2007 में डेढ़ सौवीं सालगिरह के मौके पर1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम को लेकर नए सिरे से दिलचस्पी पैदा हुई और उसकी हलचल बौद्धिक हलकों में खूब देखने को मिली। इसका एक स्थायी लाभ यह हुआ है कि अब उस बेहद महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना के बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध है और उसे देखने के विभिन्न नजरिए भी हमारे सामने हैं। यह बहस तो अब लंबी और पुरानी हो चुकी है कि 1857 की उथल-पुथल महज फौज का विद्रोह था या इसे अंग्रेजी राज से आजादी की पहली लड़ाई माना जाए।
स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में ही भारतीय मनीषियों ने उसे स्वतंत्रता का पहला संग्राम मान लिया था और आजादी के बाद आधुनिक भारत का इतिहास लेखन भी इसी मान्यता के साथ आगे बढ़ा है।
इसके बावजूद विद्रोह के विस्तार, उसमें में भागीदारी के वर्गीय आधार और भावी घटनाओं एवं सोच पर उसके प्रभाव को लेकर और ज्यादा शोध एवं लेखन की जरूरत महसूस होती रही है। 1857 के संग्राम की डेढ़ सौवीं सालगिरह ऐसे शोध और लेखन का एक मौका बनी और साथ ही, इस ऐतिहासिक घटना को लेकर समाज में नई जागरूकता पैदा हुई, यह संतोष का विषय है।
संतोष की दूसरी बात यह है कि1857 को लेकर जारी विचार-विमर्श का एक हिस्सा अब आम जन के लिए भी उपलब्ध है। यह अक्सर बड़ी चुनौती रही है कि कैसे उन ऐतिहासिक घटनाओं के बारे में आम लोगों को जागरूक बनाया जाए, जिनका अपने राष्ट्र और आधुनिक समाज के निर्माण में आधारभूत योगदान रहा है। हिंदी भाषी लोगों के संदर्भ में यह काम और भी कठिन रहा है क्योंकि भारत में अक्सर इतिहास, समाज और राजनीति को लेकर होने वाले बौद्धिक प्रयास अंग्रेजी में होते हैं।
इस लिहाज से ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन ने बगावत के दौर का इतिहास, नाम की किताब प्रकाशित कर एक बड़ी कमी पूरी की है। यह विभिन्न लेखों का एक संग्रह है, जिसे संपादकों ने व्यवस्थित रूप से और एक पूरी विचार-योजना के साथ प्रस्तुत किया है। ये लेख पाँच खंडों में विभाजित हैं। इतिहास लेखन की भिन्न-भिन्न दृष्टियों, संग्राम के भौगोलिक विस्तार, सौदागरी पूंजी और आजादी की पहली लड़ाई, तत्कालीन विश्व में बगावत की चर्चा, और क्रांति पर लिखे गए महत्वपूर्ण ग्रंथों के बारे में अलग-अलग अध्याय हैं।
कहा जा सकता है कि यह किताब 1857 को लेकर हुए अब तक हुए विमर्श की एक साथ एक पूरी झलक प्रस्तुत करने में कामयाब है। उस बड़े घटनाक्रम की जानकारी समृद्ध करने के साथ उसके बारे में समझ को गहराई देने और उसे जिन अलग-अलग नजरियों से देखा गया है, उनके तर्कों को जानने का स्रोत यह किताब बनी है।
इसका एक खास पहलू मिथक और यथार्थ को अलग करने की कोशिश है। इस विषय पर किताब में शामिल एक लेख अति-महत्वपूर्ण है और साथ ही, आखिरी खंड में विभिन्न ग्रंथों की समीक्षा भी, जिससे किस्सागोई और इतिहास के अंतर को हम बेहतर समझ पाते हैं। इस किताब ने 1857 के आम इतिहास के साथ सब-ऑल्टर्न विमर्श को भी हमारे सामने रखा है और इस तरह इसका दायरा व्यापक बन पड़ा है।
इतिहासकार मानते हैं कि आधुनिक भारत की शुरुआत आजादी की पहली जंग से होती है। जाहिर है, इस बुनियादी घटनाक्रम को जानना और समझना हम सबके लिए जरूरी है। ग्रंथ शिल्पी ने बगावत के दौर का इतिहास संकलित रूप में पेश कर एक बेहद खास सामाजिक जरूरत को पूरी करने की कोशिश की है। अफसोस की एकमात्र बात इसकी कीमत है जो इसे आम पाठकों की पहुँच से शायद दूर बनाए रखेगी।
पुस्तक : 1857, बगावत के दौर का इतिहास संपादक : मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और रेखा अवस्थी प्रकाशक : ग्रंथ शिल्पी मूल्य : 1250 रुपए