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मुड़-मुड़ कर देखते राजेन्द्र यादव

राजकमल प्रकाशन

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पुस्तक के बारे में
कथा-जगत का जाना पहचाना नाम है -राजेंद्र यादव। वर्तमान में जीने की जिद ने ही उन्हें कथा जगत के शीर्ष तक पहुँचाया है। लेकिन वर्तमान में जीने वाले की स्मृतियों में भी अतीत के चित्र उभरते हैं। कभी स्फुरण के रूप में तो कभी कसक के रूप में। राजेंद्र यादव खुद को स्मृतिजीवी नहीं मानते लेकिन इस पुस्तक में उनके अतीत से जुड़े ऐसे चेहरे हैं जिनकी उनके वर्तमान के निर्माण में किसी न किसी तरह की हिस्सेदारी है। कुछ छूट गए और कुछ रूठ गए संबंध हैं तो छूटने और रूठने के कारण भी हैं। पाठकों को निश्चित रूप से राजेंद्र यादव का मुड़-मुड़कर देखना पसंद आएगा।

पुस्तक के चुनिंदा अं
'मन्नू आरोप लगाती है कि मैं जिम्मे‍दारियों और जिंदगी से भागता हूँ 'मुझे लगता है, मैं जिंदगी से नहीं, जिंदगी में भागता हूँ। इसलिए मुझे भीड़भाड़, बड़े शहर और वहाँ की कैलोडोस्कोपिक रंगबिरंगी जिंदगी बहुत पसंद है। कपड़े, खाना, सोना, गप्पें सभी कुछ पसंद है। जीवन का अच्छे से अच्‍छा रूप मोहता है, लेकिन बुरे से बुरे के साथ बिना खलिश निबाह किए जाता हूँ। चाहता हूँ, सारे संस्कारों को तोड़कर अपने को इस समंदर में निर्बाध छोड़ दूँ और सच्चे अर्थों में बोहेमियन-जिन्दगी जीकर देखूँ -यह क्या कि घर-बार बसाए, मध्यवर्गीय मू्ल्यों को सहलाते बैठे हैं।
('अपनी निगाह से')
***
मैं ही तो अकेला नहीं हूँ। सभी तो ऐसे ही डगमगाते कदमों से चलना सीखे हैं। सभी तो बचपन में नंगे, दुबले, हास्यास्पद और हीनता के मारे रहे हैं। फिर मुझमें ही ऐसा क्या कुछ विशेष रहा है, जिसे लेकर शर्म, संकोच या छिपाव महसूस किया जाए?

आज भी पाठकों को जानकर कुछ आश्वासन ही मिलेगा कि सभी जन्मजात, सिद्ध संगीतज्ञ नहीं होते। न जाने कितने सीधे-उलटे, कच्चे-पक्के रागों की भूलभुलैया में भटककर रास्ते तलाशे गए हैं। रियाजों और अभ्यासों के बाद विश्वास आया है। यह निहायत, सामान्य और सब जैसा होने का भरोसा ही अपने कच्चेपन को सामने लाने की हिम्मत देता है।
('मुड़-मुड़ के देखता हूँ')
***
एक 'घटिया एक्ट्रेस' और लगभग 'वेश्या' की छोटी सी आत्मकथा मेरे लिए किसी भी गीता से ज्यादा पूज्य है। एक बार धर्मतल्ला में पुरानी पुस्तकों को देखते हुए मेरी निगाह लिलियन रॉथ की इस आत्मकथा पर पड़ी। नाम था 'आई विल क्राई टूमॉरो'। बाद में इसी नाम से फिल्म भी आई। मैं चार-पाँच रुपयों में किताब ले आया।

लिलियन बहुत ही गरीब ‍'चवन्नियाँ रंडी' की बेटी थी, मुश्किल से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता था। तीन-चार साल की लिलियन जब भी माँ के साथ बाजार जाती तो हर चीज के लिए रोती और जिद करती। मगर माँ के पास इतने पैसे नहीं होते थे, वह झुँझलाती, पीटती और रोते हुए समझाती, बेटा आज नहीं, कल तुम्हें जरूर दिला दूँगी। अच्‍छा कल न दिलाऊँ तो रोना। आज चुप हो जाओ। लिलियन कहती है कि माँ का यह मंत्र ही मेरी जीवन-शक्ति बन गया।
(यह तुम्हारा स्वर मुझे खींचे लिए जाता)

समीक्षकीय टिप्पणी

राजेंद्र यादव की साफगोई देखनी-समझनी हो तो 'मुड़-मुड़ के देखता हूँ' में देखिए। उनके इस 'आत्मकथ्यांश' में जीवन की ऐसी सचाईयाँ भी उभर कर आई हैं जो प्राय: हम स्वीकार करने में हिचकते हैं। एक लेखक जब अतीत से टटोल-टटोल कर अपनी स्मृतियाँ, कुछ लम्हें पाठकों के सामने लाता है तो कितनी दिलचस्पी से पाठक उसे स्वीकार करता है यह पुस्तक के शिल्प पर निर्भर करता है। राजेन्द्र यादव स्पष्ट वक्ता हैं और लेखनी के जादूगर भ‍ी। इस पुस्तक को पाठकों का अच्छा प्रतिसाद मिलेगा, यह उम्मीद की जा सकती है।

आत्मकथा : मुड़-मुड़ के देखता हूँ
लेखक : राजेंद्र यादव
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 204
मूल्य : 195 रुपए

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