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खाकी में इंसान : पुलिस पर नजर

पुस्तक समीक्षा

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विवेकानंद झा
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मुंबई में 26/11 के आंतकवादी हमले में शहीद हुए आईपीएस अधिकारी अशोक काम्टे के बैचमेट और वर्तमान में सीआरपीएफ के ग्रेटर नोएडा रेंज के पुलिस महानिरीक्षक अशोक कुमार की पुस्तक 'खाकी में इंसान' एक ऐसे आईपीएस अधिकारी की छटपटाहट व्यक्त करती है जो हमारी पुलिस को अधिक मानवीय और संवेदनशील बनाने की मुहिम में पिछले करीब बीस वर्षों से जुटा है।

यह किताब अमन-शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए औसतन रोज 13 घंटे की ड्यूटी बजाने वाले तथा यूनियन बनाने और हड़ताल करने जैसे प्रजातांत्रिक अधिकारों से वंचित पुलिस को 'ठुल्ला' कह देने के चलताऊ नजरिए से आहत एक ऐसे जांबाज के अनुभवों का संवेदनशील और रसात्मक ब्योरा है जो किसी को भी बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा से लबरेज कर सकता है।

यह किताब सूचनापरक तो है पर अशोक कुमार द्वारा किए गए कार्यों का सरकारी लेखा-जोखा, आत्मकथा या अनुसंधान नहीं है। इलाहाबाद से लेकर कुमाऊँ और गढ़वाल परिक्षेत्र के तराई इलाकों तक विभिन्न पदों पर कर्त्तव्यपालन करते हुए इस आईपीएस अधिकारी ने अपने प्रशंसनीय और बेदाग करियर में जो अनुभव बटोरे हैं उसे उसने 'लीक से हटकर - इंसाफ की डगर', 'पंच परमेश्वर या...' 'भू- माफिया' 'तराई में आतंक की दस्तक', 'जेलर जेल में', 'अंधी दौड़', 'दहेज और कानून' और 'पुलिस : मिथक और यथार्थ' जैसे 16 शीर्षकों के तहत व्यक्त किया है।

तराई क्षेत्र में एक आतंकवादी के पिता की व्यथा सुनने के बाद लेखक की प्रतिक्रिया कि चाहे...आतंकवादियों की बहनें या बेटियाँ ही क्यों न हों उनके भी सम्मान एवं मर्यादा की रक्षा की जानी चाहिए..., पूरी किताब में गुंफित इस अंतर्कथा पर पूर्ण विश्वास पैदा करती है कि हर समस्या को मानवीय दृष्टिकोण से देखा-समझा जा सकता है।

आतंकवाद के गर्भ से निकली कई और मानवीय त्रासदियों की चर्चा के क्रम में लेखक महसूस करता है - 'एक बिंदु पर आकर मूलभूत मानवीय आवश्यकताएँ, अहसास और त्रासदियाँ आतंकवादियों और पुलिस दोनों के परिवारों के लिए एक समान थीं। मैंने सोचा मौत और मौत का डर एवं उससे लाई गई तबाही सभी के जीवन पर एक ही सा प्रभाव छोड़ती हैं।'

हरियाणा के एक छोटे से गाँव में पैदा होने और दुनिया के सर्वश्रेष्ठ तकनीकी संस्थानों में से एक आईआईटी, दिल्ली में पढ़ने का मौका पाकर लेखक ने खूब समझा कि भारतवर्ष दो परस्पर विरोधी धाराओं में विकसित हो रहा है। ऐसे में उसने देश के सामने मुँह बाए खड़ी ढेर सारी समस्याओं को खत्म करने की चुनौती को स्वीकार करने का फैसला किया।

आईपीएस की ट्रेनिंग के दौरान अकादमी में खाने-पीने, पहनने-सँवरने के साहबी तौर-तरीकों में दिखाई पड़ती सामंती प्रवृत्ति के समानांतर लेखक ने बुंदेलखंड क्षेत्र में रैपिड रूरल एप्रेजल के तहत देखा - 'क्षेत्र में चारों तरफ गरीबी और हताशा का साम्राज्य नजर आता है। बांदा की लाल मिट्टी, दूर-दूर तक फैले हुए एल्यूमिनियम के पिचके कटोरों की तरह के खाली मैदान, चरम हताशा और अकेलेपन का रोना रोती हुई अभावग्रस्त झोपड़ियाँ, युगों-युगों से अपने लिए कोई सहारा खोजती काँटेदार वनस्पतियाँ और उनके हमशक्ल इंसान।'

जाहिर है, लेखक की अपने पूरे करियर में कोशिश रही, 'मैं प्रत्येक पीड़ित की समस्या ध्यान से सुनूँ, उसकी पीड़ा को इंसान के नजरिए से महसूस करूँ और उसको थाने एवं कोर्ट-कचहरी के अनावश्यक दाँव-पेचों में फँसने से बचाकर जल्दी से जल्दी न्याय दिलवाऊँ। अनुभवों से उसने जाना, 'अच्छी पुलिस व्यवस्था की अगर किसी को जरूरत है तो वह ऐसे लोगों को जो न तो किसी प्रभावशाली व्यक्ति की कृपा के पात्र हैं और न ही जिनके पास खर्च कर सकने के लिए पैसा है।'

पूरी पुस्तक मानवीय संवेदना में आई खामियों की पड़ताल के वक्त दोष मढ़ देने की सहज वृत्ति की जगह खामियों को खत्म करने की दृढ़ इच्छाशक्ति और कुछ कर दिखाने के जज्बे को सलाम करने की प्रगतिशील प्रेरणा की बुनियाद पर खड़ी दिखती है। भाषा और संपादन के स्तर पर किताब में कमियाँ रह गई हैं पर अमानवीय त्रासदियों से हर वक्त रूबरू होती विषयवस्तु के सामने असंगत नहीं दिखती।

पुस्तक : खाकी में इंसान
लेखक : अशोक कुमार(साथ में लोकेश ओहरी)
प्रकाशक : बुक वर्ल्ड
मूल्य : 195 रुपए

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