समीक्षक: एम.एम.चन्द्रा
व्यंग्य की दुनिया में चार पीढ़ी एक साथ सक्रिय है, यह व्यंग्य क्षेत्र के लिए शुभ संकेत है। मैं व्यक्तिगत तौर पर इस बात का खंडन करता हूं, कि व्यंग्य के लिए यह समय अंधकार का समय है या चरणवंदन का समय है या भक्तिकाल है। इतिहास में कभी ऐसा दौर नहीं रहा, जहां सिर्फ एक जैसा लेखन रहा हो। भक्ति काल में भी विद्रोही लेखन हुआ है। रही बात व्यंग्य लेखन के अंधेरे दौर की, तो वह भी साहित्य समाज और राजनीति से अलग नहीं है। अंधेरे के साथ उजला पक्ष भी हमेशा रहा है।
शशिकांत तीसरी पीढ़ी के व्यंग्यकार है। जाहिर है जब से उन्होंने लिखना शुरू किया है, तब से लेकर आज तक भारत सहित पूरी दुनिया बहुत तेजी से बदली है। इस बदलती दुनिया की नब्ज को पकड़ना और उसकी रफ्तार के साथ कलम चलाना कठिन और चुनौतीपूर्ण काम है। यही काम शशिकांत ने सागर मंथन की तरह किया है।
व्यंग्य संग्रह "सागर मंथन चालू है" के व्यंग्य प्रतिरोध की संस्कृति को स्वर देते हैं कि व्यंग्यकार के लिए निरपेक्ष लेखन जैसा कोई सृजन नहीं होता है। लेकिन सापेक्ष लेखन का मतलब किसी पार्टी या किसी नेता का पक्ष लेना नहीं होता है। बल्कि व्यंग्य लेखन या तो शोषक वर्ग के पक्ष में लिखा जाता है या शोषित वर्ग के पक्ष में, जो लेखन 80 प्रतिशत आबादी का नेतृत्व नहीं करता उसका लेखन सिर्फ और सिर्फ शासक वर्ग की सेवा करता है।
इस व्यंग्य संग्रह के अधिकतर व्यंग्य, विचारों की स्पष्टता और पक्षधरता को साथ लेकर चलते हैं। वर्तमान समाज की विसंगतियों और विद्रूपताओं को देखने का यही नजरिया उनको गंभीर लेखक बनाता है। गंभीर लेखन गंभीर पाठक की मांग करता है। अधिकतर व्यंग्य रचनाओं का शिल्प, प्रसिद्ध पात्रों, घटनाओं, पौराणिक आख्यानों और लोककथाओं के माध्यम से होता है। व्यंग्य रचनाएं इतिहास बोध का सहारा लेकर वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक विसंगतियों पर तीखा प्रहार करती है।
वैसे तो प्रसिद्ध पात्रों, घटनाओं, पौराणिक आख्यानों, और लोककथाओं को वर्तमान सामाजिक राजनीतिक धरातल पर लिखना बहुत ही कठिन काम है यदि सध जाए तो बेहतरीन, यदि साध नहीं पाए तो व्यंग्य की दोधारी तलवार पाठक की चेतना का ज्यादा नुकसान करती है। लेकिन संग्रह के अधिकतर व्यंग्य प्राचीनता से वर्तमान को जोड़ने का कमाल बखूबी किया है। व्यंग्य संग्रह में शामिल बहुत से व्यंग्य, जैसे धरती पर एक दिन, सागर मंथन चालू है, हो गयी क्रांति, खल्क खुदा का, हुक्म सरकार का, निजहितोपदेश, तुलसीदास हाजिर हो, मुर्गाबाड़ा, बिल्ली के गले में घंटी—पार्ट टू’ ,‘गूंगी प्रजा का वकील’ इत्यादि व्यंग्य में पठनीयता होने के कारण व्यंग्य के बड़े होने से भी सुधी पाठक पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। अधिकतर व्यंग्य आम पाठक की रोचकता को बरकरार रखते हुए यथार्थवादी चिंतन का प्रतिनिधित्व करते है।
व्यंग्य में यथार्थवादी लेखन 1990 के बाद बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जा रहा है। लेखक को यथार्थवादी लेखन से आगे बढ़ने की ज्यादा जरूरत है, क्योंकि यथार्थवादी लेखन की सबसे बड़ी समस्या यही है कि वह समाज की वैकल्पिक व्यवस्था पर ज्यादा विचार-विमर्श नहीं करता है। मुझे लेखक से उम्मीद है कि अगले संग्रह तक लेखक अपने सृजन में सामाजिक स्वप्न को भी साकार करते नजर आएंगे।
व्यंग्य : संग्रह- ‘सागर-मंथन चालू है’
लेखक : शशिकांत सिंह ‘शशि’
प्रकाशक : अनंग प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ : 159