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पुस्तक समीक्षा : मन की अनभूतियों की कविताएं- 'मेरी तुम'

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सुशील कुमार शर्मा

विजय नामदेव की पुस्तक 'मेरी तुम' जब मुझे समीक्षार्थ मिली तो उसका शीर्षक 'मेरी तुम' पढ़कर कुछ अजीब-सा लगा। मुझे लगा के इसमें प्रेम विशेषकर युवा प्रेमी-प्रेमिका के मन के भाव होंगे और अटपटा इसलिए भी लगा कि विजय मेरे छात्र रहे हैं। छात्र की प्रेम कविताओं की गुरु समीक्षा करे, इसमें मुझे थोड़ा संकोच लग रहा था। किंतु जब मैंने पुस्तक को पढ़ा तो मैं आश्चर्यचकित हो गया कि इस पुस्तक का शीर्षक अंदर के कंटेंट से ज्यादा संबद्ध नहीं है। 
 
इस पुस्तक की कविताओं में इतनी व्यापकता है कि यह शीर्षक 'मेरी तुम' इन कविताओं के लिए बहुत बौना है। कोई युवा कवि आज के माहौल में अपने पहला संग्रह प्रेम कविताओं का लेकर आए तो दोहरी प्रतिक्रियाएं एकसाथ हो सकती हैं। एक तो यह कि क्या यह कवि आज के जलते हुए परिवेश से अपरिचित है और दूसरी यह कि क्या यह कवि परिचित होने के बावजूद प्रेम की खोज को ही अपनी राह बनाना चाहता है। 
 
काव्य-सृजन प्रक्रिया दो प्रमुख आधारों पर टिकी होती है, जो कवि व्यक्तित्व को निखारती है। काव्य-सृजन में रचनाकार के काव्यगत उद्देश्य और रचनात्मक रूप में उनका अभिव्यक्तिकरण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रचनाकार अपने अनुभवों द्वारा जीवन उद्देश्यों को काव्य रूप देकर संप्रेषणीय आधार प्रदान करता है और यह संप्रेषण काव्यगत सृजनात्मक विचारशीलता से सिद्ध होता है। यह धर्म कविता व मनुष्य के समानांतर अनादिकाल से आज तक विद्यमान रहा है। इसीलिए जब कभी मनुष्य के स्वाधीन होने का प्रश्न उठा, कविता ने उसे रास्ता दिखाया। मनुष्य ने अपने जीवन में स्वातंत्र्य के मूल अर्थात लोकतंत्र को पहचाना या नहीं किंतु कविता की बहुआयामी दृष्टि ने जीवन की वास्तविकता को सदैव प्रस्तुत किया। 
 
विजय नामदेव की कविताओं में कविता की प्रतिस्थापना ने लोकधर्म को सदैव केंद्र में रखा है। उनकी कविता 'जिंदगी' की ये पंक्तियां लोकधर्म का अनुसरण करती हैं।
 
करम/ पूजा/ प्रेरणा/
जिंदगी आदर्श हो/
तो सार्थक/ वरना/
लिबास कब तक निखरेगा। 
 
विजय नामदेव की रचनाएं व्यक्ति के अंतरमन के द्वंद्व को पाठक के सामने प्रस्तुत करती हैं। कविताएं समय और व्यक्ति के द्वंद्व को उकेरती हुईं अपने से संवाद और संघर्ष करती हैं। अधिकतर रचनाएं एक आदमी की आशा, निराशा, चुनौतियां, संवेदनाएं, उसका अलगाव जैसी तमाम अभिव्यक्तियों को पाठक तक पहुंचाती हैं। 
 
कितनी दूर/
जंगल से/
पैदल नंगे पैर/
सहते हुए/
चलकर आती है वो/
सिर पर लकड़ी का/
गट्ठर लिए/
किसके लिए? 
 
(कविता 'नंगे पैर' से)
 
विजय नामदेव के इस कविता संग्रह की अधिकांश कविताओं की पृष्ठभूमि में पार्श्व संगीत की तरह मनुष्यता की पीड़ा और उसके अवसाद की अनुगूंज अनवरत सुनाई देती रहती है। कवि के अनुसार इस अदम्य पीड़ा से दो-चार करना कविता ही सिखाती है। 
 
पैरों के छाले/
शब्दों के प्रवाह को/
अवरुद्ध कर देते हैं/
सारी साधें, सारे सपने/
सारे जज्बात/
रह जाते हैं सिमटकर।
 
(कविता 'पैरों के छाले' से)
 
विजय अपने काव्य-कर्म तथा काव्य-लक्ष्य को लेकर अत्यंत सजग और सतर्क नजर आते हैं इसीलिए उन्होंने अपनी कई कविताओं में कविता के उद्देश्य को उद्घाटित किया है। छंद मुक्त कविताएं हैं, जो गैर-बराबरी पर आधारित व्यवस्था को चुनौती ही नहीं देती, बल्कि पाठकों को सामाजिक सरोकार तक लिए हुए भी अपने कार्यभार को चिन्हित करती हैं। 
 
अवरोधों के चलते/
कविता कन्या भ्रूण की भांति/
प्राण त्याग रही है।
 
सरकारी अस्पताल के/
जनरल वार्ड में पड़े हैं/
शब्द बीमार होकर। 
 
(कविता 'इंतजार' से)
 
इन कविताओं की सार्थकता उनके सीधे-सच्चेपन में है। न ये कृत्रिम हैं और न ही सजावटी। इतनी पकी भी नहीं हैं कि उनमें से कच्चेपन की एकदम ताजा खुशबू गायब हो। प्यार की मासूमियत और ललक यहां बराबर हिलोरे लेती है। 
 
मदभरी काली आंखें/
काला काजल/ चेहरा किताबी/ 
मैं था नादां/
लुट गया/
न चाहकर भी।
 
(कविता 'ख्वाब शशि के' से)
 
विजय की कविताओं में मनुष्य की उद्दाम लालसाओं का शिकार यह ग्रामीण जीवन कैसे हो गया है, इसका बहुत सटीक चित्रण किया गया है। इन कविताओं में कवि के मन की अंतरव्यथा उजागर हुई है, जहां जीवन सिर्फ खुद के अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। 
 
भागते हैं लोग यहां/
सड़कों के दरम्यां/
कमाने/ कमाकर खाने/
कुछ कर दिखाने/
यह सोचकर कि/
जीना है/ हर हाल में/
जिंदगी के/ सुर ताल में।
 
(कविता 'भागते लोग' से)
 
विजय मानवीय संवेदना में आई गिरावट का बारीकी से मुआयना करते हुए मुकम्मल गजल कहते हैं। किसी भी रचनाकार को पढ़कर मुझे उत्साह मिलता है। जिसकी रचनाओं में समाज को बदलने की जिजीविषा होती है। 
 
सुख खाते, सुविधाएं पीते/
झूठी शान में तनकर जीते/
कुठियां भरी पड़ी हैं/
लेकिन देखो हम रीते के रीते। 
 
संकलित कविताओं में एक ओर शोषित श्रेणी के लिए संघर्ष का लोकधर्म है तो दूसरी ओर समय के साथ उपस्थित विध्वंसकारी शक्तियों का सामना करते हुए कविता के क्षेत्र में लोकतंत्र की प्रतिस्थापना का आग्रह दृष्टिगोचर होता है। 
 
कवि ने गांवों की अंतरव्यथा को, उसकी गरीबी को, उसके खुश्क चेहरे को देखने का तथा उसकी पीड़ा को व्यक्त करने का कार्य 'मुझको मेरे गांव ले चलो', 'मुझे बुलाता मेरा गांव' आदि कविताओं में किया है। 
 
कवि की दुनिया सामान्य लोगों की दुनिया से अलहदा होती है। जहां सामान्य आदमी अपनी सीमित दुनिया में सिमटा-सकुचाया हुआ होता है, वहीं कवि की दुनिया अत्यंत विस्तार लिए होती है। इस विस्तार में प्राणी ही नहीं, प्राणीतर भी पारिवारिक हो जाते हैं। 
 
अमराई में कोयल कूके/
मन में खेतों की हों हूंकें/
बूढ़ी आंखें हमसे पूछें/
क्यों बेटा तुम हमसे रूठे। 
 
कविताओं की भाषा में विविधता है। परंपरागत प्रतीकों के स्थान पर कवि ने अपने लक्ष्य की पहचान करने वाले उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। नए सौंदर्य का बोध कराने वाली भाषा चलताऊ भाषा से बिलकुल अलग है। आक्रोश के क्षणों में बिम्बवान स्वाभाविक पीड़ा को उजागर करती हैं।
 
काव्य-भाषा जितनी मानक और प्रतिष्ठित होगी, उतनी ही साहित्य और समाज के लिए लाभकारी होगी। सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उसमें युग की नई चेतना नए रूप में अभिव्यक्त हुई है, वह भी नई काव्य-भाषा में जिसमें चेतना और भावना के विद्रोह के साथ भाषा का विद्रोह भी मिलता है। 
 
विजय नामदेव के काव्य-संग्रह की सबसे बड़ी कमजोरी मुझे इसका शीर्षक लगा जिसने इतनी सुन्दर कविताओं को एक सीमा में समेट दिया है। चूंकि पुस्तक का शीर्षक बदला नहीं जा सकता इसलिए विजय को मैं संदेह का लाभ दे रहा हूं। 
 
यह काव्य-संकलन विजय की प्रतिभा के साथ न्याय करता है एवं समाज में कविता के मानक प्रतिमान स्थापित करने में सक्षम है। गुरु के नाते मेरा आशीर्वाद है कि वे साहित्य को सामाजिक सरोकारों से जोड़ें और सरस्वती की साधना में अविचल सन्निद्ध रहें। 
 
शीर्षक- मेरी तुम
लेखक- विजय 'बेशर्म'
प्रकाशक- शुभांजलि प्रकाशन, कानपुर (उप्र)
मूल्य- 150 रुपए
 

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