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कोई भी दिन : कहानी संग्रह

स्याह धब्बों को उकेरती कहानियाँ

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कृष्ण कुमार भारती
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पँखुरी सिन्हा की कहानियों को बहुत कुछ व्यक्त करने वाली कहानियाँ कहा जा सकता है। निःसंदेह पँखुरी का पहला कहानी संग्रह 'कोई भी दिन' आधुनिक जीवन की कई ज्वलंत समस्याओं की पड़ताल करता है। पँखुरी की कहानियों में एक तरफ जहाँ परंपराओं के विघटन के दृश्य स्वाभाविक रूप में आए हैं, वहीं सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक विसंगतियों व विद्रूपताओं पर भी वे सार्थक बहस के कुछ विषय अपने प्रबुद्ध पाठक वर्ग के सम्मुख रख छोड़ती हैं।

आधुनिकता व परंपरा का वैषम्य, पत्रकारिता में गिरता मूल्यों का स्तर, रंगभेद व नस्लभेद, परतंत्रता व स्वतंत्रता की राजनीतिक समानताओं का जिक्र, राजनीति के भ्रष्ट आचरण से जुड़े ज्वलंत प्रश्न, आस्था व अनास्था के प्रश्न, अन्तर्जातीय विवाह, स्त्री जीवन की व्यथा कथा, गाँव से जुड़ी यादें आदि जीवन के लगभग सभी रंग-बदरंग इस कहानी संग्रह में अपने तटस्थ व निष्पक्ष रूप में अभिव्यक्त हुए हैं।

आधुनिकता व भौतिकता की आँधी गाँवों तक पहुँच चुकी है और उसने गाँव के निश्छल व सौम्य वातावरण में भी जहर घोल दिया है। 'तालाब कहो या पोखर' कहानी गाँवों के शहरों में तब्दील होने के फलस्वरूप उत्पन्न हुई समस्याओं को दर्शाती है। गाँवों को शहरों में तब्दील करने के हमारे उतावलेपन ने हमें मुसीबत में डाल दिया है।

गाँव के तालाब को भरकर घर बना दिए गए, जिसके कारण गाँव में बाढ़ आ गई। 'ये घर तालाब को भरकर बने हैं। जो पानी पहले तालाब में लुढ़क जाता था वह अब घरों के अन्दर फैल रहा है। जमीन आखिर कितना पानी सोख सकती है! और खाली जमीन भी कितनी बची है....' पंक्तियाँ आधुनिक सभ्यता की उस विडम्बना को दर्शाती है जिसमें कि मानव प्रकृति का अंधाधुंध शोषण कर रहा है और प्रकृति से ऐसी छेड़छाड का नतीजा प्राकृतिक आपदाओं के रूप में भुगत रहा है।


'कहानी का सच' शीर्षक कहानी पत्रकारिता जगत के रहस्यों को उजागर करती है। छोटे से कथानक में सिमटी यह कहानी बेहद आवश्यक विषय को उठाने में सफल रही है। टीआरपी की होड़ ने विकास पत्रकारिता का दमन कर दिया है। आज न्यूज वैल्यू के मायने बदल गए हैं। ' देखो नीरज, आयुर्वेद, हकीमी इन सबकी बुरी हालत हो रही है। पर ये खबर नहीं है।

'बहुत साल बाद' शीर्षक कहानी स्वतंत्रतापूर्व व स्वातंत्र्योत्तर भारत की परिस्थितियों के तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी आम आदमी की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। रिश्वतखोरी व भ्रष्टाचार, रंगभेद व नस्लभेद ज्यों के त्यों बने हुए हैं।

कहानी में एक स्वतंत्रता सेनानी को स्वयं को स्वतंत्रता सेनानी सिद्ध करने के लिए इतनी दौड़-धूप करनी पड़ती है कि अन्ततः हृदयाघात से उसकी मृत्यु हो जाती है। इसे स्वतंत्र व संप्रभु भारत के मुँह पर करारा तमाचा नहीं तो और क्या कहा जाए।

पँखुरी सिन्हा का यह कहानी संग्रह कई मायनों में महत्वपूर्ण बन पड़ा है। यहाँ भाषा का मिजाज बौद्धिक है, कहन का अंदाज निराला है। संग्रह आधुनिकता के चिकने चेहरे पर पुते स्याह धब्बों को उकेरता है वहीं भारत के तथाकथित लोकतंत्र व गणतंत्र की भी खबर लेता है।
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'बेघर लोग जो पहले जॉर्ज पंचम की मूर्ति के नीचे सोते थे, अब जवाहरलाल नेहरू की मूर्ति के नीचे सोया करेंगे। उन्हें क्या फर्क पड़ता है मूर्ति किसकी है।' पंक्तियाँ आजादी के बाद गरीबों की स्थिति को चित्रित करती है। पूरी की पूरी कहानी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के वे दृश्य प्रस्तुत करती है जो वस्तुतः पराधीन भारत के जैसे ही हैं।

'एक नास्तिक की आस्था' कहानी में एक अध्यापिका जो धर्म को श्रद्धा व आस्था का विषय मानकर धार्मिक दिखावे व आड़म्बर का विरोध करती है, उसे स्कूल प्रशासन धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों के हनन का अपराधी घोषित कर देता है। 'नास्तिक होना अनुशासनहीन भक्ति से अधिक मंगलमय है।

'मालती जी के विचार धर्म के सही-सही स्वरूप को व्याख्यायित करते हैं, लेकिन युवा पीढ़ी, जिसे सरस्वती वंदना भी ठीक से याद नहीं है, उनके इन विचारों की अनदेखी करती हुई धार्मिक आयोजनों को मनोरंजन व दिखावे का अवसर बना देती है। कहानी में कबीर व निराला जैसे क्रान्तिकारी व प्रगतिवादी कवियों के उद्धरण कहानी की प्रभावोत्पादकता में अभिवृद्धि तो करते ही हैं साथ ही कहानी जिस विषय को प्रमुखता से उठाती है, उस संदर्भ में भी प्रासंगिक बन पड़े हैं।

'सांत्वना' कहानी अन्तर्जातीय व अन्तर्धामिक विवाह के प्रति परंपरागत समाज की धारणा व उसमें बदलाव की कहानी है। 'अपने पराए' में विदेशों में कार्यरत भारतीय युवाओं का संवाद है, जो दिखलाता है कि नस्लभेद केवल विदेशों में ही नहीं अपितु भारत में ही भारतीयों के साथ भी होता है।

'प्रदूषण' शहरी कामकाजी महिलाओं की समस्याओं को रेखांकित करती है। कहानी अंग्रेजी शब्द 'कजिन' के निहितार्थों को समझाते हुए आधुनिक युग में रिश्ते-नातों के खोखले व भद्देपन का भी पर्दाफाश करती है।

'अकेला पर्यटन और अकेली पूजा' कहानी में विदेशों में बसे भारतीय युवकों के दोगले चरित्र का चित्रण किया गया है। साथ ही कहानी आज के संबंधों में दिखावेपन को भी दर्शाती है। विकसित होने का यह मतलब थोड़े ही हुआ कि आदमी मृतप्राय हो जाए। न जोर से बोले न जोर से गाए, न बजाए।'

कहानी विकसित होती मानव सभ्यता से लुप्त होते जा रहे जीवन मूल्यों के साथ-साथ यह भी बयान करती है कि यहाँ तो ऐसी चुप हर समय लगी रहती है कि लगता है कि आदमी श्मशान में रह रहा हो।' 'बेलगाम रेस' में नारी की पीड़ा व पुरुष के अत्याचारों का लेखा-जोखा है। 'आवाजें' अपने शहर व माँ से जुड़ी यादों की भावात्मक कहानी है। संग्रह की शीर्षक कहानी 'कोई भी दिन' तर्कहीन अंधविश्वास पर चोट करती है।

इस प्रकार पँखुरी सिन्हा का यह कहानी संग्रह कई मायनों में महत्वपूर्ण बन पड़ा है। यहाँ भाषा का मिजाज बौद्धिक है, कहन का अंदाज निराला है। संग्रह आधुनिकता के चिकने चेहरे पर पुते स्याह धब्बों को उकेरता है वहीं भारत के तथाकथित लोकतंत्र व गणतंत्र की भी खबर लेता है। कहानियाँ ज्यादा कहने की ललक व वैचारिकता के बोझ तले दबी अवश्य हैं परंतु उनमें निहित संदेश महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक है।

पुस्तक : कोई भी दिन
लेखिका : पँखुरी सिन्हा,
प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ,
मूल्य : 50 रुपए
पृष्ठ संख्या : 142

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