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है अभी कुछ और जो कहा नहीं गया

...कहना जरूरी था : रोचक और मधुर

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हमें फॉलो करें है अभी कुछ और जो कहा नहीं गया
अजितकुमा
NDND
कन्हैयालाल नन्दन की अत्यंत रोचक और चटपटी आत्मकथात्मक कृति '...कहना जरूरी था' में 'धर्मयुग' (मुंबई) में उनकी सहायक-संपादकी (1961-1972) का किंचित विस्तृत और उसके बाद दिल्ली में "पराग" आदि की संपादकी तथा अन्य कार्यभार संभालते हुए स्थायी रूप से दिल्ली में ही रह जाने का संक्षिप्त चित्रण है।

यह उनके कुछ समय पूर्व प्रकाशित संस्मरण 'गुजरा कहाँ-कहाँ से' की अगली कड़ी है और यद्यपि नन्दन जी ने उसे 'बंबइया' से 'दिल्लीवाला' बन जाने के सोपान पर ला छोड़ा है लेकिन स्पष्ट ही यह उनके सक्रिय, आरोहणशील जीवन की पूरी कथा नहीं है। आशा और प्रतीक्षा करनी चाहिए कि वे अपनी बहुरंगी रुचियों, छवियों तथा संपर्कों का निरूपण आगे भी करेंगे ताकि बीच में छूट गई तमाम कड़ियाँ जुड़ती चली जाएँ।

उनकी 'कानपुरी ठसक' और 'सबको प्रिय बनाने की कोशिश' का जिक्र भले पुस्तक के अंत में हुआ हो लेकिन वह शुरू से नजर आती है और यही इस किताब की बड़ी खूबी है कि अपने केंद्रीय प्रतिपाद्य अर्थात-'धर्मयुग' में बीते कठिन जीवन को उन्होंने ठेठ देसी साफगोई और शिष्टता के साथ बयान किया है।

इस क्रम में जहाँ 'धर्मयुग' को हिंदी पत्रकारिता का मानक बना देने वाले यशस्वी संपादक डॉ. धर्मवीर भारती की सूझबूझ तथा कार्यनिष्ठा का उन्होंने सम्यक परिचय दिया है, वहीं दफ्तरी काम-काज में निर्मम रहने वाले उस व्यक्तित्व को भी उभारा है जिसका परिचय दूर-दूर से भारती जी या उनके लेखन को जानने वालों को कदापि नहीं हो सकता था।

पुस्तक बताती है कि भारती जी ने 'धर्मयुग' में आने के बाद अपने 18 सहयोगियों को अयोग्य बताकर निकलवा दिया था और जिन्हें योग्य मान स्वयं नियुक्त किया था उनके काम में भी खोट खोजते रहते थे। तथापि नन्दन जी की कार्य-निष्ठा और तत्परता के कारण भारती जी उनकी नौकरी न ले सके, उलटे तरक्की और बढ़ोतरी का निमित्त बने।

यह सारा किस्सा नन्दनजी ने कुछ इस ढंग से बयान किया है कि लोकचित्त में स्थापित भारती जी की 'गुनाहों के देवता' और 'भर आए आँखड़िया' वाली रूमानी छवि के बरक्स एक ठंडे, अनुशासनप्रिय, बेमुरव्वती, सख्त अफसर का चेहरा सामने आता है जिसकी दिलचस्पी व्यक्ति और उसकी परिस्थिति में नहीं, महज समयबद्ध और कुशलतापूर्वक किए गए काम में थी।

जहाँ इसके प्रति नन्दन जी का क्षोभ इस पुस्तक में व्यक्त हुआ है, वहीं उन्होंने 'धर्मयुग' के माध्यम से हिंदी को अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाने वाली भारती जी की भूमिका को बारंबार सराहा भी है। यह नहीं कि भारती सिर्फ मातहतों को काम में झोंके रख, खुद सैर-सपाटा या मौज-मजा करते थे।

नन्दन जी को जिन भारतीजी से बड़ी भारी शिकायत यह रही कि माँ की मृत्यु पर छुट्टी देने में अड़ंगा लगाया, उनके बारे में वे बताते हैं कि जब खुद भारती जी की माँ का देहांत हुआ, उन्होंने छुट्टी न ली बल्कि काम को प्राथमिकता दी। भारती जी अपने मातहतों को तो पेरते थे ही खुद को भी बख्शते न थे।

अपने संपादक के प्रति आदर और तिरस्कार या घृणा और प्रेम का जो मिलाजुला भाव लेखक ने इस पुस्तक में निरूपित किया है, साथ ही उसके समानांतर अपनी आधि-व्याधि और उन्मुक्त जिजीविषा का खाका खींचा है। वह इसे एक जटिल आख्यान बनाती है, व्यक्ति के मरणोपरांत उसकी छीछालेदर का प्रयास नहीं।

नन्दन जी ने जब कोरे कागज पर हस्ताक्षर कर भारती जी को देना चाहा कि वे मनचाहा त्यागपत्र उस पर लिख लें, तब वे इस कदर नाराज हुए और नन्दनजी को 'गेट आउट' कहा। वह प्रसंग उन्हें "बेनिफिट ऑफ डाउट" जरूर देता है लेकिन यह गुत्थी नहीं सुलझाता कि मित्रवत्सल और विनोदी होने की प्रसिद्धि वाला व्यक्ति दफ्तरी कामकाज में इतना रूखा और सख्त क्यों कर हुआ?

पर भारती जी ने उनकी जो रगड़ाई की, उसी का यह सुफल था कि वे पत्रकारिता के उच्चतर सोपानों तक पहुँच सके। नन्दन जी की गरिमा यह है कि इसे स्वीकारने में उन्होंने कोताही नहीं बरती। साथ ही कुशलता यह कि 'धर्मयुग' का जो दफ्तर उन दिनों 'कैंसर वार्ड' प्रसिद्ध हो गया था, उसके 'डॉक्टर साहब' के बावजूद इनकी सेहत दुरुस्त रही बल्कि बेहतर होती गई जिसका श्रेय जहाँ इनके तत्कालीन मित्रों-शुभचिंतकों को, कला-संगीत-छायांकन के प्रति उनके अनुराग और कार्यनिष्ठा को, वहीं उनकी उन विनोदवृत्ति को भी था जिसने उस कष्टपूर्ण समय को भी इनके लिए सरस बनाए रखा।

आचार्य नंददुलारे बाजपेयी, डॉ. रामकुमार वर्मा के बंबई में स्वागत से सम्बद्ध पुस्तक के विवरण तो मधुर हैं ही, 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' से जुड़ा पठनीय प्रसंग भी सारी तल्खी को मिठास से भर देता है। कहना कठिन है कि इस पुस्तक को भारती जी की 'व्याज निंदा' माना जाए या 'व्याज स्तुति।'

हाँ, एक जगह स्पष्ट रूप से उन्होंने राकेश जी की तुलना में भारती जी को कायर बताना चाहा है क्योंकि यदि उन्होंने भी राकेश जी की देखादेखी त्यागपत्र दे दिया होता तो वह नासमझी और अदूरदर्शिता वाला कदम होता। नन्दन जी की लेखनशैली इतनी आत्मीय-मधुर है कि आशा करनी चाहिए कि इस सबके अलावा- 'है अभी कुछ और जो कहा नहीं गया' को भी वे जरूर कहेंगे।

पुस्तक : ...कहना जरूरी था
लेखक : कन्हैयालाल नन्दन
प्रकाशक : सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : 250 रुपए

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