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सब खोटों को खरी-खरी

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ओम भारती
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खोटे को खरी-खरी सुनाकर खरा करने की कोशिश और खरे को और ज्यादा चमकाने की प्रयत्नशीलता ही व्यंग्य की लक्षण और सरोकार है। पिछले चार दशकों के दौरान व्यंग्य के संवेदनशील रचनाकार और प्रवक्ता के रूप में जो बड़ा नाम उभरकर आया है, वह है गोपाल चतुर्वेदी।

किसी जमाने में कविताएँ लिखने वाले गोपाल चतुर्वेदी ने जब व्यंग्य का तेवर अपनाया तो उन्होंने कांता सम्मत भाषा और शैली तो अपनाए रखी मगर उसमें कटाक्ष और आलोचना जैसे रंग समेटते हुए। हाल में उनकी पुस्तक 'खरी-खोटी' प्रकाश में आई है।

इसकी संक्षिप्त भूमिका में गोपाल चतुर्वेदी लिखते हैं-'दुर्भाग्य से आजादी के छह से अधिक दशक बीत जाने के बाद भी भारतीय सियासत स्वतंत्रता संग्राम के बहुप्रचारित आदर्शों से कोसों दूर है। मुझे नहीं लगता है रचनात्मक लेखन इस खाई को पाट सकता है। यदि वह पाठकों को विसंगतियों, विरोधाभासों और बकवासों से परिचित कराने में समर्थ है तो इतना ही काफी है।

'खरी-खोटी' में गोपाल चतुर्वेदी की लगभग एक सौ दस से अधिक व्यंग्य रचनाएँ हैं। कहा जा सकता है कि यह अब तक का सर्वाधिक बड़ा व्यंग्य संकलन है। वास्तव में व्यंग्य का काम खोटों को खरी-खरी सुनाकर खरेपन की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देना भी है।

कुछ काम बहुत ही ज्यादा खोटे होते हैं उन पर खरी-खरी का भी असर नहीं पड़ता। वे तो खरे को भी खोटा सिद्ध करने की कला में पारंगत होते हैं। और खतरा भी ऐसे ही 'सज्जनों' से है। समय-समय पर प्रकाशित ये व्यंग्य 'आदमी और जंगल राज' से शुरू होकर 'अनूठे और टिकाऊ सरकार' पर समाप्त होते हैं।

इन छोटे-छोटे व्यंग्यों का विषय-वैविध्य देखते ही बनता है। दफ्तरी जीवन, वहाँ की टालमटोल भरी गहमा-गहमी, चापलूसपन से भरपूर दिनचर्या, राजनीति के हथकंडों, अंधविश्वासों की लहराती फसलों, धार्मिकता के पंडों और कुर्सी हथियाने के लिए चलने वाले डंडों की जीवंत तस्वीरें उकेरने का काम लेखन ने इन व्यंग्यों में किया है। भाषा इतनी सहज और लुभावनी है कि सीधे मन-मस्तिष्क में जगह बना लेती है।

हमारे समाज, हमारी राजनीति, हमारी अनैतिकता की जड़ों तक पहुँचकर ये रचनाएँ हमारा वास्तविक चेहरा दिखाने में सक्षम हैं। आकांक्षाओं ने जंगल में भटक से मनुष्य की सही तस्वीर इन व्यंग्यों की जान है।


पुस्तक : खरी-खोटी
लेखक : गोपाल चतुर्वेदी
प्रकाशक : विश्व विजय प्रा. लि. नई दिल्ली
मूल्य :68 रुपए

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