बच्चनजी अपनी आत्मकथा का पहला भाग 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' पूरा कर चुके थे और दूसरे भाग 'नीड़ का निर्माण फिर' की योजना बना चुके थे। इस भाग की सामग्री एकत्र करने के लिए वे ग्वालियर आए थे। फरवरी 69 की बात होगी। अपनी आत्मकथा को पूर्णतः प्रामाणिक और दस्तावेजी बनानेके लिए वे भारत के दौरे पर निकले थे। जहाँ-जहाँ उनके मित्र थे, जिन-जिनसे उनका पत्र व्यवहार हुआ था, जहाँ-जहाँ उन्होंने काव्य पाठ किया था-वहाँ-वहाँ उनसे मिलने, वहाँ-वहाँ की स्मृतियों को ताजा करने।
जो पुराने मित्र मिल जाएँ, जो पुराने चित्र उपलब्ध हो सके, उन्हें बटोरने। ग्वालियर वे इसी क्रम में आए थे। ग्वालियर में उनके पुराने मित्र, सहपाठी और हमराज आदित्य प्रकाश जौहरी थे- कमला राजा कन्या महाविद्यलय में जो बोल-चाल में के.आर.जी. कहलाता था, उनकी पत्नी उमा जौहरी प्राचार्या थीं। उमाजी जितनी सुंदर थी, उतनी ही शालीन। जितनी विदुषी थी, उतनी ही व्यवहार कुशल।
वे मूलतः उमा खन्ना थीं, आदित्य प्रकाश जौहरी से विवाह कर वे जौहरी हो गई थी। शायद उन्हीं जैसी किसी को देख कर महाकवि देव ने लिखा होगा- रूप तो खत्रानी को। वे कम बोलती पर जब वे बोलतीं तो उन्हें सुनने के लिए सब चुप हो जाते। साहित्य की प्रेमी, वे फ्रेंच की जानकार थीं, अँग्रेजी की तो वे, खैर, प्राध्यापिका ही थीं। हिन्दी कथा साहित्य की अद्यतन पुस्तकें पढ़ने का उन्हें शौक था। आदित्य प्रकाश जौहरी उनके पति- चैंबर ऑफ कॉमर्स के सचिव थे, बेहद खुश मिजाज, खुश पोशाक। मजाक मिजाजी उनकी रग-रग में थी।
बच्चनजी आदित्यजी को भैया कहते, उमाजी को दीदी। 'नीड़ का निर्माण फिर' बच्चनजी ने अपने जिन मित्रों को समर्पित की है उनमें से एक आदित्य प्रकाश जौहरी भी हैं। वे 'मधुशाला' के प्रारंभिक प्रशंसकों में थे, 'मधुशाला'और मधुकलश की कविताओं की मूल पाँडुलिपियाँ उनके पास सुरक्षित थीं। व्यवहारिक मजाक करने में वे बड़ा मजा लेते। नए वर्ष के दिन उन्होंने मेरी पत्नी साधना के नाम एक बड़ा-सा गिफ्ट पैकेट भेजा। बड़े सुंदर रैपर में लिपटा हुआ, डिब्बे के भीतर डिब्बा, उसके भीतर तीसरा डिब्बा।
अंतिम भीतरी डिब्बे में एक करम कल्ला था और जौहरीजी का लिखा हुआ नोट था- नया वर्ष साधना को और कांतिकुमार को उतनी खुशियाँ दें जितनी पत्तियाँ इस करम कल्ले में हैं। यह तो खैर कुछ भी नहीं था, बच्चनजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि एक बार आदित्य ने अपनी मँगेतर (उमा खन्ना) के बारे में यह अफवाह फैला दी थी कि वह बच्चनजी से प्रेम करती है और बच्चनजी उन्हें भगाकर ले जाना चाहते थे। उमा जी बताती थीं कि इस अफवाह से बड़ा भ्रम फैला था और बेचारे बच्चन भी काफी दिनों तक उनसे कतराते रहे थे पर आदित्य को इससे कोई फरक नहीं पड़ा था। मुझे याद है कि जब बच्चनजी ग्वालियर आए और जौहरियों के यहाँ ठहरे तो उमादित्य ने उनके सम्मान में बड़ा शानदार डिनर दिया था।
असल में भव्यता आदित्यजी का गुण था और सुरुचि उमाजी का। दोनों के संयोग से इस दंपति के सारे काम बड़े शानदार हो जाते थे। वे रहते थे सिंधिया की बनवाई हुई पैलेसनुमा कोठी में, उन्होंने बड़ा शानदार बगीचा लगा रखा था, हिरण और मोर पाल रखे थे। एक बिच भी थी- बन्नी नाम की। बच्चनजी के सम्मान में आयोजित डिनर में जो लोग आमंत्रित थे, उनमें अटलबिहारी वाजपेयी थे, डॉ. हक्सर और श्रीमती ललिता हक्सर थीं, हम दोनों थे।
एक मालतीजी भी थीं। कहानियाँ लिखती थीं जो सरिता में छपती थीं। मँझोले कद की गदबदी, आकर्षक, बड़ा अच्छा शरमातीं। मैंने महाविद्यालय के सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रभारी के रूप में बच्चनजी से अगले दिन छात्राओं के सम्मुख कविता पाठ का आग्रह किया, तो उन्होंने यह कह कर उसे टाल दिया था मैं इस समय अपनी आत्मकथा की सामग्री के संग्रह की जिस मानसिकता से यहाँ आया हूँ- कविता पाठ से वह मानसिकता बिखर जाएगी और कविता पाठ के बाद मैं और कोई काम नही कर पाऊँगा। उन्होंने न उमाजी की बात मानी थी,न आदित्यजी की।
जौहरीजी बढ़िया शराब के शौकीन थे, खुद पीते, अभ्यागतों को इसरार कर करके पिलाते। अटलबिहारी जी को भी उनके इसरार के आगे झुकना पड़ा था। पुरुषों के लिए शैपेन थी, महिलाओं के लिए जिन। बच्चनजी ने न शैंपेन ली, न जिन। उनके लिए कोका कोला मँगवाया गया था, अभिताभ का जब मलेरिया बिगड़ गया था और दिनों दिन उनकी हालत खराब होती जा रही थी तो उन्होंने शराब से तर्क कर लिया था। अभिताभ उसी दिन से ठीक होने लगे थे। शराब से तर्क करते समय उन्हें बाबर और हुमायूँ याद आए थे। तब से उन्होंने शराब छुई भी नहीं थी- जौहरियों ने भी उनसे आग्रह नहीं किया था।
इसी गोष्ठी में आदित्यजी ने अटलजी से सहसा पूछ लिया था- आप इतने बड़े नेता है और एक महिला को वश में नहीं कर पा रहे। उनका इशारा इन्दिराजी की तरफ था। अटलजी मुस्कुराए- अपनी अँगुलियाँ नचाते हुए बोले- क्यों आदित्य, यह तुम्हारा कौन-सा पैग है। आदित्यजी ने सच ही कहा- चौथा। तब ठीक है। तब तुम्हारा यह पूछना बिल्कुल वाजिब है। बच्चनजी ने इस मित्र संवाद का पूरा आनन्द लिया। वे इन्दिराजी को भी जानते थे, अटलजी को भी और आदित्यजी को तो, खैर, बखूबी जानते थे। अटलजी का उत्तर सुनकर बच्चनजी ने उनके कंधे पर हाथ रखा- वाह! क्या जबाव दिया है। कवि हृदय वाजपेयी जी हमेशा से थे, बाकायदा कवि भले उन्हें इन्दिराजी की इमरजेंसी ने बनाया हो।
इस डिनर का एक वाकया और याद आता है। आदित्यजी चौथा पेग ले चुकेथे। सहसा उन्हें मालतीजी की साड़ी पर एक चींटा चलता हुआ दिखा, साड़ी पर कहना स्थिति की गलत बयानी ही कही जाएगी। चींटा साड़ी पर चल रहा था, आदित्यजी ने उसे देख लिया था, वे प्रतीक्षा में थे कि चींटा चलता-चलता माउंट एवरेस्ट तक आ जाए। वह आया भी- वाम शिखर पर। आदित्य जी जोर से बोले- हम लोगों के रहते एक चींटे की यह जुर्रत कि वह मालतीजी पर चढ़ जाए और उन्होंने दाहिने हाथ की तर्जनी से उस चींटे को नीचे गिरा दिया था- यह एक बार में नहीं हुआ था- शायद दो-तीन बार जौहरीजी को ऐसा करना पड़ा था।
मालतीजी शरमायीं थी- शायद कुछ प्रसन्न भी हुई हों। बच्चनजी यह दृश्य देख रहे थे।- यह महान दृश्य है, की मुद्रा में। शायद वे आदित्य से कुछ खफा भी थे- यह दुस्साहस तो उन्हें करना चाहिए था पर आदित्यजी को अपनी पत्नी उमा का भय नहीं था, बच्चनजी को अपनी 'दीदी' का खयाल था। उमा दीदी के कारण और अतिथि होने के कारण भी जो काम करने में बच्चनजी को संकोच हो रहा था, आदित्य प्रकाश जौहरी उसे बड़े निःसंकोच भाव से कर रहे थे। उन्हें चींटे से कोई रकाबत नहीं थी, वह तो निमित्त भर था। मैंने चौगान में पोलो के खिलाड़ी को कई बार अकेले ही घोड़ा कुदाते देखा है। खिलाड़ी, घोड़ा, मौसम या चौगान में से एक को वरीयता देनी हो तो मैं चौगान को ही 'लॉंक' करना चाहूँगा। यहाँ चौगान जौहरीजी को पसंद आ गया था और वे मैदान में डटे हुए थे।
हम लोगों को उमाजी ने उस रात कुछ जल्दी ही आ जाने को कहा था। बच्चनजी से परिचय कराने के उद्देश्य से और उन्हें 'नीड़ का निर्माण फिर' के लिए अभीसिप्त सामग्री के प्राप्ति स्थलों की चर्चा करने के लिए। जब मैं साधना के साथ वहाँ पहुँचा तो कोठी के बाहरी वाले ऊँचे चबूतरेनुमा प्राँगण में कुर्सियाँ लगी हुई थी, बच्चनजी, उमाजी और आदित्यजी वहाँ बैठे हुए थे, बच्चनजी बन्नी को लाड़ कर रहे थे।
उमाजी ने परिचय कराया- ये कान्तिकुमार हैं, हमारे महाविद्यालय में हिन्दी के नए प्राध्यापक होकर आए हैं। बच्चनजी को कुछ याद आया- अच्छा, अच्छा- ये तो वहाँ कहीं बस्तर में थे, इन्होंने जगदलपुर से मुझे एक पत्र लिखा था- 'नागिन' नामक कविता के अर्थ को लेकर। जगदलपुर में जब मैं पहुँचा तो वहाँ मेरे पहले के प्राध्यापक महोदय बच्चनजी की 'नागिन' कविता केवल आधी ही पढ़ा सके थे।
उन्होंने नागिन का संबंध तेजी जी से जोड़कर 'नर्तन-नर्तन कर नागिन मेरे जीवन के आँगन में' की जो अद्भुत व्याख्या की थी, वह मेरी व्याख्या से बिलकुल अलग थी। मैंने बच्चनजी को पत्र लिखा था और कविता का मर्म जानना चाहा था। बच्चनजी का पत्र आया था। -बाद में 'सतरंगिणी' के सातवें संस्करण में मयूरी और नागिन को लेकर उन्होंने लंबी व्याख्या की थी।
बच्चनजी मुझे जानते हैं, यह मेरे लिए पुरसुकून बात थी। इससे मेरी प्राचार्या की नजरों में मेरी प्रतिष्ठा बढ़ी थी। वे 'माध्यम' में प्रकाशित केशव पाठक पर मेरी लिखी लंबी समीक्षा से हालावाद विषयक मेरी स्थापनाओं से भी परिचित थे। हिन्दी में हालावाद का ही क्या, छायावाद का भी इतिहास आधा-अधूरा है। केशव पाठक को मैंने जबलपुर से निकालनेवाली 'प्रेमा' पत्रिका का 'स्टार पोयट' निरूपित किया था और यह भी लिखा था कि हिन्दी में हालावाद केशव पाठक के फाउनटेन पेन से झर कर आया।
बधानजी को उस लेख की भी याद थी। उन्होंने मेरी हौसलाअफजाई की। कहा- वह लेख काट कर मैंने अपनी फाइल में लगा लिया है। बच्चनजी खुले दिल के, कुंठा हीन, प्रसन्नचित व्यक्ति हैं, दूसरों का मान करने में, अपने से छोटो का मान बढ़ाने में सिद्ध। दूसरों को बड़ा बनाने की कला उन्हें आती थी। मैंने कहीं पढ़ा था कि बड़ा आदमी वो होता है जो अपने सामने बैठे छोटे-से-छोटे आदमी को बड़ा बनाता है। बच्चनजी में मुझे उस दिन यह बड़प्पन दिखा था, जो बाद में, उनसे पत्र व्यवहार होने पर, उनके निकट आने पर कभी कम नहीं हुआ।
बच्चनजी की हस्तलिपि बड़ी कलात्मक है, बड़ी बेलबूटेदार, सर्पिल, बिल्कुल लहेरिया सराय। पढ़ने में बड़ी दिक्कत होती। वे अपने काव्य की सर्पाकृति व्याख्या करने की ही पक्षधर नहीं हैं, अपनी लिखावट में भी सर्प के कुंडलों, उसकी बँकिमाओं का भी समावेश करते हैं- उनकी लिखावट पर उनके बचपन के गुरु विश्राम तिवारी का गहरा प्रभाव है। विश्राम तिवारी कहा करते थे-'धन अक्षर बिड़र पांती/ यहै आय लिखने की भांति।' अपनी हस्तलिपि में उन्हें अपने गुरु की आज्ञा पालन करने का ध्यान बराबर रखा। उनके पत्रों में सम्माननीय का स शुरू होता सिर नामे के साथ और खत्म होता शुभेच्छु वाली पँक्ति में।
उनके पत्र ऐसे लगते जैसे कागज पर बेलबूटे खुदे हुए हों। र, स, ई को वे ऐसा लिखते कि लगता उनका पत्र, पत्र नहीं, इश्क पेंचा का गमला हो। पत्र का प्रारंभ वे करते प के लिए ध से। मैं बहुत दिनों उनके इस प के लिए ध का अर्थ नहीं समझ पाया। ऐसा ही एक पत्र लेकर जब मैं आदित्य प्रकाशजी के पास पहुँचा तो वे बहुत हँसे- बोले- बच्चन को हर पत्र का उत्तर देने की आदत है। अपने पत्रों में वे काम की बातें तो विस्तार से लिखते हैं, औपचारिकताओं के लिए उन्होंने अपना एक तरीका ईजाद कर लिया है जैसे प के लिए ध य केवल प. ध.। उनके पत्रों में शुभकामनाएँ शुका बनकर आती हैं। आप कुछ समझे? नहीं न। प. के लिए ध. यानी पत्र के लिए धन्यवाद और शुका यानी शुभकामनाएँ।
बच्चनजी पत्रोत्तर में विलंब नहीं करते। इसका प्रमाण यह है कि पत्र का उत्तर देते समय उनके मेज पर जो भी लेटर पैड हुआ, उसी पर वे उत्तर भेज देते हैं। कभी मुझे उनका पत्र मिला तेजी बच्चन के पैड पर, कभी अमिताभ बच्चन के पैड पर। अमिताभ के पैड पर जब पत्र लिखते तो सी/ओ लिखना नहीं भूलते। अपना पता ठीक करने के लिए। मुझे लगता है कि अमिताभ के केअर ऑफ होने में उन्हें बड़ी तसल्ली मिलती। अमिताभ को वे अपने जीवन की सबसे सुंदर कविता कहते भी हैं।
उनके पोस्टकार्ड, अंतरदेशीय, पत्र कितने भी लहेरिया सराय हों, पता बिल्कुल साफ-साफ लिखा होता। पाठक तो धैर्यपूर्वक पत्र की इबारत पढ़ लेगा, पोस्टमैन को पता, ठिकाना समझ में नहीं आया तो पत्र सीधे डेड लेटर ऑफिस पहुँच जाएगा। उन्होंने कभी अपने जीवन को,अपनी कविता को, अपने पत्रों को, इतिहास के डी.एल.ओ. के लायक नहीं बनने दिया। उनके जीवन का, उनकी कविता का, उनके पत्रों का पता बिल्कुल साफ है, उनका गंतव्य सुनिश्चित है। वे इन तीनों को जहाँ पहुँचाना चाहते है, वे ठीक वहीं पहुँचते हैं। बिना भटके, बिना अटके।
साभार : वसुधा