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चाँद में अटकी पतंग

परंपरा से लाभ उठाने की क्षमता वाला कवि

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विश्वनाथ त्रिपाठी
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राकेश रंजन की कविताएँ वैसी नई और अलग ढंग की नहीं हैं जैसा कि कविताओं की समीक्षा करते समय या फ्लैप लिखते समय कह दिया जाता है। कविताओं की भाषा की शब्दावली नई, काव्य-भाषा के रूप में अपरिचित और प्रयोग-उपयोग में नई है। एक-एक कविता पढ़ना नई अनुभव सरणि में से गुजरना है। अनुभव को शब्द एवं लय में बाँधते हुए दिक्कत यह होती है कि वह भाषा में बंधने से इंकार करके छिटककर अलग अनबंधी रह जाती है- निराला ने इसे वह 'भाषा-छिपती छवि' कहा है यानी छवि भाषा से या भाषा में छिपी रह जाती है।

साधक कवि ऐसी भाषा और लय की खोज कर लेते हैं कि अनुभव भाषा में समा जाए और प्रकट हो जाए। आजकल हिंदी के कवि छंद और लय को साधने के बजाय दृश्य-बिंबों पर अधिक भरोसा करते हैं। इस तरह वे कभी-कभी अच्छी कविताएँ भी लिख लेते हैं। राकेश रंजन ने कविता रचने में ऐसा रास्ता पा लिया है या ईजाद किया है कि दृश्य-बिंबों को भाषा छंद और लय में बाँध लिया जाए। उनकी वय और रचना वय को देखते हुए यह सुखद आश्चर्य की बात है। नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय की परंपरा से लाभ उठाने की क्षमता रखने वाला यह कवि हिंदी कविता के लिए नई आशा जगाता है।

भूमंडलीकरण, विषमता, विसंगति की पहचान अपने क्षेत्रीय जीवन दृश्यों और भाषा में व्याप्त होती है। तब वे जीवन दृश्य विश्वसनीय और पहचान में आने वाले होते हैं। हिंग्लिश या अपनी पहचान खोकर विज्ञापनी आधुनिकता में लपकती हुई भाव-भंगिमा झूठी होती है। राकेश रंजन ने क्षेत्रीयता के भदेसपन का उपयोग करके स्थिति के क्रूर व्यंग्य को अंकित किया है। एक कविता है 'नीरो, वंशी और रोम' नीरो वंशीवादक है। रोम के 'दिव्य देह महंतों' को रात्रिभोज देता है।

कंजलोचनों से मुस्कराते हुए उनका स्वागत करता है। सुरोचक चिताएँ जलवाता रहता है और बचे-खुचे भूखे-नंगे बेजान-बेजुबान किसानों-मजदूरों-दासों को जिंदा जलवाता रहता है। तृप्त, संतुष्ट दिव्य-देह-महंत प्रस्ताव में नीरो को महान शासक बताते हैं, वंशीवादक कला में प्रवीण। नीरो की क्रूरता लोगों के ध्यान में नहीं रहती, उसकी महानता में रोम विभोर रहता है।

पूरी कविता हमारे दौर की पूंजीवाद-साम्राज्यवाद द्वारा नियमित प्रजातंत्र की क्रू रता का चित्र हो बुश और भगत के वर्तमान शासकों के ताल-मेल में जुटे बुद्धिजीवी सामने आ जाते हैं। इतिहास की एक घटना मिथक के रूप में वर्तमान का सार प्रकट करती है। 'अंधेरे में' कविता की परंपरा में लिखी हुई। तत्सम पदावली व्यंग्य भाषा में।

'अंधेरे में' के बाद एक और कविता 'पूंजीवाद के प्रति' से मुक्तिबोध की याद आती है। कविता है 'तू आतंक'। मुक्तिबोध ने भी पूंजीवाद को 'तेरा' कह कर संबोधित किया। कवि जैसे शाप देता है या चेतावनी कि "तेरा अंत" निश्चित है। राकेश रंजन की कविता में तीव्र घृणा है आतंक के प्रति तू के साथ। तू इस लायक नहीं कि तुझे अपनी कविता का विषय बनाऊँ। कवि की नहीं यह कविता की घृणा है 'तुझ पर कैसी कविता थू आतंक।'

कवि की रचनाधर्मिता का वास्तविक क्षेत्र ग्रामीण भारत के नैसर्गिक सौंदर्य का सहज दृश्यांकन है। त्रिलोचन के धूप में जग रूप सुंदर, सहज सुंदर को याद कीजिए किंतु यहां प्रकृति प्रदत्त रंगों और प्राणियों की चेष्टाओं के सजीव बिंबों के डिटेल्स राकेश रंजन के हैं। साहसिक नए। विशेषण और शब्द संयोग, दृश्य विधान ऐसे कि पहले की कोई कविता नहीं याद आएगी कि ऐसी कोई कविता कभी पढ़ी है। सिर्फ प्रकृति और प्राणियों का परस्वर मिलत साक्षात जीवन खंड दिखलाई पड़ेगा और यह आस्वाद बोध कि कविता जीवन तो नहीं होती लेकिन जीवन का सुख और दुख भी दे सकती है और बाँट सकती है।

फागुन की फरहर फुलवारी में / फूले हैं, फूल गात पिल्लों में / बकरी की आँख-सरिस धूप में / चैन भरे बिचर रहे मेमने। 'पिल्लों के फूल गात' पर अपने जरूर ध्यान दिया होगा।

पुस्तक : चाँद में अटकी पतंग
लेखक : राकेश रंजन
प्रकाशक : प्रकाशन संस्थान
मूल्य : 200 रुपए

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