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नंदीग्राम डायरी : आत्मश्लाघा का नमूना

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सुधीर सुम
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नंदीग्राम में सत्ता किसानों के साथ जिस बर्बरता से पेश आई उसने वामपंथ की छवि को बहुत नुकसान पहुँचाया है। पत्रकार पुष्पराज के अनुसार उन्होंने नंदीग्राम में इस दौरान भूमिगत पत्रकारिता की और 'नंदीग्राम की यात्रा से लौटकर' यात्रा के एक-एक पल को डायरी में दर्ज किया।

हालाँकि 'नंदीग्राम की डायरी' जिस अंदाज में लिखी गई है उससे पता नहीं चलता कि वे कितने दिन वहाँ रहे और कितने दिन बाहर। पुष्पराज डायरी के आखिरी दो पृष्ठों पर इस सवाल से जूझते हैं कि उनसे नंदीग्राम पर लिखने का मकसद क्यों पूछा जा रहा है, उन पर फारेन फंडिंग से साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए लिखने और माओवादी पत्रकार होने तथा कोलकाता से दिल्ली हवाई जहाज में जाने वाला क्यों बताया जा रहा है?

जहाँ तक इस डायरी का मकसद है, तो यह डायरी नंदीग्राम में बलत्कृत औरतों के प्रति ज्यादा संवेदित दिखती है हालाँकि अपनी डायरी में वे यह जानने की 'कोशिश' करते हैं कि जिनके साथ बलात्कार हुआ है, वे महिलाएँ हतोत्साहित होने की बजाय ज्यादा आक्रामक होकर बलात्कारी को खोजने-ढूँढने, पकड़ने-पीटने में क्यों लगी है?'

जब खुद बलत्कृत महिलाओं के लिए 'इज्जत कपूर की पुड़िया नहीं है, जो गुंडों को फूँकने से उड़ जाए' तो लेखक इससे ज्यादा परेशान क्यों है। दरअसल, नंदीग्राम की महिलाएँ जमीन बचाने के लिए लड़ रही हैं और बलात्कार उनके मनोबल को कमजोर करने की मंशा से प्रेरित है, वे यह जानती हैं। मालूम नहीं लेखक इसे कितना समझ पाया है!

पुष्पराज ने नंदीग्राम की जो कथाएँ कहीं हैं, उनमें सीपीएम पूरी तरह खलनायक है, उनमें किसानों का जीवट, धर्म के पार उनकी एकजुटता, स्त्रियों का जागरण सबकुछ है लेकिन आपत्तिजनक यह लगता है कि लेखक भारी आत्ममुग्धता और उद्धारक भाव से भरा हुआ है।

कुछ इस तरह का भाव है कि संघर्ष की इन अंदरूनी जानकारियों को हमने उजागर किया, वर्ना दुनिया को पता नहीं चलता। पुष्पराज ने 10 नवंबर को हुए तीसरे जनसंहार का जिक्र करते हुए बताया है कि राष्ट्रीय मीडिया में यह बात नहीं आई। इसके बाद वे राजनीतिक पार्टियों की सत्तालोलुपता, बाजारवाद के साथ-साथ मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग को निशाना बनाते हैं।

उन्हें लगता है कि 'गुजरात के दंगों के बाद धर्मनिरपेक्षता का जो चेहरा उभरकर सामने आया, वह नंदीग्राम के सवाल पर चुप रह गया।' क्या धर्मनिरपेक्षता का जो चेहरा है वह महज सीपीएम समर्थक है? और क्या बुद्धिजीवियों ने पूरे देश में इसका विरोध नहीं किया?

इस डायरी में असंगत और गैरजरूरी उदाहरणों, उपमाओं और तथ्यों की भी भरमार है। भाकपा (माले) के महासचिव दीपंकर का बयान, संदीप पांडेय का गोरखपुर के डीएम को हटाने संबंधी बयान, मास्टर साहब किताब के बारे में महाश्वेता देवी का कथन या बाढ़ को बीबीसी द्वारा दैवी आपदा कहा जाना इसकी बानगी हैं कि लेखक जो सुनता है और लिखता है, उसके तथ्य और संदर्भ के प्रति गंभीर नहीं है।

संशय होता है कि यही अगंभीरता रिपोर्टिंग में भी न हो! सीआरपीएफ के अधिकारी जिस लहजे में उसे जानकारियाँ देते हैं, वह भी दिलचस्प है। महाश्वेता देवी बंदर बेचती थीं या महिषादल में हिंदी कवि निराला का बचपन गुजरा था, इस तरह के अवांतर प्रसंग डायरी को अगंभीर बनाते हैं।

माओ की तस्वीर देखकर यह कहना कि सीपीएम को माओ पसंद हैं माओवादी नहीं या इस तरह के उदाहरण देना जब अरुंधति राय के घर पर कोई गोली दागने का हक नहीं रखता तो मुक्तिपद मंडल के घर पर गोला-गोली बरसाने का हक किसी हरमात वाहिनी को क्यों, बड़ा बचकाना लगता है।

संसद में प्रियरंजन दास मुंशी ने कामरेड सीताराम येचुरी की बोलती बंद कर दी, यह कौन सी भूमिगत रिपोर्टिंग है? देश की आबादी की सहानुभूति नंदीग्राम के प्रतिरोध करने वाले किसानों के साथ है, लेकिन इस सहानुभूति को लेकर देश भर में कोई बड़ा किसान आंदोलन खड़ा करने या नंदीग्राम से पूरे देश के किसानों को दिशा देने का स्वप्न देखने वाले किसी भी लेखक या पत्रकार को उतावलेपन, आत्मश्लाघा और अगंभीरता से बचना चाहिए। इस डायरी को जरा सचेत ढंग से संपादित करना चाहिए था।

पुस्तक : नंदीग्राम डायरी
लेखक : पुष्पराज
प्रकाशक : पेंगुइन बुक्स, नई दिल्ली
मूल्य: 250 रुपए

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