्तव ने उन्हीं केसुझाव पर बच्चनजी को पत्र लिखा था। बच्चनजी की 'मधुशाला' युवाओं और युवा हृदयों का कंठहार थी। बच्चनजी के आने से पहले ही की सारी प्रतियाँ पुस्तकालय से इश्यू हो चुकी थी, खाते-नहाते, चाय पीते-घूमते वे 'मधुशाला' की पँक्तियाँ गुनगुनाते। नगर में 'मधुशाला' के आशिक थे कृष्णकुमार श्रीवास्तव और छात्रावास की दमोह बैरक में दया अग्रवाल के कमरे में हर रात 'मधुशाला' की रुबाइयाँ गूँजतीं।

प्यार करने वाले शाम को जब अपनी-अपनी बैरकों के समय साध कर पेंटागन की ओर घूमने निकलते और गर्ल्स हॉस्टल के सामने पहुँचते तो कोई तान छेड़ देता- 'जब न रहूँगा मैं, तब मेरी याद करेगी मधुशाला'। हर कविता प्रेमी यह सपना सँजोये हुए था कि बच्चन जी आएँगे तो फलाँ रुबाई सुनने की फरमाइश करूँगा। कवि सम्मेलन खत्म हो चुकने के बाद, कवियों के विदा हो चुकने के बाद उसकी कविता फिजा में गूँजतीं रहे, यह तो देखा-सुना था पर किसी कवि के आने से पहले ही, उसके कविता पाठ के हफ्तों पूर्व से वातावरण उसकी कविताओं से लबरेज हो जाए, यह बच्चनजी के साथ, उनकी 'मधुशाला' के साथ ही संभव हो रहा था।

बच्चनजी आए और इलाहाबाद के अपने पुराने मित्र पं. राजनाथ पाण्डेय के साथ ठहरे। दोनों इलाहाबाद में टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज में सहपाठी रह चुके थे, दोनों अभिन्न मित्र थे, दोनों की पहली पत्नी दिवंगत हो चुकी थी। बच्चनजी ने अपना नीड़ फिर से बसा लिया था, पाण्डेयजी फिर से बसाना चाहते थे। पाण्डेयजी 'मधुशाला' के घनघोर प्रशंसक थे- उनकी पहली प्रतिक्रिया बच्चनजी को याद थी- 'न भये आज भारतेन्दू बाबू हरिशचन्द्र, तो है असरफियन ते तोपवाय देते।' तोपवाना बनारसी बोली में कहते हैं, ढकवा देने, मुँदवा देने को। शायद उस रात कवि- सम्मेलन का संचालन वे ही कर रहे थे-विश्वविद्यालय की ओल्ड साइट स्थित स्टेडियम में। सामने की पँक्ति में।

श्रोताओं में उपकुलपति डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी विराजमान थे अपनी अँग्रेज पत्नी के साथ। उनकी युवा पुत्री डल्सी कैंटी भी श्रोताओं में थीं। विश्वविद्यालय के तमाम अध्यापक थे, नगर के साहित्यकार, काव्य प्रेमी, सभी बड़ी संख्या में आए थे, नहीं थे तो हिन्दी के विभागाध्यक्ष आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी। उनकी अनुपस्थिति को सभी ने मार्क किया था। उनके बच्चन के कविता पाठ सुनने के लिए न आने के कारणों की विश्वविद्यलय में कई दिनों तक चर्चा रही थी, एक कारण तो यह था कि वाजपेयीजी बच्चन की कविता को समाज विरोधी और नैतिकता विरोधी मानते थे।

'हिन्दी साहित्य : बीसवीं शताब्दी'- नामक अपनी प्रसिद्ध समीक्षा पुस्तक की 'विज्ञप्ति' में दसेक साल पहले वे बच्चन को यह कहकर कंडम कर चुके थे- 'बच्चन की मधुशाला' उन दिनों (आवारा नहीं तो) बेकार युवकों के लिए साहित्य में सबसे बड़ा प्रलोभन थी। यह विज्ञप्ति सन्‌ 42 में लिखी गई थी और अब सन्‌ 51 आ गया था पर वाजपेयीजी को बच्चन विषयक मान्यताओं में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। छायावाद के 'तुंग हिमालय श्रृंग' से नीचे उतरकर बच्चन की 'चंचलगति मधु सरिता' तक आने में उन्हें और भी कई संकोच थे। बच्चन पं. राजनाथ पाण्डेय के मित्र और अतिथि थे। पाण्डेयजी हिन्दी विभाग में व्याख्याता थे और विश्वविद्यालय की राजनीति में वाजपेयीजी के विरोधी खेमे के माने जाते थे।

बच्चनजी को पाण्डेयजी के सुझाव पर शिवकुमार श्रीवास्तव ने बुलाया था- शिवकुमार भी वाजपेयीजी के प्रिय छात्र मंडली की परिधि में नहीं आते थे। अज्ञेय, मुक्तिबोध भी जब बाद में सागर आए थे तब भी वापजेयीजी उनके सम्मान में आयोजित गोष्ठियों में नहीं गए थे। छायावाद की आधुनिकता का स्वागत करने वाले समय बीतने पर बच्चन, अज्ञेय और मुक्तिबोध के विरोधी हो गए थे।

वाजपेयीजी उस स्टेडियम में नहीं थे- उनके कुछ 'पेट' (अँग्रेजी के पेट शब्द का हिन्दी के 'पट्ट' या पट्ठा से कोई संबंध है क्या?) शिष्य भी अपनी गुरुभक्ति प्रदर्शित करने के लिए बच्चनजी के काव्य पाठ का बायकाट जैसा कुछ कर रहे थे पर वे दो-तीन या चार-पाँच से ज्यादा नहीं थे। दो ढाई हजार श्रोताओं की केपेसिटी वाला स्टेडियम खचाखच भरा हुआ था। स्थानीय और दूसरे कवि कविता पढ़ चुके थे। पहला दौर खत्म होने को था, संचालक राजनाथ पाण्डेय ने बच्चन का परिचय दिया, उनकी 'मधुशाला' की तारीफ की और उन्हें कविता पाठ करने की दावत दी। बच्चनजी खड़े हुए माइक संभाला चश्मा ठीक किया- ठट्ठ मारते मजमे को मुआइना किया- लड़के 'मधुशाला','मधुशाला' चिल्ला रहे थे।

बच्चनजी को इसकी प्रत्याशा भी थी और ऐसा अनुभव भी था पर उन्होंने कहा कि मैं 'मधुशाला' सुनाऊँगा पर उसके पहले अपने कुछ नए गीत सुनना चाहता हूँ। पहले उन्होंने 'इसलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो' सुनाया- 'कहाँ मनुष्य है जो उम्मीद छोड़ कर जिया, कहाँ मनुष्य है जिसे कभी खली न प्यार की, कहाँ मनुष्य है जिसे न भूल शूल सी गढ़ी'- सुनकर लोग झूमने लगे थे। 'तुम गा दो मेरा गीत अमर हो जाए' भी उन्होंने सुनाया था। अपने तीसरे गीत 'मैं गाता हूँ- मैं गाता हूँ इसलिए जवानी मेरी है' का पहला बंद उन्होंने पूरा किया ही था कि पता नहीं कहाँ से विश्वविद्यालय के कोषाध्यक्ष (उस समय वित्त अधिकारी को कोषाध्यक्ष कहतेथे) पं. आनंद मंगल मिश्र पधारे और सीधे मंच पर चढ़ गए। प्रथम पंक्ति में कुलपति के आसपास उन्हें अपने पद और रुतबे के अनुकूल कोई आसन नहीं दिख रहा था- आसन तो मंच पर भी नहीं था- कवि मंच पर अर्द्ध वृत्ताकार गाँव तकियों से टिके हुए थे। बीचों-बीच राजनाथजी थे- अगल-बगल कवियों की पांत थी सो मिश्रजी बीचों-बीच ऐन बच्चनजी के सामने जम गए।

बच्चनजी और अन्य कवियों की तरफ पीठ देकर। मिश्रजी भारी भरकम, ऊँचे पूरे थे, कुर्ता-धोती पहनते थे, सिर पर गाँधी टोपी होती थी पर बाकी अदा में वे लंबरदार थे और अपनी लंबरदारी का अहसास उन्हें अहर्निश बना रहता था। श्रोता अपने प्रिय कवि को पूरा का पूरा- शिख से नख तक-नख से शिख तक देखना चाहते थे। उसमें मिश्रजी की उपस्थिति बाधा पहुँचा रही थी। 'मैं गाता हूँ, इसलिए जवानी मेरी है' का दूसरा बंद बच्चनजी ने पढ़ा-

तुम मेरे पथ के बीच लिए काया भारी-
भरकम क्यों जम कर बैठ गए, कुछ बोलो तो
क्यों तुमको छूता है मेरा संगीत नहीं
तुम बोल नहीं सकते तो झूमो, डोलो तो।

यह बंद बच्चनजी ने मिश्रजी के लिए शायद ही लिखा हो पर दर्शकों को लगा कि बच्चनजी ने खासतौर पर भारी काया लेकर जम कर बैठ गए पँक्ति द्वारा मिश्रजी को शालीन सलाह दी थी कि वे मंच को केंद्रीयता का परित्याग कर कहीं और खिसक लें। बच्चनजी ने केवल गीत के शब्दों से ही नहीं, अपने हस्त संचालन से भी उस भारी-भरकम उपस्थिति की ओर संकेत किया था। शायद न भी किया हो, हम लोगों को ही ऐसा लगा हो। जब मिश्रजी पर इन इशारों का कोई प्रभाव पड़ता दिखाई नहीं दिया तो हूटिंग की आवाजें आनी शुरू हुई- अध्यक्ष राजनाथजी पाण्डेय के सामने बड़ा धर्मसंकट था- मित्र और अधिकारी के बीच में से एक का चुनाव करने की कुघड़ी सामने थी कि समस्या का अपने आप समाधान हो गया। किसी ने कंट्रोल रूम में जाकर बिजली का मेन स्विच ऑफ कर दिया- स्टेडियम अंधेरे में धुप्प।

राजनाथजी विरोधों का सामंजस्य करने की कला में निष्णात थे- वे जोर-जोर से बोल रहे थे- शांत रहिए- लाइट आने ही वाली है- पर श्रोताओं में सब्र नहीं था- वे बच्चनजी से बाहर चलकर खुले में कविता सुनाने का आग्रह कर रहे थे। सहसा शिवकुमारजी की आवाज आई- अब कवि सम्मेलन खुले में होगा- उन्होंने शायद बच्चनजी को मना लिया था, कवि के रूप में वे बच्चनजी के ठीक पीछे बैठे थे- वे बच्चन जी को लेकर स्टेडियम के विशाल मेन गेट की ओर बढ़ रहे थे- पता नहीं कहाँ से दो चार टार्च आ गए थे, सिगरेट पीने वालों के साथ-साथ माचिस थी ही- यहाँ-वहाँ तीलियों की रोशनी भी हो रही थी।

बच्चनजी शिवकुमारजी के साथ अब तक खुले में आ गए थे। हजार पाँच सौ की भीड़ उनके आगे-पीछे चल रही थी। इस बीच मावटा गिरने लगा था- पीछे अँधेरे भरे स्टेडियम में लौटना संभव नहीं था- बाहर से दो ढाई सौ गज दूर लार्ज लेक्चर थियेटर हॉल में रोशनी दिख रही थी- शिवकुमारजी के कदम उस ओर बढ़े। यूनियन के चौकीदार से उन्होंने हाल का ताला खुलवाया। बच्चन जी उस बैरकनुमा हाल में बने सीमेंट के चबूतरे पर खड़े हो गए थे। उस हाल में मुश्किल से दो ढाई सौ लोगों के खड़े होने लायक जगह थी। दो ढाई सौ श्रोता अंदर खड़े थे- बच्चनजी को बाहर लाइये- भीतर-बाहर का यह संघर्ष खत्म ही नहीं हो रहा था।

बच्चनजी ने बाहर खड़ी भीड़ की बेताबी देखी तो वे शिवकुमारजी के कान में कुछ फुसफुसाए। दोनों बाहर आए- बाहर सामने ही 20-25 कदम पर सड़क के उस पार बिजली का एक खंभा था- गोल घेरे से घिरा हुआ। हम लोग उसे सीट ऑफ विक्रमादित्य कहते थे। उस पर चालीस पावर का एक बल्ब टिमटिमा रहा था। बच्चनजी वहाँ ठिठके। शिवकुमारजी ने सामने पानी की विशाल टंकी की ओर संकेत किया जिसमें ऊपर पहुँचने के लिए सीमेंट की एक बड़ी पुख्ता सीढ़ी बनी थी। बच्चनजी उस ओर बढ़े और सीमेंट की नौवीं या दसवीं सीढ़ी पर चढ़कर बैठ गए। लीजिए, मंच तय हो गया। श्रोताओं की भीड़ अब तक पानी की टंकी के नीचे एकत्र हो गई थी। किसी ने कुछ नहीं कहा, किसी ने कोई फरमाइश नहीं की, प्रकृति ने 'मधुशाला' के काव्य पाठ का पूरा बैक ड्राप तैयार कर दिया था। बिना माइक के चारों ओर बच्चनजी की स्वर लहरी गूँज रही थी।

मृदु भावों के अँगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहिले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहिले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला

तालियाँ बज रही थी, श्रोता झूम रहे थे- अब किसी संचालक की आवश्यकता नहीं थी, कवि और रसिक जनों के बीच किसी भी मध्यस्थता का क्षण बीत चुका था। अँधेरे-उजाले की कोई चिंता नहीं रह गई थी। स्थान की कमी का कोई रोना नहीं रह गया था- पानी बरस रहा था- बच्चनजी भीग रहे थे, श्रोता सरोबार थे, आकाश से रस वर्षा हो रही थी, धरती रसपान कर रही थी। बच्चनजी 'मधुशाला' की 30वीं रुबाई तक पहुँच गए थे।

सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिन्धु बने घट, जल हाला
बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला
झड़ी लगाकर बरसे मदिरा, रिमझिम-रिमझिम कर
बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला

मधुशाला अब कविता नहीं थी, वह जीवित, स्पंदित सत्ता हो उठी थी, बादल साकी बन चुके थे, भूमि मधु के प्याले में रूपांतरित हो चुकी थी, मदिरा रिमझिम बरस रही थी। विराट प्रतीक! विराटता का साक्षात बिंब। 'जमे हुए थेपीने वाले, जगी हुई थी मधुशाला' बधानजी सुना रहे थे। जब उन्होंने मधुशाला की यह रुबाई लिखी होगी।

तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला
सीधा करके भर दी जाए, उसमें सागर- जल हाला
मत्त समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए,
फैले हों जो सागर तट से, विश्व बने यह मधुशाल

तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि सागर में तरुणों के समुदाय के बीच उनकी यह रुबाई श्रव्य और दृश्य का- सूँ ए लूमियेर का रूप धारण कर जीवित हो उठेगी और सागर को, सागर के विश्वविद्यालय को नई अर्थवत्ता प्रदान करेगी।

उस रात हालत यह थी कि हम लोग जिस ओर भी आँख उठाते, हमें बच्चन दिखाई देते, हमारे कानों में केवल 'मधुशाला' की पँक्तियाँ आ रही थीं। श्रवण नयनमय नयन श्रवणमय होने से उस रात कोई उलझन नहीं हुई थी।

मधुशाला की अंतिम रुबाई :
बड़े-बड़े नाजों से मैंने पाली है साकी बाला,
कलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,
मान-दुलारों से ही रखना, इस मेरी सुकुमारी को,
विश्व! तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूं मधुशाला।

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