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हमारा शहर उस बरस

राजकमल प्रकाशन

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पुस्तक के बारे में
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आसान दिखने वाली मुश्किल कृति हमारा शहर उस बरस में साक्षात्कार होता है एक कठिन समय की बहुआयामी और उलझाव पैदा करने वाली डरावनी सच्चाइयों से। बात उस बरस की है, जब 'हमारा शहर' आए दिन सांप्रदायिक दंगों से ग्रस्त हो जाता था। आगजनी, मारकाट और तद्जनित दहशत रोजमर्रा का जीवन बनकर एक भयावह सहजता पाते जा रहे थे। कृत्रिम जीवन शैली का यों सहज होना शहरवासियों की मानसिकता, व्यक्तित्व बल्कि पूरे वजूद पर चोट कर रहा था।

औपन्यासिक शिल्प में समय और समाज की सच्चाइयों को ढालने का एक जबर्दस्त प्रयोग गीताजंलि श्री ने हमारा शहर उस बरस में किया है जिसे पढ़कर रोमांचित हुए बिना कोई रह नहीं सकता- चाहे वह किसी भी विचारधारा का हो।

पुस्तक के चुनिंदा अंश
* उस बरस भगवानों की बकायदा खेती हुई। बीज लगे, जिनके ऊपर अँगुल भर मूर्तियाँ रखी गईं, देवी जगदंबे की। और जब धरती को फाड़कर पौधा और देवी प्रकट हुए तो 'जै जगदंबे' से लाउडस्पीकर झनझनाने लगे। ऐसे कि दीवारें हिल गई, गिरजों और मस्जिदों की नीवें हिल गईं। ....नीवें तो मंदिरों की भी हिलीं।...जिस तरह मुल्क में ईटें टूटी, उससे तो शायद सच यह है कि नींव तो मुल्क की हिली। धूल के गुबार थे, हौलजदा भीड़ की कुचलमकुचलाई थी, लाठी-पत्थरों की बारिश थी।
*****
* 'जिन्होंने बँटवारा देखा, उनसे हम ये बात नहीं कर सकते। जिनके मकान, जमीन सब उधर रह गए हो ...' बात सबसे कर रहे हैं पर जब न तब हनीफ की तरफ देखते हैं, मानो बस उसी से कह रहे हैं। ना जाने कितनी बार हुड़क-सी उठती है इस दिल में कि जाकर देखूँ तो कि किस मियाँ की औलाद ने हमारे पुश्तैनी मकान पर कब्जा जमा रखा है। घर होगा उनके लिए हमारा तो जिगर का टुकड़ा है।
*****
*लाउडस्पीकरों की बिक्री और बढ़ी होगी, क्योंकि पुलिस भी उनका जोरों से इस्तेमाल करने लगी थी। उसके ऐलान दूर-दूर तक गूँजते। ऐलान क्या खबरदारी थी। खबरदार, जो किसी लावारिस पड़ी चीज को छुआ। कोई संदिग्ध पैकेट दिखे तो तुरंत बॉम्ब स्क्वॉड को सूचित करें। बच्चों को अकेले ना घूमने दें। खिलौने, रेडियो कुछ तन्हा पड़े मिलें तो खुद भी बचिए, बच्चों को भी दूर रखिए। रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन, बसों, ट्रेनों, टिकट घरों, जहाँ-तहाँ 'खबरदार-खबरदार' के पोस्टर चीखते थे।
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समीक्षकीय टिप्पणी
सांप्रदायिक दंगों पर केन्द्रित गीतांजलिश्री का यह उपन्यास दंगाग्रस्त क्षेत्र, उसके दहशत, उसके सवालात, उसकी उलझनें व उसके सरोकारों को रेखांकित करता है। एक ऐसी आततायी आपात स्थिति जिसका हल तत्काल तलाशना जरूरी होता है। मगर स्थिति बेकाबू रहती है, जिससे कोई हल नहीं निकलता।

शहर 'यहाँ जलें या वहाँ' लोग 'इधर के मरे या उधर के', तसल्ली 'न इनको मिल पाती है और ना उनको'। बेहद रोचक ढंग से दंगों की मानसिकता को उकेरती हुई इस पुस्तक ने मानवता के आगे कई दहला देने वाले सवाल खड़े कर दिए हैं। निश्चित रूप से एक दिलचस्प और पठनीय उपन्यास है- 'हमारा शहर उस बरस'।


उपन्यास : हमारा शहर उस बरस
लेखक : गीताजंलि श्री
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
मूल्य : 125(पेपरबैक)

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