Dharma Sangrah

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

विचार मंथन को प्रेरित करते व्यंग्य

समीक्षक

Advertiesment
हमें फॉलो करें विचार मंथन
NDND
परिस्थितियों तथा व्यवस्थाओं से उपजा क्षोभ जब व्यंग्य की शक्ल में पन्नों पर उतरता है तो वह सरसता के साथ-साथ विचार-मंथन का भी स्वाद दे जाता है। यही कारण है कि व्यंग्य विधा हमेशा से लेखन के क्षेत्र में अपनी सशक्त उपस्थिति महसूस कराती रही है।

असल में व्यंग्य किसी भी मुद्दे से जुड़े प्रश्न उठाने के साथ उसके नकारात्मक पहलुओं को भी चुटीले अंदाज में बेनकाब कर जाता है। कुछ ऐसा महसूस होता है व्यंग्यकार शिव शर्मा का व्यंग्य संकलन 'अध्यात्म का मार्केट' पढ़कर। संकलन में 50 से भी ज्यादा व्यंग्य समाहित किए गए हैं और सभी में व्यवस्थाओं के स्तर पर होने वाली अनियमितताओं के अलावा ताजातरीन मुद्दों पर भी कलम चलाई गई है।

लेखक परंपरागत खामियों के अलावा अंतरराष्ट्रीय पटल पर चल रहे घटनाक्रम को भी संकलन का हिस्सा बनाते हैं। पुस्तक में व्यंग्य की शक्ल में प्रस्तुत किए गए विचार मंथन को प्रेरित कर जाते हैं। उदाहरण के लिए 'गाँव का फिल्मी सेट' रचना की कुछ पंक्तियाँ पढ़िए जिसमें किसी बड़े नेता या मंत्री के गाँव में आने से संबंधित स्थितियों पर कटाक्ष किया गया है।

' महामहिम राष्ट्रपतिजी गाँव आने वाले हैं। जब भी वे किसी बड़े नगर में जाते हैं तो गाँव अवश्य ही जाते हैं। उनकी चिंता है कि गाँव में भी शहर की सारी सुविधाएँ पहुँचाई जाएँ। अब अफसर रातों-रात तो ये सुविधाएँ पहुँचा नहीं सकते, अतः टेंट हाउस की सेवाएँ लेकर गाँव को... फिल्मों के गाँव की तरह चकाचक बना दिया...'। 'प्रदेश के मुख्यमंत्रीजी को भी 'गाँव से लेकर गाय, गोबर, गणेश तथा गुरु पंचम' से बहुत लगाव है। उन्हें पक्का विश्वास है कि इन पाँचों 'ग' के विकास से प्रदेश में रातोंरात रामराज्य आ जाएगा।'

पूरा गाँव बहुत प्यारा-प्यारा लग रहा है, जैसे ये गाँव नहीं, शहर हो! कार्यक्रम में अग्रिम पंक्तियों में ग्रामीण वेशभूषा पहनकर बैठे स्कूली बच्चे अँगरेजी में वार्तालाप कर रहे हैं। अतिथियों के भाषण पर वे रिदम के साथ तालियाँ बजा रहे हैं...।

खोजी पत्रकारों को ये बात समझ नहीं आ रही कि गाँव के इन बच्चों को इतना ज्ञान-विज्ञान कैसे प्राप्त हो गया? वे कार्यक्रम स्थल पर बनी पाकशाला के बाहर कतार से खड़े बच्चों से पूछ बैठे, 'आप लोग पांडाल में नहीं बैठे, यहाँ क्या कर रहे हैं?' बच्चों ने कहा- 'हमें तो जलेबी खाने का काम ही मिला था। अंदर बैठने का काम तो शहर से आए बच्चों को करना था न?'

संकलन में इसी तरह के चुटीले अंदाज़ में सवाल खड़े करते व्यंग्यों को पढ़कर पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता है। व्यवस्थाओं से जुड़े ये प्रश्न निरंतर सामाजिक तथा व्यवस्थागत खामियों की ओर इशारा करते नज़र आते हैं।

पुस्तक : अध्यात्म का मार्केट(व्यंग्य संकलन)
लेखक : शिव शर्मा
प्रकाशक : भारतीय पुस्तक परिषद्
175- सी, पॉकेट- ए, मयूर विहार, फेज-2
नई दिल्ली , 110091
मूल्य- 200 रु.

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi