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घोषणाओं का वसंत : सटीक व्यंग्य

पुस्तक समीक्षा

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हमें फॉलो करें घोषणाओं का वसंत : सटीक व्यंग्य
ओम भारती
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'घोषणाओं का वसंत' प्रसिद्ध व्यंग्यकार अतुल चतुर्वेदी का दूसरा व्यंग्य संग्रह है। 'आरक्षण', 'पटरी और जिन्न', 'वो दंगाए हुए दिन', 'बच्चे रैली और देश', 'भावनाएँ डिस्काडंट सेल पर', 'पुलिसियाने में क्या हर्ज है', 'तबादलों की आई बहार', 'राग असंतुष्टि', 'पानी वसंत के नाम', 'आए दिन चुनाव के', 'थप्पड़ों का महापर्व', "जाएँ तो जाएँ कहाँ" आदि शीर्षक बयान कर देते हैं कि अतुल अपने लेखन हेतु किन विषयों, प्रसंगों को प्राथमिकता प्रदान करते हैं।

हर काल में कुछ विषय हैं जिन पर लिखा-बोला जा सकता है। हास्य-व्यंग्य की कला समकालीनता को यहाँ-वहाँ से निरंतर कुरेदती है। इस तरह की रचना परंपरा में ही यह एक और व्यंग्य संकलन है जो अपने उद्देश्यों में अपने ढंग से सफल कहा जा सकता है। संवेदनात्मक रूप से यथार्थ का आकलन करना हर विवेकी लेखक का ध्येय होता है। चित्रण करता है तो पहले उसकी अपनी आँख, असली आँख को ही कैमरे का 'व्यू फाइंडर' होना होता है। अतुल क्रमशः इस ओर बढ़ते प्रतीत होते हैं। इन रचनाओं से सूचित सामर्थ्य-संभावनाओं के आधार पर उनसे उम्मीद की जा सकती है।

पुस्तक में उस कर्मचारी तबके पर निशाना है जिसे काम में दिलचस्पी नहीं है, किंतु वह वेतन आयोग में उलझा जीव जरूर है। 'हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे' वाला समाज है। नेता, कवि, मतदाता, पुलिस, दंगे, बम जैसी कुछ जिंसें हैं, जो हास्य व्यंग्य लिखनेवालों की जबर्दस्त माँग का सामना करती ही हैं। अतुल चतुर्वेदी ने भी 'घोषणाओं का वंसत' के सौ के आस-पास पृष्ठों में व्यंग्य को उन्हीं पर केंद्रित किया है।

साधु-संतों की एक कोटि भी उनके व्यंग्य बाण झेलती है, जो ढोंगी है, पाखंडी है। 'उधर बाहर सामान्य जन धक्के खा रहे थे, इधर महात्मा जी तबादलों के महायज्ञ में अपनी समिधाएँ अर्पित कर रहे थे।' मंत्रियों व साधु-संतों का अपवित्र गठबंधन यहाँ अतुल के कुठार के प्रहार में आ जाती है।

लेखक की नजर मध्यवर्ग के सुविधा भोगी बिगड़ैल बच्चे भी देखती है-'खुदा का शुक्र है कि उसमें आपके हमारे बच्चे नहीं थे। वे तो साइबर कैफे में चैटरत थे। उन्हें देश को आगे जो बढ़ाना था।' तो जहाँ वह अपने पर भी चोट करने का साहस दिखाता है, वहीं 'चैटरत' पीढ़ी देश की प्रगति में सहायक नहीं, यह पीड़ा भी व्यक्त कर देता है।

व्यंग्य के अभ्यस्त, प्रेमी पाठकों के लिए एक और खुराक की तरह है यह संकलन। इन व्यंग्यों की भाषा में अंग्रेजी शब्दों का छौंक पर्याप्त है। मेरा ख्याल है कि हमें अंग्रेजों के बूट में हिंदुस्तानी पैरों को ठूँस-ठूँस कर भरने की चाह से बचना चाहिए। अतुल शब्दों से खेलते हैं-'हमें विवेकानंद, भगतसिंह, सुभाष नहीं, नए 'आइकॉन' चाहिए। जिनके न आई हो, न कान।'

थोड़ी मशक्कत करनी होगी पाठक को कि आइ को आई यानी आँख की अंग्रेजी माने, मैं की अंग्रेजी नहीं। जब वे लिखते हैं-'इन दिनों भावनाओं का डिस्काउंट सेल चल रहा है', तब पाठक सोच सकता है कि भावनाएँ उसके भीतर ही हैं या उसे बाजार से खरीदनी पड़ती हैं। भाषिक खिलवाड़ से हास-परिहास तो रचा जाता है, व्यंग्य को कुछ और की दरकार होती है। अतुल के भविष्य के लेखन पर निगाह रहेगी।

पुस्तक : घोषणाओं का वसंत
लेखक : अतुल चतुर्वेदी
प्रकाशक : विवेक पब्लिशिंग हाउस, जयपुर
मूल्य :125 रुपए

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