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शिवानी की कलम से 'कृष्णकली'

सातवें सजिल्द संस्करण से साभार

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'कृष्णकली' के इस सप्तम संस्करण को अपने उन स्नेही पाठकों को सौंपते मुझे प्रसन्नता तो हो ही रही है, एक लेखकीय गहन सन्तोष की अनुभूति भी मुझे बार-बार विचलित कर रही है। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि यदि पाठकों को किसी भी कहानी या उपन्यास के पात्रों से संवेदना या सहानुभूति ही होती है, तो लेखनी की उपलब्धि को हम पूर्ण उपलब्धि नहीं मान सकते। जब पाठक किसी पात्र से एकत्व स्थापित कर लेता है, जब उसका दुख, उसका अपमान उसकी वेदना बन जाती है, तब ही लेखनी की सार्थकता को हम मान्यता दे पाते हैं।

जैसा कि महान् साहित्यकार प्लौबेयर ने एक बार अपने उपन्यास की नायिका मदाम बौवेरी के लिए अपने एक मित्र को लिखा था-'वह मेरी इतनी अपनी जीवन्त बोलती-चलती प्रिय पात्रा बन गई थी कि मैंने जब उसे सायनाइड खिलाया तो स्वयं मेरे मुँह का स्वाद कड़ुआ हो गया और मैं फूट-फूटकर रोने लगा।'

लेखक जब तक स्वयं नहीं रोता, वह अपने पाठकों को भी नहीं रुला सकता। जब 'कृष्णकली' लिख रही थी तब लेखनी को विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ा, सब कुछ स्वयं ही सहज बनता चला गया था।

जहाँ कलम हाथ में लेती उस विस्मृत मोहक व्यक्तित्व, को स्मृति बड़े अधिकार पूर्ण लाड़-दुलार से खींच, सम्मुख लाकर खड़ा कर देती, जिसके विचित्र जीवन के रॉ-मैटीरियल से मैंने वह भव्य प्रतिमा गढ़ी थी। ओरछा की मुनीरजान के ही ठसकेदार व्यक्तित्व को सामान्य उलट-पुलटकर मैंने पन्ना की काया गढ़ी थी। जब लिख रही थी तो बार-बार उसके मांसल मधुर कण्ठ की गूँज, कानों में गूँज उठती-

'जोबना के सब रस लै गयो भँवरा
गूँजी रे गूँजी...'
कभी कितने दादरा, लेद उनसे सीखे थे-
'चले जइयो बेदरदा मैं रोई मरी जाऊँ

या
'बेला की बहार
आयो चैत को महीना
श्याम घर नइयाँ
पलट जियरा जाय हो'

वही विस्तृत मधुर गूँज, उनके नवीन व्यक्तित्व के साथ, ' कृष्णकली' में उतर आई। आज से वर्षों पूर्व, जब 'कृष्णकली' धारावाहिक किश्तों में 'धर्मयुग' में प्रकाशित हो रही थी, तो ठीक अन्तिम किश्त छपने से पूर्व, टाइम्स ऑफ इण्डिया प्रेस में हड़ताल हो गई थी। पाठकों को उसी अन्तिम किश्त की प्रतीक्षा थी जिसमें कली के प्राण कच्ची डोर से बँधे लटके थे।

क्या वह बचेगी या मर जाएगी ?

उन्हीं दिनों मेरे पास एक पाठक का पत्र आया था, साथ में 500/- रुपये का एक चेक संलग्न था-' शिवानी जी, अन्तिम किश्त न जाने कब छपे-मैं बेचैन हूँ, सारी रात सो नहीं पाता। कृपया लौटती डाक से बताएँ कृष्णकली-बची या नहीं। चैक संलग्न है।' चेक लौटाकर मैंने अपने उस बेचैन पाठक से अपनी विवशता ' मानस' की इन पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त की थी-

'होई है सोई जो राम रचि राखा
को करि तर्क बढ़ावइ साखा'

ऐसे ही, लखनऊ मेडिकल कॉलेज के वरिष्ठ अधिकारी डॉ. चरन ने मुझे एक रोचक घटना सुनाई थी। एम.बी.बी.एस. की फाइनल परीक्षा चल रही थी। कुछ लड़के परीक्षा देकर बाहर निकल आए थे। थोड़ी ही देर में परीक्षा देकर लड़कियों का एक झुण्ड निकला। लड़कों ने आगे बढ़कर सूचना दीः 'कृष्णकली' मर ई।'

'हाय' का समवेत दीर्घ वेदना-तप्त निःश्वास सुन डॉ. चरन चकित हो गए। आखिर कौन है ऐसी मरीज, जिसके लिए छात्र-छात्राओं की ऐसी संवेदना है ? निश्चय ही मेडिकल कॉलेज में एडमिटेड होगी। बाद में पता चला वह कौन है।

आज इतने वर्षों में भी कली अपने मोहक व्यक्तित्व से यदि पाठकों को उसी मोहपाश में बाँध सकी है तो श्रेय मेरी लेखनी को नहीं, स्वयं उसके व्यक्तित्व के मसिपात्र को है जिसमें मैंने लेखनी डुबोई मात्र थी। अन्त में, मुनीरजान को मैं अपनी कृतज्ञ श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ। जहाँ वह हैं वहाँ तक शायद मेरी कृतज्ञता न पहुँचे, किन्तु इतना बार-बार दुहराना चाहूँगी कि यदि मुनीरजान न होती तो शायद पन्ना भी न होती और यदि पन्ना न होती तो कृष्णकली भी न होती।

शिवानी

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