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खानाबदोश ख्वाहिशें : भटकी स्त्री की

नारी का तोड़ना, उसका टूटना भी है

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शुचि पाण्डे
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युवा लेखिका जयंती रंगनाथन का तीसरा उपन्यास 'खानाबदोश ख्वाहिशें' स्त्री-जीवन को केंद्र में रखकर लिखा गया है। पुस्तक समाज के विशिष्ट वर्ग में स्त्री की अलग-अलग छवियों को रेखांकित करती है। सामाजिक नियमों-बंधनों का प्रतिकार करती केंद्रीय पात्र निधि हो या सामाजिक व्यवस्था के दमघोंटू माहौल में अपने अस्तित्व की तलाश करती प्रतिरूपक पात्र बिंदिया या इन दोनों के बीच एक नई राह से निकलती पात्र सुफला हो।

इन तीनों पात्रों में भिन्नता के बावजूद एक बात सामान्य है और वह है भटकाव। भटकाव इन तीनों पात्रों के चरित्र की केंद्रीय विशेषता है। कथा का आरंभ निधि का अपने परिवार के प्रति आक्रोश और इस आक्रोश से उत्पन्न विद्रोही भावना के चलते अपने प्रेमी शिवम्‌ की नाजायज इच्छाओं की पूर्ति को ही जीवन का लक्ष्य बना लेने से होता है। वह समाज-परिवार से असंतुष्ट है। निधि समाज की दी हुई व्यवस्था को उस बंधे-बंधाए ढाँचे को तीव्रता से तोड़ तो देती है लेकिन इस टूटन के बाद वह दिशाहीन है।

अपने अस्तित्व, इच्छाओं, आकांक्षाओं के लिए विद्रोह स्त्री के लिए सकारात्मक कदम है लेकिन अगर विद्रोह के बाद कोई सार्थक विकल्प सामने न हो तो यह स्थिति भटकाव पैदा कर देती है, निधि के साथ भी वही हुआ। अपनी संवेदना का परिचय देते हुए लेखिका ने बहुत ही खूबसूरती से आसपास की घटनाओं को रचनात्मकता प्रदान की है, जिससे पाठक अभिभूत होंगे। स्त्री जीवन के स्वप्न और आकांक्षाएँ होती हैं लेकिन उस स्वप्न और आकांक्षाओं को पाने के लिए संघर्ष की जरूरत होती है, भटकाव से कुछ हासिल नहीं होता।

यह उपन्यास यही प्रतिपादित करने का प्रयास कर रहा है कि भटकाव ही स्त्री जीवन की एकमात्र सच्चाई है। यह उपन्यास हमारे समय की एक कड़वी सच्चाई से रूबरू कराता है कि इस समाज में स्त्री के लिए अपने स्पेस की तलाश कितना दुष्कर कार्य है क्योंकि यह पूरा समाज स्त्री को देह से अलग एक मानवीय अस्तित्व के रूप में स्वीकार कर ही नहीं पाता।

पुस्तक का नामः खानाबदोश ख्वाहिशें
लेखकाः जयंती
प्रकाशनः सामयिक प्रकाशन
मूल्यः 250 रुपए

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