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अशोक महान की माँ की कहानी

पुस्तक समीक्षा

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हमें फॉलो करें अशोक महान की माँ की कहानी
निर्मला भुराड़िया
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'सिकन्दर ने पोरस से की थी लड़ाई तो मैं क्या करूँ?' आमतौर पर इतिहास में ऐसी अरुचि दिखाई पड़ती है। अधिकांश लोगों को इतिहास नीरस, शुष्क और तथ्यों से भरा विषय लगता है जबकि इतिहास तो वर्तमान की नींव का पत्थर होता है। इतिहास बोध तत्कालीन सामाजिकता को परिपक्व बनाता है। अतः इतिहास को सामान्य जनमानस का प्रिय विषय बनाने के लिए जरूरी है कि इसे रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाए।

कथाकार शरद पगारे अपने साहित्य के माध्यम से यही कर रहे हैं। गुलारा बेगम, बेगम जैनाबादी एवं अन्य कृतियों के बाद श्री पगारे का ताजातरीन उपन्यास 'पाटलीपुत्र की साम्राज्ञी' आया है। चूँकि श्री पगारे इतिहास के जानकार भी हैं और कथाकार भी हैं अतः यहाँ सही तथ्यात्मकता के बावजूद शुष्कता की छुट्टी है। ऐतिहासिक तथ्य कथा के माध्यम से कहे गए हैं और चरित्रों के माध्यम से उपस्थित हैं।

मौर्य सम्राट अशोक महान के नाम से सभी परिचित हैं। सिनेमा, टीवी, प्रिंट हर माध्यम ने अपने-अपने ढंग से अशोक मौर्य के बारे में कहा है। अशोक के पिता राजा बिंदुसार का भी जिक्र कहीं न कहीं आता है। मगर अशोक की माँ कौन थी इस बारे में इतिहासज्ञ लगभग मौन ही रहा है। इस मौन को तोड़ा है इस कृति 'पाटलीपुत्र की साम्राज्ञी' ने। इसके जरिए हम अशोक की माँ धर्मा से परिचित होते हैं। धर्मा विदुषी है और सुंदरी भी। महत्वाकांक्षी धर्मा राजनीतिक चालें चलने में भी सिद्धहस्त है। अशोक के ओजस्वी व्यक्तित्व की निर्मात्री भी वही होती है और उसे सिंहासन दिलाने वाली भी वही।

यह उपन्यास नंद मौर्य काल की राजनीतिक गाथा है, साथ ही उस काल का समाज, उस काल का जनजीवन भी उपन्यास में सजीवता से प्रस्तुत किया गया है। धर्मा की कथा के साथ ही धर्मा की दो सखियों एवं राजनर्तकी चंद्रलेखा की कथाएँ भी उपन्यास में समान्तर चलती हैं। नंद वंश के पतन और चाणक्य के उदय का आख्यान भी यहाँ है।

मौर्यकालीन नगर पाटलीपुत्र, तक्षशिला, काशी, कौशम्बी के साथ ही उज्जयिनी, महिष्मति, ओंकारमांधाता यानी आज के उज्जैन, महेश्वर और ओंकारेश्वर भी अपने उस काल की सज-धज के साथ उपन्यास में मौजूद हैं और हाँ, नदी नर्मदा भी। हालाँकि उपन्यास में अशोक की कलिंग विजय और बाद में हृदय परिवर्तन के साथ ही बौद्ध धर्म को ग्रहण करने की गाथा नहीं है, क्योंकि उपन्यास की विषयवस्तु माँ धर्मा की मदद से अशोक के राज्यारोहण पर ही समाप्त हो जाती है। मगर अशोक की पत्नी देवी और पुत्र व पुत्री महेन्द्र व संघमित्रा के बौद्ध धर्म में रुझान का वर्णन है जिससे यह स्पष्ट होता है कि अशोक के बौद्ध हो जाने की भूमिका कैसे बनी होगी। कलिंग युद्ध में हुई हिंसा तो अशोक के भीतर बैठे इस भाव को जाग्रत करने का माध्यम बनी होगी।

उस काल का जातिवाद, उस काल की मान्यताएँ, नगर वीथी, राजप्रासाद, वाहन, उस समय के मदिरालय सभी के दृश्य उपन्यास में खींचे गए हैं। इस तरह के विषयों में कपोल कल्पना के भीतर भी ठोस तथ्य का कोई ‍बिंदु होता है या यूँ कहें कि यह तथ्य को कल्पना से जीवित करने की कला है।

ऐतिहासिक उपन्यासों के लिए इसी कला का संधान करना होता है। उपन्यास की पूर्व पीठिका में इसी बात को इंगित करते हुए लेखक लिखते हैं, 'ईसा पूर्व के भारतीय इतिहास में अनेक प्रामाणिक साक्ष्यों का अभाव है। जो सामग्री मिलती है वह अपूर्ण एवं टुकड़ों में पूर्वकालीन, समकालीन तथा उत्तरकालीन जैन, बौद्ध तथा हिन्दू ग्रंथों एवं पुराणों में बिखरी है। उस उपन्यास को लिखने में इस बिखरी हुई सामग्री का उपयोग किया गया है। साथ ही आधुनिक इतिहासकारों ने जो प्रामाणिक शोध मौर्य युग के इतिहास पर प्रणीत किए हैं, उनकी सहायता भी ली गई है। इसका उद्देश्य ऐतिहासिक तथ्यों, सत्यों का यथासाध्य उपयोग किया जाना है।'

लेखक का कहना है, 'बालक के व्यक्तित्व एवं चरित्र निर्माण में माँ का योगदान सर्वाधिक होता है। विश्व इतिहास के पहले महान सम्राट अशोक इसके अपवाद नहीं थे। इस उपन्यास के माध्यम से धर्मा के इसी योगदान को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है।'

उपन्यास - पाटलीपुत्र की साम्राज्ञी
लेखक - शरद पगारे
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य - 693 रुपए

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