यह एक सहज रूप से प्रस्तुत निबंध संग्रह है। जिसमें बीस से कुछ ज्यादा निबंध हैं। इस संग्रह की खासियत है इसका संस्मरणनुमा होना। पढ़ते-पढ़ते आपकी आंखों के सामने अपने आप चित्र से आते जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे बचपन में बायस्कोप के शीशे पर आंख लगाने पर आते थे। अंतर सिर्फ इतना कि यहां आपकी कल्पना असीमित है उसमें बाइस्कोप की सीमित स्लाइड्स वाली रोकथाम नहीं।
नर्मदाप्रसाद उपाध्याय ने 'तुम नहीं दिखे नगाधिराज' के जरिए निबंधों को चलित शब्द दिए हैं। चलित इसलिए कि पन्ने दर पन्ने इन निबंधों में गुंथे शब्द भी आपके सहयात्री हो लेते हैं। उपाध्यायजी के निबंधों में सामाजिक सरोकार भी हैं, बड़े साहित्यकारों के 'बड़े होने' का असल विश्लेषण भी और तमाम क्यों तथा कैसे से परे जाकर हावी होती भावनाओं की तस्वीर भी।
कहीं-कहीं तो यह निबंध खांटे यात्रा वृत्तांत बन जाते हैं लेकिन फिर निबंध की अपनी गति पकड़ लेते हैं। खुद लेखक के शब्दों में-'सोचता हूं यह निबंध भी तो एक झुटपुटा है। धूप के अनुभव में घुली हुई संवेदना का ऐसा झुटपुटा जिसके सिंदूरी अनुभवों से कभी मुक्त होने का मन नहीं करता। ऐसा सिंदूरी, दूधिया धुंधलका जिसमें सबकुछ साफ दिखाई देता है। लेकिन फिर भी जिसे लोग धुंधलका कहते हैं।" संग्रह के सभी निबंधों में भाषा का यही प्रवाह आपके साथ आगे बढ़ता चला जाता है।
और अंत में जब आप 'अम्मा' को पढ़ते हैं तो अपनी दादी या मां को खोजने लगते हैं। भले ही उनके देश, काल या परिस्थितियों में अंतर रहा हो लेकिन आखिरकार तो यह भावना सर्वोच्च है ही जो औरत का सहज औरत होना सार्थक करती है। पुस्तक को पढ़ने के बाद शायद अगली बार आपको बस स्टैंड पर खड़ी किसी भी बुजुर्ग महिला में अपनी दादी या मां का अक्स नजर आने लगे और कुछ क्षणों के लिए आपका मन तरलता से भर जाए, तमाम दौड़ती-भागती चीजों के बीच।
पुस्तक : तुम नहीं दिखे नगाधिराज लेखक : नर्मदाप्रसाद उपाध्याय प्रकाशक : मेघा बुक्स, एक्स 11, नवीन शहादरा, दिल्ली, 110032 मूल्य : 250 रुपए