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अब बड़ी घटना उद्वेलित नहीं करती

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- ओम ठाकु
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इधर वातावरण इतना अगंभीर और संवेदन शून्य हो चला है, कि अपने समय की विडंबनाओं पर किए गए व्यंग्य पाठक में कोई हरकत पैदा नहीं करते। मानो, जो घट रहा है वह सामान्य ही नहीं, बहुत जरूरी है और उसके बगैर जीवन के होने का जैसे कोई अर्थ ही न हो। कभी शहर, कस्बे, गाँव में हुई छोटी-सी घटना पूरे परिवेश को दहला देती थी।

महीनों नहीं सालों तक वह बात मन-प्राण-चेतना में बजती-गूँजती थी। किंतु आज बड़ी से बड़ी घटना हममें कोई बेचैनी, चिंता या वैचारिक-मानसिक उद्वेलन पैदा नहीं करती। दूसरी ओर यह भी कि आज खूबलिखा जा रहा है और प्रकाशित हो रहा है, बगैर यह सोचे कि हर विधा का अपना आत्मतत्व और अपना सौंदर्य होता है। इसी कारण शायद अच्छी रचना की तलाश पाठक के लिए निरंतर मुश्किल हुई जा रही है।

ऐसे में अशोक 'अंजुम' के 'जाल के अंदर जाल मियाँ' गजल संग्रह पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार का स्मरण आना बहुत स्वाभाविक है। दुष्यंत कुमार ने हिन्दी गजल के लिए एक रास्ता बनाया था। 'अंजुम' को उस पर डगमग ही सही, चलते देख अच्छा लगता है। अपने वक्त के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक चरित्र के मुखौटे को भाषा की साधारणता में उघाड़ना आसान नहीं, मगर 'अंजुम' इस दिशा में सक्रिय हैं। इसके साथ ही कवि हास्य-व्यंग्य में अभिव्यक्ति के गिरते स्तर और श्रोताओं की मानसिकता को लेकर भी चिंतित है। अपनी पीड़ा के इजहार में वह कहता है- 'नाथ, कविता में मिलाओ चुटकुले/ आज तुलसी से कहे रत्नावली।'

वैसे तो भारत बाहर वालों के लिए सदियों से एक बहुत बड़ा चरागाह रहा है, मगर यहाँ कवि द्वारा सलाह के रूप में कही गई बात इसलिए सोचने को विवश करती है कि आज तो बागड़ ही खेत खा रही है। गलत नहीं है कि आज नेताओं से लेकर आम भारतीय की मानसिकता अवसर परस्ती की हो गई है- 'सब यहाँ चर रहे भारत को/ तू भी मौका मिले तो चर बेटा।' चुनाव के अवसर पर भारतीय वोटर की सरलता के परिप्रेक्ष्य में नेताओं के चारित्रिक छद्म को भी कवि ने खूब पहचाना है- 'पाँच सालों तक घाव देते रहे/ आज आए कि सहला गए भेड़िये।'

जनतंत्री देश के नेताओं के कथनी-करनी के अंतर को कवि बोलचाल के लहजे में कुछ इस प्रकार व्यक्त करता है- 'जब-जब हमने बात अहिंसा की की/ तब-तब छलका खून, बोलिए- हाँ भई, हाँ' 'अंजुम' की कविताएँ मंच के सर्वथा अनुकूल हैं।
  'अंजुम' को उस पर डगमग ही सही, चलते देख अच्छा लगता है। अपने वक्त के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक चरित्र के मुखौटे को भाषा की साधारणता में उघाड़ना आसान नहीं, मगर 'अंजुम' इस दिशा में सक्रिय हैं।      
पुस्तक के फ्लैप पर दर्जनभर पत्र-पत्रिकाओं की टिप्पणियाँ इस बात की संकेतक हैं कि कवि 'अंजुम' पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ लेखन कर्म में सक्रिय हैं

* पुस्तक : जाल के अंदर जाल मियाँ
* लेखक : अशोक अंजुम
* प्रकाशक : संवेदना प्रकाशन, कासिमपुर, अलीगढ़
* मूल्य : रुपए 100

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