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सरकार का घड़ा : चोट करते व्यंग्य

पुस्तक समीक्षा

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हमें फॉलो करें सरकार का घड़ा : चोट करते व्यंग्य
, सोमवार, 11 अप्रैल 2011 (15:35 IST)
ओम भारती
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वरिष्ठ व्यंग्यकार यज्ञ शर्मा की 'सरकार का घड़ा' पुस्तक में उनके इकहत्तर लेख संकलित हैं। प्रिंट-माध्यमों में व्यंग्य विधा ने अपने लिए एक पूरा कालम न सही, आकर्षित करता एक कोना तो आरक्षित करा ही रखा है। बीते समय में हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के स्तंभों की जो ऊँचाई तथा लोकप्रियता थी, उसने बाद की पीढ़ियों के अनेक व्यंग्यकारों को ऊर्जा दी है जिसके चलते व्यंग्य साहित्य ने इस सदी में भी खासी 'स्पेस' कमा ली है।

यज्ञ शर्मा राजनीति, धर्म, आतंकवाद, देश, समाज, साहित्य और 'ग्लैमर' समेत कई हलकों से जनरुचि के विषय उठाकर उनपर अपनी कलम चलाते रहे हैं। लेखक के पास एक सधा हुआ व्यंग्य कौशल है। जिस ढंग से वे भारत के लोकतंत्र एवं उसके मध्यवर्गीय समाज की नजदीकी एवं बारीक पड़ताल करते हैं, वह अपने तेवर में ही नहीं, पारदर्शिता में भी सामान्य पाठक को आकृष्ट कर लेता है, उसका भरोसा जीत लेता है।

स्तंभ लेखन में प्रायः एक तयशुदा आकार होता है। जिसमें लेखक को अपनी बात बेहतर, प्रभावी, रोचक और संप्रेषणीय बनानी होती है। यज्ञ शर्मा के व्यंग्य सरल एवं संवादी हिंदी में हैं। इसमें हास्य के पुट हैं, शालीन विनोद है। कहीं-कहीं तो वक्रोक्ति खाली मारक भी है। जब वे ईश्वर की बात करते हैं तो बहुचर्चित ईश्वर श्रृंखला की छोटी कहानियों के कुशल किस्सागो विष्णु नागर याद आते हैं। तो यज्ञ शर्मा का स्तंभ लेखन सपाट न होकर पठनीय तथा प्रवाहमय भी है। कहीं आख्यान तो कहीं कथोपकथन उसे प्रभावी बनाता है।

बहुत बार पारंपरिक व्यंग्य लेखन के नक्श भी स्पष्ट हो आते हैं। प्रधानतः हमारे महादेव के नैतिक विनाश का, मूल्यों के पतन और क्षरण का प्रबोधन एवं दृश्यांकन इसमें है। लेखक भारत के नागरिक जीवन के बहुतेरे पक्षों को खोल पाया है। जैसी ऐसे स्तंभों से अपेक्षा की जा सकती है, लगभग चालीस प्रतिशत लिखा हुआ तो नेताओं पर, राजनीतिबाजों पर ही है। शेष में अफसर, पुलिस, धर्माचार्य, यूनियनवाले, निठल्ले कर्मचारी और कवि भी निशाने पर हैं।

किताब 'राष्ट्र के नाम संदेश' से शुरू और 'मानहानि की रचना' पर बंद होती है। यज्ञ शर्मा की चिंता विशेष देश को लेकर ही है। महानताओं का लोप, तुच्छताओं का सिर उठाना और अच्छाइयों का विदा हो जाना उन्होंने अपनी नुकीली शैली में उकेरा है।

मूल्यों को खोता भारत उन्हें कन्फ्यूज्ड लगता है। वे जानते हैं कि पूँजीवादी सत्ताओं के लिए हमारे भूभाग की हैसियत महज बाजार की है। 'कन्फ्यूज्ड देश, एम.पी. गीरी, कॉर्पोरेशन, कॉर्पोरेटर, कॉकरोच, एमएलए, फैमेले, रबर-स्टैंप, धर्म की पार्टी, इकोनॉमी ए. गालिब, न थूकने का फैशन, ऊँट हूट नहीं होता जैसे शीर्षकों से लेखकीय दृष्टि का फैलाव दिखता है और उसकी हिंगलिश का पता भी मिलता है।

पुस्तक : सरकार का घड़ा
लेखक : यज्ञ शर्मा
प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन
मूल्य : 200 रुपए

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