संस्कृतियों की जितनी विभिन्नता भारत में देखने को मिलती है, वह दुनिया में और कहीं भी संभव नहीं। हमारा देश इस मामले में आकूत संपदा का मालिक है। यहाँ के विभिन्न अंचलों की सांस्कृतिक विरासत और मीठी बोलियाँ इस संपन्नता का बखान करती हैं। ऐसा ही एक अंचल है निमाड़। जो गन्नों और केले के साथ ही मिर्ची के लिए भी प्रसिद्ध है और इसका यही तीखा-मीठा स्वाद इसके साहित्य में भी झलकता है।
निमाड़ी बोली में रचे लोकगीत तथा कहावतें और कहानियाँ एक अनोखे सौंधेपन का एहसास कराते हैं। निमाड़ी साहित्य ने पिछले वर्षों में कई पड़ाव पार किए और कई प्रयोगों को भी अपने में समोया। आज इस बोली में व्यंग्य तथा कविताओं से लेकर निबंध तथा कहानियाँ रचने वाले कई नाम राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हैं। इस संपन्न साहित्य की गाथा का ही वर्णन उपरोक्त पुस्तक 'निमाड़ी साहित्य का इतिहास' में किया गया है।
लोककथाओं और गीतों के जरिए प्राचीन समय से कहा और सुना चला आ रहा साहित्य निमाड़ का असली रूप प्रस्तुत करता है। इसके जरिए न केवल प्राचीन समय के लोगों तथा जीवनशैली का परिचय प्राप्त होता है बल्कि साहित्य में हुए नए-पुराने आविष्कारों-प्रयोगों को भी करीब से जानने का मौका मिलता है। पुस्तक को उसी दृष्टि से 6 अध्यायों में बाँटा गया है।
इनमें निमाड़ी के उद्भव तथा उसके स्वरूप पर चर्चा करने के अलावा स्थानीय संतों द्वारा किए गए साहित्य के प्रयोग, आधुनिक तथा समसामायिक साहित्य एवं विशेष तौर पर गद्य के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। इसके साथ ही पुस्तक में विभिन्न निमाड़ी साहित्यकारों एवं शोध सामग्रियों के बारे में भी जानने का मौका मिलता है।
मराठी एवं गुजराती भाषा तथा राजस्थानी बोली का मिश्रण निमाड़ी में ध्वनित होता है। इसके लोकगीतों में भी उक्त तीनों ही की अद्भुत मिठास प्रतिध्वनित होती है। निमाड़ी साहित्य वैसे भी खासतौर पर लोकगीतों के लिए ही जाना जाता है।
परंपरागत गीत इसकी पहली पहचान हैं। इनमें संतों द्वारा गाए जाने वाले भक्ति गीत तथा जनसाधारण द्वारा गाए जाने वाले विभिन्न त्योहारों तथा महत्वपूर्ण अवसरों के लिए रचे गए गीत मुख्य तौर पर शामिल हैं। निमाड़ में हुए कई संतों के रचे दोहे-चौपाइयाँ सामान्य होते हुए भी जीवन-दर्शन की गहरी झलक दे जाते हैं। इसका एक उदाहरण देखिए-
"हेत प्रीत की राबड़ी, मिलकर पीजे वीर। हेत बिना काळू कहे, कड़वी लागे खीर ॥"
यह संत सिंगाजी के पुत्र संत काळूजी का कहा दोहा है। जिसका मतलब है- प्रेम से पिलाई गई राबड़ी (एक प्रकार का मक्के तथा छाछ का व्यंजन) भी मिल-जुलकर पीने से स्वादिष्ट लगती है लेकिन बिना स्नेह के परोसी गई खीर भी कड़वी लगती है।
इसके अलावा बच्चों के मनोरंजन तथा नीति-कथाओं का भी समृद्ध भंडार निमाड़ी साहित्य अपने अंक में समेटे हुए है। प्रस्तुत पुस्तक इन सभी के बारे में रोचक तथा विस्तृत जानकारी देती है।
पुस्तक : निमाड़ी साहित्य का इतिहास लेखक : डॉ. श्रीराम परिहार प्रकाशक : साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश सांस्कृतिक परिषद, भोपाल मूल्य : 100 रुपए