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ऐसी फाँस जो अच्छी लगे

- राजीव सारस्वत

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आमतौर पर फाँस शब्द का इस्तेमाल ज्यादातर बुरे या नकारात्मक नज़रिए से ही होता है जैसे गले की फाँस हो जाना या फाँस लगना, लेकिन मेरे हाथ जो ये फाँस लगी (मुझे चुभी नहीं) है इसने वाकई जैसे 'फाँस के मायने बदलकर सकारात्मक कर दिए। संपादक राज केसरवानी ने अपने सद्य: प्रकाशित लघुकथा संग्रह 'फाँस' में ग्यारह कथाकारों को जुटाकर उनकी कुछ चुनिंदा लघुकथाओं को पुस्तककार करने का मुश्किल बीड़ा उठाया है ‍जिसमें वो बखूबी कामयाब हुए हैं।

इस भागदौड़ भरे युग में जब दुनिया एसएमएस और ईमेल समेटने में लगी हो। साहित्यिक प्रकाशन जैसे दुष्कर कार्य हो गया है। मुझे अलवी साहब का वो शेर याद आ गया -

शायरी करता है अलवी वो भी ऐसे दौर में,
आदमी अच्छा है मगर अब क्या करें नादान है'।

कुछ यही कमाल इस किताब में हुआ है। फटाफट फूड के युग में तुरत-फुरत खत्म हो जाने वाली लघुकथाएँ व्यवहारिक और पठनीय लगती है। मगर खूबी यही है कि 'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' को चरितार्थ करती ये 'मिनी-कहानियाँ' भले ही पलों में पढ़कर खत्म हो जाती हैं। मगर ये भीतर तक गहरा असर देर तक, दूर तक छोड़ जाती हैं जो लेखक-संपादक की कामयाबी है। पुस्तक की शुरुआत में हिन्दी लघुकथा का सिंहावलोकन भी दिया है जो लघु कहानियों के इतिहास का लेखाजोखा पेश करता है।

संकलन की पहली ही कहानी 'पितृ-प्रेम' (सुरेश शर्मा) 'हांडी के चावल' की तर्ज़ पर आगे पढ़ने को आकृष्ट करती है। प्रताप सिंह सोढ़ी की लघुकथाएँ अपेक्षाकृत लंबी हैं उनकी सबसे छोटी कहानी 'मौत' है और मुझे वही वज़नी लगी। मुझे याद आ रहा है कहीं पढ़ा था कि 'गलती' दुनिया की सबसे छोटी लघुकथा है (उसकी गलती यही थी कि उसके साथ बलात्कार हुआ था और वह जान बचाने थाने में चली गई थी)। मेरे विचार से कविता हो या कहानी-अच्छा होने के लिए लंबाई मायने नहीं रखती।

अगली पायदान पर 'अभीप्सा' (डॉ. प्रमथनाथ मिश्र) वाकई सोचने पर विवश करती है। डॉ. योगेंद्रनाथ शुक्ल के 'तनाव', 'सहमति' और 'चूक' की तुलना में 'कद' ठीक है। इसके बाद अनंत श्रीमाली की कहानियाँ हैं श्रीमाली मूलत: व्यंग्यकार हैं। समाज की विद्रूपताओं को बारीकियों से पकड़ने में कामयाब रहे हैं जिसका नज़ारा 'सत्संग' में हो जाता है। 'नज़रिया' हिंदी साहित्य की दशा का कड़वा घूँट सा है तो 'ब्रश' भी झकझोरता है।

हरीश पंड्‍या की संवेदना डॉ. सतीश शुक्ल का 'छोटा सा दान' ध्यान खींचता है, रमेश मनोहरा का 'तमाशा' ज्यादा मज़मा नहीं जुटा सका। डॉ. लीला धुलधोये का 'धर्म' उपदेश देता सा लगा, बाकी कहानियाँ लंबाई के बावजूद कुछ लुभा नहीं पाईं। प्रभा पांडे 'पुरनम' ने 'कला' में अच्छी कथा बुनी है।

अंतिम संस्कार पी.आर.वासुदेवन 'शेष' की 'भूख' प्रभावित करती है लेकिन इससे भी बड़ी सुखद अनुभूति यह देती है कि चेन्नई के इस तमिलभाषी का हिन्दी पर कितना अच्छा प्रभुत्व है और मुझे फिर से इस वक्तव्य पर यकीन होने लगता है 'हिंदी जब भी आएगी दक्षिण से आएगी'।

संयोग से पुस्तक का मूल्य 110 रुपए है और इसमें कहानियाँ भी 110 हैं। इस लिहाज से भी देखें तो सौदा महँगा नहीं बहुत सस्ता है। कुल मिलाकर संग्रह को संग्रहणीय की श्रेणी में रखा जा सकता है।

पुस्तक : फाँस
संपादक : राज केसरवानी
प्रकाशक : राष्ट्रीय हिंदी सेवी महासंघ
डी-1989, सुदामा नगर,
इंदौर 452009
मूल्य : 110 रु.

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