पुस्तक के बारे में :
यह उपन्यास हिन्दू-मुस्लिम रिश्ते की मिठास और खटास के साथ समय की तिक्ताओं और विरोधाभासों का भी सूक्ष्म चित्रण करता है। उपन्यास के नायक का संबंध ऐसी संस्कृति से है,जहाँ संस्कार और भाषा के बीच धर्म कोई दीवार खड़ी नहीं करता। लेकिन शहर का सभ्य समाज उसे बार-बार यह अहसास दिलाता है कि वह मुसलमान है। और इसलिए उसे हिन्दी और संस्कृत की जगह उर्दू और फारसी की पढ़ाई करनी चाहिए थी। उपन्यास की नायिका यूँ तो व्यवहार में नमाज-रोजे वाली है लेकिन नौकरी के लिए किसी मुस्लिम नेता से हमबिस्तरी करने में उसे कोई हिचक भी नहीं होती।
पुस्तक के चुनिंदा अंश :
'प्रिंसिपल साहब की तीन लड़कियाँ थी और दो लड़के। यहाँ आते ही बड़ी लड़की एक पुलिसवाले से फँस गई। रिहाइश थाने की बगल में था। प्रिंसिपल साहब ने मकान बदला। मँझली लड़की मकान-मालिक के लड़के के साथ भाग गई। वह तो कुदरत का कमाल था कि सुबह होते-होते वापिस आ गई। घर की बात घर में रह गई। मगर प्रिंसिपल साहब ने फिर मकान बदल दिया और छोटी बेटी को गाँव पहुँचा दिया।
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'मगर मुझे यह नहीं मालूम था कि इस देश में कुछ ऐसे मुसलमान भी हैं जो हिन्दुओं से भी बदतर हैं। हिन्दू कम से कम गाय तो नहीं खाता, क्योंकि वह जानता है कि यह उसके धर्म के विरूद्ध है। लेकिन यह जानते हुए भी कि शराब पीना इस्लाम में हराम है, कुछ मुसलमान इस हराम चीज का सेवन करते हैं। जबकि कुरआन मजीद में एक-दो जगह नहीं बल्कि सैकड़ों आयतों में शराब पीने को हराम करार दिया गया है।
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'अब्बा जब बाजार से सौदा लाते थे तो हल्दी, धनिया, मिर्ची वगैरह सब कागज की पुडि़यों में बँधें हुए होते थे। अम्मा उन्हें खोल-खोल कर डिब्बों में डालती थी। कभी-कभी उनमें से कोई चीज किसी उर्दू के अखबार के टुकड़े में बँधी होती थी।
उस टुकड़े को अब्बा हमें देते और कहते, जाओ इसे तालाब में बहा आओ। और हम बहा आते थे। उर्दू को अब्बा निहायत पाक ज़बान मानते हैं।
समीक्षकीय टिप्पणी
'अपवित्र आख्यान' मौजूदा अर्थ केन्द्रित समाज और उसके सामने खड़े मुस्लिम समाज के अन्तर्बाह्य अवरोधों की कथा के बहाने देश-समाज की मौजूदा सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों का भी गहन चित्रण करता है। अब्दुल बिस्मिल्लाह उन चंद भारतीय लेखकों में से है, जिन्होंने देश की गंगा-जमनी तहज़ीब को काफी करीब से देखा है और उसे अपनी कहानियों और उपन्यासों का विषय बनाया है।
उपन्यास: अपवित्र आख्यान
लेखक : अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 176
मूल्य: 225 रु.